अचेतन कुछ भी नहीं-जड़ भी चेतन

November 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

1931 तक वैज्ञानिक इतना ही जान सके थे कि एक अणु के नाभिक (न्यूक्लियस) में प्रोटोन और न्यूट्रोन परमाणु होते हैं और उसके किनारे कई कक्षाओं में इलेक्ट्रान चक्कर काटते रहते हैं। ‘प्रोटोन’ धन विद्युत कण और ‘इलेक्ट्रान’ ऋण विद्युत कण होते हैं। न्यूट्रोन में भार होता है आवेश नहीं होता।

लेकिन अगले वर्ष 1932 में ही डॉ. सी.डी. एण्डरसन नामक वैज्ञानिक ने लोगों को यह कहकर चौंका दिया कि ‘इलेक्ट्रान’ ऋण आवेश कण ही नहीं होता, धन विद्युत आवेश वाले ‘इलेक्ट्रान’ भी होते हैं। इनका नाम उसने ‘पाजिस्ट्रान’ रखा। अभी तक पाजिट्रान के स्वरूप की कोई व्याख्या नहीं की गई उसका अस्तित्व केवल मात्र ‘ज्ञान’ है।

पाजिट्रान की खोज के ठीक 23 वर्ष के बाद सन 1955 में एमिलियो सीगर नामक वैज्ञानिक ने एक ऐसे ‘प्रोटान’ की खोज की जो ऋण विद्युत आवेश मुक्त था इसका नाम ‘एण्ट्री, प्रोटान’ रखा गया। पर इसका आकार-प्रकार क्या है? इस प्रश्न पर पुनः वही उत्तर एक-मात्र ‘ज्ञान’। इस खोज से एक वर्ष पीछे ‘सीगर’ ने ही ‘एण्टी न्यूट्रॉन’ की भी खोज कर ली। वह भी केवल प्रभाव से जाना जा सका, यदि प्रभाव में वह ‘न्यूट्रॉन’ से ठीक विपरीत नहीं होता, शायद समझ में भी नहीं आता। इस प्रकार पहली बार पता चला कि प्रत्येक अणु में पदार्थ ही नहीं अपदार्थ भी विद्यमान है। हर वस्तु के साथ प्रेत की तरह उसकी कोई एक सूक्ष्मतम छाया भी रहती है। जिसका अस्तित्व है, पर आकार नहीं। जब पदार्थ उसके संसर्ग में आता है तो उससे तत्काल ‘गामा’ किरण निकलतीं और उसकी उपस्थिति की सूचना देती हैं पर अ-पदार्थ का आज तक कोई भी अस्तित्व पृथ्वी में नहीं पाया गया भले ही वह कहीं आकाश में ही क्यों न रहता हो।

यह उपलब्धि अपना ध्यान बरबस ही योग वशिष्ठ के उक्त कथन की ओर खींच ले जाती है जिसमें बताया है कि-

एतिच्चत्तशरीरत्वं विद्धि सर्वगतोदयम्।

3।40।20

हे राम! संसार की प्रत्येक वस्तु में चेतना (मन) ऐसे विद्यमान है जैसे-

यथा बीजेषु पुष्पादि मृदो राशौघटो यथा। 6।1।10।19

बीज के भीतर पुष्प और मिट्टी में घड़ा।

द्रव्येषु द्रव्यभावेन काठिन्येनेतरेषु च। 6।1।10।24

पदार्थ में पदार्थ भाव और कड़ी वस्तुओं में कठोरता के रूप में यह मन ही व्याप्त है।

उसके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है-

युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मन सीलिंगम्॥

-न्याय दर्शन 1।1।16

अर्थात् जिससे एक काल में दो पदार्थों का ग्रहण ज्ञान नहीं होता केवल एक ही वस्तु ज्ञान में आती है वह ‘मन’ है। पदार्थ में चेतना ही मन है ऐसा कह सकते हैं।

मन ही स्थूल होकर स्थूल पदार्थों के रूप में और वही सूक्ष्म हो जाता है तो सूक्ष्मतम तत्वों का वेधन करता हुआ आत्मा और परमात्मा को जान लेता है। इसीलिये मन को स्थूल पदार्थों से हटाकर प्रकाश रूप में ध्यान करने का शास्त्रीय आदेश है, क्योंकि प्रकाश में सर्वगमन, सर्वव्यापकता, शक्ति और तेजस्विता के सब गुण हैं। ईश्वरीय प्रकाश इन सबसे सूक्ष्म और शक्तिशाली हैं इसलिये ईश्वर तत्व के ध्यान की महत्ता सबसे अधिक बताई गई है।

उपरोक्त तथ्य भी अब विज्ञान की कसौटी पर सत्य उतरते जा रहे हैं। हीरा, पन्ना, पुखराज आदि ठोस पदार्थ हैं। इसके अणुओं के गति 960 मील प्रति घंटा ही है, जबकि इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में 1300 मील प्रति सेकेण्ड की गति से चक्कर काटते हैं। गैसों तथा कुछ अन्य सूक्ष्म अणुओं वाले पदार्थों के अणुओं का कंपन इतना तीव्र होता है, कि दो अणुओं के बीच की दूरी 1।3000000 इंच होने पर भी वह एक सेकेंड में 6 अरब बार टक्कर खा जाते हैं। प्रकाश एक सेकेण्ड में 186200 मील की गति से छिटकता है यह सब इस बात के प्रतीक हैं कि जो जितना सूक्ष्म और हल्का है, वह उतना ही चेतन और गतिशील है।

पदार्थों का यह गतिशील भाग ही अपदार्थ, मन या चेतना है, वह जितना स्थूल होगा उतना ही छोटी सीमा में प्रभावशील होगा, जबकि अधिक सूक्ष्म तत्व की चेतना या गति इतनी तक हो सकती है कि वह समय, ब्रह्माण्ड, गति और कारण नियमों (टाइम, स्पेस, मोशन एण्ड काजेशन) को भी पीछे छोड़कर प्रति फल सारे ब्रह्माण्ड का परिभ्रमण कर सकने में समर्थ हो, ऐसे तत्व की ही कल्पना ईश्वर के रूप में की गई है। विज्ञान अभी उस तक पहुँचने में देर कर रहा है, क्योंकि वह भावना और ज्ञान का विषय होने के कारण, मशीनों की पकड़ में नहीं आ पाता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118