जिज्ञासा और धैर्य में आत्मज्ञान की पात्रता सन्निहित

November 1970

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प्रजापति ने एक बार यह घोषणा की कि, ‘आत्मा अजन्मा, अमर-तथा अविनाशी है। वह ही सत्य एवं नित्य है। वही एकमात्र लक्ष्य है प्राणी का! उसका संपूर्ण ज्ञान पा लेना ही सच्ची वास्तविकता है। उसे जान लेने पर मनुष्य के लिये तीनों लोकों की सम्पदायें सहज ही संभाव्य हो जाती हैं।’

घोषणा सुनाकर देवता तथा असुर दोनों ही इस आत्म ज्ञान को पाने के लिये लालायित हो उठे। तब सभी ने मिलकर यह तय किया कि दोनों वर्ग अपना-अपना एक-एक प्रतिनिधि भेजें-जो प्रजापति से आत्म-ज्ञान सीखकर आये और वह अपने-अपने वर्ग में सबको सिखाए।

देवताओं ने इन्द्र को तथा असुरों ने विरोचन को इस शुभ कार्य के लिये चुना। दोनों साथ-साथ ही चल पड़े।

प्रजापति ने देखा-इन्द्र तथा विरोचन दोनों ही समिधायें हाथ में लिये चले आ रहे हैं। विहंग कर उन्होंने प्रश्न किया कहिए मित्र! आज इधर कैसे आना हुआ?’

इन्द्र विनत वपु होकर बोले। ‘आज आप हमें मित्र कहकर संबोधित न करें। आज तो हम आपके शिष्य बनकर आत्म ज्ञान पाने की अभिलाषा से आये हैं। ‘प्रजापति ने दोनों को अपने यहाँ ठहराया और बत्तीस वर्ष ब्रह्मचारी की तरह रहने को कहा। दोनों यम-नियमों का पालन करते हुए वहीं रहने लगे।

अवधि पूर्ण होने पर एक दिन प्रजापति ने दोनों को बुलाया और कहा ‘आँख की पुतली में अपना प्रतिबिंब देखो। जल में अथवा दर्पण में देखो। यह जो आत्मा है-सर्वत्र व्याप्त है तुम्हारे इस शरीर में भी।

दोनों ने अपने-अपने शरीर को खूब सजाया और चल पड़े-विरोचन अपने दल में पहुँचे। सभी ने स्वागत किया। सब उत्सुक हो उठे। विरोचन आत्मा का ज्ञान लेकर आये हैं। हमें भी बतायेंगे। विरोचन ने उसी दिन से सबको कहना प्रारंभ कर दिया। ‘यह शरीर ही आत्मा है। इसे खुद सुन्दर बनाओ। सुन्दर वस्त्र, आभूषण पहनो।

सुख, चैन का जीवन व्यतीत करो। इसी की प्रशंसा करो और इसी के आराधना।

और उसी दिन से असुर शरीर सुख में ही डूब गये। आज भी असुरों को सच्चा ज्ञान नहीं है, कि आत्मा क्या है? और कैसे उसके स्वरूप को जाना जा सकता है? वे शरीर सुख को ही चरम आनन्द माने हुए हैं। भौतिकता में डूबे हुए हैं, स्वार्थ सिद्धि में ही संलग्न हैं।

किन्तु इन्द्र की आत्मा की इस उत्तर से संतोष न हुआ। वे उस समय तो चले गये किन्तु कुछ काल में ही वापस आये और पुनः प्रजापति के समक्ष आ उपस्थित हुए। बोले ‘मेरी जिज्ञासा शाँत नहीं हुई देव! देव यदि शरीर ही आत्मा है, तो फिर वह अनश्वर तथा अविनाशी कैसे हो सकता है? शरीर तो मरणधर्मा है।’

प्रजापति बोले ‘तुम्हारी वह जिज्ञासा ही तुम्हें तुम्हारी लक्ष्य तक पहुँचा देगी। तुम बत्तीस वर्ष और यहाँ निवास करो।’

इन्द्र पुनः बत्तीस वर्ष वहीं रहे। अवधि के अन्त में प्रजापति ने बताया ‘स्वप्न चेतना में जो कुछ प्रभु की तरह भ्रमण करता है- वही आत्मा है।’

सुनकर इन्द्र चले तो गये पर पूर्ण संतुष्टि अब भी नहीं हुई थी। आधे रास्ते से ही लौट आये और अपनी शंका व्यक्त की। ‘भला स्वप्न में की गई अनुभूति आत्मा कैसे हो सकती है। स्वप्न में तो दुःख भी होता है- पीड़ा भी होती है। अन्य भी कई इन्द्रिय जन्य अनुभूतियाँ होती हैं। जबकि आत्मा तो सुख−दुःख से परे इन्द्रियातीत है?’

प्रजापति इस बार भी अति प्रसन्न हुए और बोले- ‘तुम्हारी शंकायें बिल्कुल ठीक हैं। तुम सत्य कहते हो। बत्तीस वर्ष और निवास करो यहाँ तब आगे का ज्ञान भी दूँगा।’

इन्द्र पुनः बत्तीस वर्ष प्रजापति के पास ब्रह्मचर्य पूर्वक रहे और अन्त में प्रजापति ने बताया ‘अत्यन्त प्रगाढ़ निद्रा में जो स्वात्मा अखण्ड आनन्द की अनुभूति करता है- वही आत्मा है।’

इन्द्र पुनः सुरलोक को चले गये। पर मन अभी भी अशान्त था। जिज्ञासा तृप्ति नहीं पा सकी थी। चेतना उद्वेलित थी।

सब कुछ मिलकर उन्हें फिर घसीट लाया और प्रजापति के सम्मुख ला खड़ा किया। इन्द्र ने पुनः प्रजापति के समक्ष अपनी शंका व्यक्त की। ‘मुझे अभी भी संतोष नहीं हुआ, हे भगवन्! स्वप्न विहीन गहरी निद्रा में जीव को निज का कोई अनुभव नहीं होता। अपने बारे में उसे कोई चेतना नहीं रहती। तो फिर यह चेतना विहीन प्राणी जिसे सदा प्रकाशमय स्वात्म कहा जाता है-आत्मा कैसे हो सकती है।’

इस बार इन्द्र की निरन्तर की जिज्ञासा से प्रजापति बहुत प्रभावित हुए उन्होंने उन्हें केवल पाँच वर्ष रहने को कहा। पाँच वर्ष भी पूर्ण हुए और निश्चित समय पर प्रजापति इन्द्र को लेकर ज्ञान देने बैठे। बोले, ‘इन्द्र! तुम्हारी ये अत्यन्त उत्कण्ठा तथा प्रबल जिज्ञासा ही तुम्हारे पात्रत्व की कसौटी है। जिस प्रकार बिना सच्ची श्रद्धा के पूर्ण विश्वास नहीं होता उसी प्रकार बिना सच्ची जिज्ञासा के पूर्ण ज्ञान भी नहीं होता। तुमने अपनी पात्रता सिद्ध कर दी है। यह शरीर तो आत्मा का क्षणिक निवास स्थान है। जब तक आत्मा शरीर में आबद्ध रहता है-तब तक इसका संबंध वाँछनीय, अवाँछनीय, सुख, दुःख तथा अच्छाई बुराई से जुड़ा प्रतीत होता है। जिस प्रकार अनन्त आकाश में कुछ क्षणों के लिये बिजली, बादल तथा वायु अपना प्रभाव दिखाते और चले जाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न शरीर भी कुछ काल को आत्मा को धारण करते और नष्ट हो जाते हैं। मुक्त होने पर आत्मा ज्यों का त्यों बना रहता है और असीम लोकों में उन्मुक्त भ्रमण करता रहता है। अन्त में वह उस परम तत्व में, अनन्त आत्मा में ही विलीन हो जाता है। जैसे विभिन्न नदियाँ समुद्र में लय होकर अपना नाम-रूप खो देती हैं समुद्र ही हो जाती हैं- यही गति तथा स्वरूप इस आत्मा का है। इस सृष्टि का अन्तिम सत्य यह आत्मा ही है। जीव तथा ब्रह्म में केवल लघु और विराट का ही भेद है- तत्व की दृष्टि से कोई भेद नहीं।’

अब इन्द्र को संतोष तथा तृप्ति हुई। वे सुरलोक आये और समस्त देवताओं को अपना संचित ज्ञान जो कि उन्होंने एक सौ एक वर्ष के कठिन परिश्रम से अर्जित कर पाया था-प्रदान किया।

सच्चे मन से परमार्थ में रत देवताओं ने अपनी स्वच्छ मनोभूमियों में उसे ऐसे ही ग्रहण किया जैसे सीप ने स्वाति बूँद को और आज भी सच्चे ज्ञान के बल पर ही देवता-देवता बने हुए हैं। असुरों तथा सुरों के भेद की यह एक सुन्दर कसौटी है।


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