अपूर्णता से पूर्णता की ओर

November 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परमाणु इतना छोटा होता है कि उसके आकार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि एक मनुष्य-परमाणु जितना छोटा होता तो सारे भारतवर्ष की 53 करोड़ आबादी सुई की नोंक में बैठकर विश्राम कर लेती। इसी दृष्टान्त से परमाणु की सूक्ष्मता का पता लगाया जा सकता है।

पानी की एक बूँद में 6000000000000000000000 परमाणु होते हैं वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाकर देखा तो पाया कि यदि इतनी संख्या में कहीं अंगूर मिल जाते और उन्हें कहीं रखने के लिये स्थान की आवश्यकता पड़ती तो वह स्थान गोलाई की ओर से 24902 मील और ध्रुवों की ओर से 24860 मील वाली पृथ्वी से 75 गुना बड़ा तब होता जब तक एक स्थान में 1 फुट ऊंचा अंगूर भर दिया गया होता।

परमाणु अपने आप में अन्तिम लघुता नहीं है। उससे भी सूक्ष्म तत्व उसके अन्दर बैठे हैं और वह परमाणु की तुलना में इतने छोटे हैं जितनी सौर मण्डल की तुलना में पृथ्वी। सन 1911 की बात है अर्नेस्अर रदर फोर्ड नामक एक अंग्रेज वैज्ञानिक एक प्रयोग कर रहे थे। सीसे से बनी हुई एक प्रकार की बन्दूक की नली में उन्होंने थोड़ी सी रेडियम धातु रखी। सामने एक पर्दा लगाकर उन्होंने बीच में शुद्ध सोने का एक पत्तर लगा दिया। यह ‘पत्तर’ बहुत पतला था तो परमाणुओं की सघनता तो थी ही उस पर रेडियम के परमाणुओं ने गोलियों की तरह बौछार की। ध्यान से देखने पर पता चला कि कुछ परमाणु उस पत्तरे को भी पार कर गये हैं और उनकी आभा सामने पर्दे पर पड़ रही है यह सीधे मार्ग से कुछ हटी हुई थी।

विचार करने से मनुष्य समुद्र के रहस्य को भी ढूंढ़ लेता है, रदर फोर्ड ने सोचा यदि सोने के परमाणु ठोस होते तो रेडियम के परमाणु उसे बेधकर पार नहीं जा सकते थे। स्पष्ट था कि परमाणु के भीतर भी रिक्ता थी, पीलापन था उस पीलापन ने ही रेडियम परमाणुओं को आगे बढ़ने दिया पर उसका सम्पूर्ण भाग ही पीला नहीं था क्योंकि कई बार रेडियम के परमाणु इस तरह छितर जाते थे मानो सोने के परमाणुओं के भीतर कोई और भी सूक्ष्मतम वस्तु बैठी हुई हो और वह बन्दूक से आने वाले रेडियम परमाणुओं को भी तोड़-फोड़ डालती है। उसे रदर फोर्ड ने पहली बार परमाणु का मध्य नाभिक या केंद्रक (न्यूक्लियस) नाम दिया। उसके बाद से आज तक नाभिक पर खोजें पर खोजें होती जा रही हैं पर इस सूक्ष्मतम तत्व के बारे में आज तक पूर्ण रूप से जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकी। पर जो कुछ समझ में आया उसने भारतीय तत्वदर्शन की इस मान्यता को बड़ा बल दिया कि आत्मा एक सर्वव्यापी चेतन तत्व है संसार में जो कुछ भी है वह सब आत्मा में ही है।

परमाणु जितना छोटा होता है उससे भी 1000000000000वाँ भाग छोटा नाभिक होता है। परमाणु जितना रहस्यपूर्ण है नाभिक उससे भी अधिक रहस्यपूर्ण है। अनुमान है कि परमाणु एक सौर मण्डल की तरह है तो नाभिक एक सूर्य की तरह जिसमें परमाणु की क्रियाशील रखने वाली ऊर्जा भी है और प्रकाश भी। नियंत्रण भी है और जीवन की सम्पूर्ण चेतना भी। नाभिक ही सच पूछा जाये तो परमाणु की प्रत्येक गतिविधि का अधिष्ठाता है। उसी प्रकार जीव का अधिष्ठाता आत्मा है जब तक जीव उसे प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसे शाँति नहीं मिलती।

यह तथ्य पढ़ते समय भारतीय तत्वदर्शन के यह विवेचन याद आ जाते हैं-

वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।

भागो जीवः स विज्ञेय इति चाहापरा श्रुति॥

-पञ्चदशी चित्रदीप प्रकाश।81

अर्थात् एक बाल के अग्र भाग के जो सौ भाग करें उनमें से एक भाग के सौवें भाग की कल्पना करो तो उतना अणु एक जीव का स्वरूप है ऐसा श्रुति कहती है।

किन्तु आत्मा-

तस्मादात्मा महानेव नैवाणुर्नापि मध्यमः।

आकाश वत्ससर्वगतो निरंशः श्रुति संमतः॥

-पञ्चदशी। चित्र।86

अर्थात्- न अणु है न मध्यम है आत्मा विराट और आकाश के समान 1. सर्वव्यापी 2. क्रिया रहित 3. सर्वगत 4. नित्य कला युक्त है।

परमाणु विज्ञान ने भारतीय दर्शन की इन संपूर्ण मान्यताओं को सिद्ध कर दिया है। भले ही आज के वैज्ञानिक अभी तक जड़ चेतन के अन्तर को न समझ पाये हों। परमाणुओं की चेतना, जड़ पदार्थों से भिन्न गुणों वाली है। उपनिषद्कार लिखते हैं-

एष हि द्रष्टा, स्प्रष्टा श्रोता घ्राता।

रसयिता मन्ता बोद्धा कर्त्ता-

विज्ञानात्मा पुरुषः॥

अर्थात्- देखने वाला, छूने वाला, सुनने वाला, सूँघने वाला, स्वाद चखने वाला, मनन करने वाला और कार्य करने वाला ही विज्ञानमय आत्मा है।

नाभिक तत्व को आत्मा की प्रतिकृति जीवन का सूक्ष्मकण-कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। नाभिक ‘प्रोटान’ और ‘न्यूट्रॉन’ दो प्रकार के कणों से बना हुआ होता है। उसके किनारे इलेक्ट्रान चक्कर काटते हैं। प्रोटान एक प्रकार की धन विद्युत आवेश, न्यूट्रॉन विद्युत आवेश रहित और इलेक्ट्रान जो इन दोनों की तुलना में 1800 गुना हलका होता है ऋण विद्युत आवेश होता। इसे आत्मा से भटका हुआ जीव कहते हैं। ‘वैशेषिक दर्शन’ में आत्मा को शाँत, धीर और पूर्ण शक्ति के रूप में भी माना है और पदार्थ के रूप में भी। दोनों विसंगतियाँ नाभिक में मूर्तिमान हैं। नाभिक के प्रोटान कण शक्ति है इनमें भार नहीं होता पर न्यूट्रोन में भार होता है वही सारे परमाणु के भार के बराबर होता है। नाभिक में दोनों का ही अस्तित्व समान है। ‘इलेक्ट्रान’ जीव है और वे तब तक चैन से नहीं बैठ पाते जब तक अक्रियाशील गैसों की अर्थात् मानसिक या आत्मिक द्वन्द्व की स्थिति से मुक्ति नहीं पा लेते।

नाभिक के किनारे इलेक्ट्रान कई कक्षाओं में घूमते हैं। प्रत्येक कक्षा (ऑर्बिट) में 2 एन 2 इलेक्ट्रान हो सकते हैं। एन=कक्षा की संख्या अर्थात् प्रथम कक्षा में 4 दूसरे में 8 तीसरे में 18 इलेक्ट्रान होंगे। यह कहना चाहिये जो जितना अधिक उलझ गया है वह उतना ही दुःखी है। पर अन्तिम कक्षा में प्रत्येक अवस्था में किसी भी द्रव्य में अधिक से अधिक 8 ही इलेक्ट्रान होंगे। यह इस बात के परिचायक हैं कि प्रत्येक जीव का अन्तिम लक्ष्य एक ही है सिद्धाँत से बंधा हुआ है कि उसे आत्म तत्व को खोज करनी चाहिये। परमाणु की सारी हलचल अपने आपको अक्रियाशील बनाने की है। अक्रियाशील गैसें अर्थात् हीलियम, नियोन, अगनि, क्रिष्टन, जीनान, रैडन आदि। जीव की सारी हलचल पूर्णता प्राप्त करने की है पर जब तक हम त्याग करना नहीं सीखते वह लक्ष्य मिलता नहीं। यह तथ्य भी हमें परमाणु से ही सीखने को मिलता है। उदाहरण के लिये नमक सोडियम और क्लोरीन से मिलकर बनता है। सोडियम की बा हरी कक्षा में 1 इलेक्ट्रान घूमता है वह अपना एक इलेक्ट्रान क्लोरीन को नियोन की स्थिति में पहुँच जाता है ‘क्लोरीन’ की बाहरी कक्षा में 7 इलेक्ट्रान थे। एक की आवश्यकता थी वह सोडियम ने पूरी कर दी तो जैसे ही उसके इलेक्ट्रान 8 हो गये वह भी अगनि नामक अक्रियाशील गैस की स्थिति में पहुँच जाता है। आपसी क्षमताओं का आदान-प्रदान कर आत्म-विस्तार की यह प्रक्रिया ही आत्म-कल्याण का सच्चा राजमार्ग है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118