मन भी तो जड़ है

November 1970

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ब्राह्मण देवदत्त जनक के पास जाकर बोला-महाराज आप आत्मदर्शी हैं मुझे कोई उपाय बतायें। मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं आत्मा को प्राप्त करूं पर यह मन है कि लौकिक सुख, भोग, तृष्णा और वासना से विरत होता ही नहीं। जनक बिना कुछ बोले उठे और एक खंभे को पकड़कर खड़े हो गये। ब्राह्मण बड़ी देर तक देखता रहा ‘फिर बोला’ महाराज यह क्या कर रहे हैं मेरे प्रश्न का उत्तर? जनक बोले, भाई क्या करूं इस खंभे ने मुझे पकड़ लिया है। छोड़ता नहीं, छोड़ें तो कुछ बात करूं।

ब्राह्मण हंसा-बोला- ‘जड़ खंभा कहीं पकड़ सकता है?’ इस पर जनक ने उत्तर दिया- भाई मन भी तो जड़ है, उसकी क्या औकात कि तुम्हें पकड़ ले।


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