शरीर का मूल्य केवल सत्ताईस रुपये?

November 1970

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चौगुना मूल्य बढ़ जाने पर भी रासायनिक दृष्टि से मनुष्य के शरीर का मूल्य अब तक 27 रुपये हो पाया है। नार्थ वेस्टर्न मेडिकल स्कूल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. डोनाल्ड फोरमैन ने 18 सितम्बर, 1969 को अपने एक बयान में बताया कि जब वस्तुओं की महंगाई बढ़ी नहीं थी तब मनुष्य शरीर में पाये जाने वाले सभी तत्वों का कुल मूल्य केवल 7 रुपये 35 पैसे था, पर अब चूँकि महंगाई बढ़ गई है इसलिए उसमें पाये जाने वाले तत्वों अर्थात् शरीर का रासायनिक मूल्य 27 रु. हो गया है।

जिन रासायनिक तत्वों से शरीर बना है, उनमें से सबसे बड़ा भाग ऑक्सीजन का है ऑक्सीजन शरीर में 65 प्रतिशत होता है यह जल और वायु से मिलता है। ‘शरमन्स के मिस्ट्री आफ माटिरियलस’ पुस्तक में शेष तत्वों की जो तालिका दी है, उसमें बताया है, कि ऑक्सीजन के अतिरिक्त शरीर में 18 प्रतिशत कार्बन 10 प्रतिशत हाइड्रोजन, 3 प्रतिशत नाइट्रोजन, 2 प्रतिशत कैल्शियम 1 प्रतिशत फास्फोरस, .35 प्रतिशत पोटैशियम, .25 प्रतिशत सल्फर, .15 प्रतिशत सोडियम, .15 प्रतिशत क्लोरीन, .50 प्रतिशत मैग्नीशियम, 0.04 प्रतिशत लोहा और शेष .046 प्रतिशत भाग में आयोडीन, फ्लोरीन तथा सिलिकन पाया जाता है।

हैलीपटन और मैगडोवल की फिजियोलॉजी पुस्तक में वल्कमैन व विसचाँफ ने उपरोक्त रासायनिक मात्रा को और भी छोटे से घेरे में सीमित कर दिया है। उनके अनुसार शरीर में 64 प्रतिशत जल, 16 प्रतिशत प्रोटीन, 14 प्रतिशत चर्बी, 5 प्रतिशत लवण और 1 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। इन सबका मूल्य आज के इस महंगाई वाले युग में जब कि टेरेलीन और टेरेकोट जैसे कपड़ों के एक ‘शूट’ का मूल्य ही 100 तक जा पहुँचा है मनुष्य शरीर का मूल्य पहने जाने वाले कपड़ों से भी बदतर होना, यह बताता है कि स्थूल और रासायनिक दृष्टि से शरीर का सचमुच कोई भी मूल्य और महत्व नहीं है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने विषयासक्त लोगों को बार-बार चेतावनी दी है कि हे मनुष्यों! इस स्थूल शरीर का कोई मूल्य नहीं है इसी के सुखों में आसक्त मत रहो। इसमें संव्याप्त आत्म चेतना की भी शोध और उपलब्धि करो। तभी दुःखों से निवृत्ति हो सकती है।

राजा ब्रहद्रथ को एक बार शरीर की अनित्यता का ज्ञान होने पर वैराग्य हो गया। आत्म-साक्षात्कार के लिये उनके अन्तःकरण में व्याकुलता उत्पन्न हो उठी। पूछने पर गुरु ने समझाया, तात! आत्म साक्षात्कार के लिये तपश्चर्या आवश्यक है। पर तप का भी एक विज्ञान है और जो उसे जानता है, उसी के मार्गदर्शन व संरक्षण में किया हुआ तप ही सार्थक होता है। चाहे जब, चाहे जो, क्रिया तप नहीं कहलाती वरन् एक क्रमबद्ध साधना पद्धति द्वारा आत्मा के ऊपर चढ़े हुये मलावरण को परिमार्जित करना पड़ता है। आप आत्म-वेत्ता महामुनि शाकायन्य के पास जायें वे ही आपको आत्म-ज्ञान की दीक्षा देने में समर्थ हैं।

इक्ष्वाकुवंशी ब्रहद्रथ महामुनि शाकायन्य के पास जाकर बोले-भगवन्! ‘अथातो आत्म जिज्ञासा’ मुझे आत्मा के दर्शनों की अभिलाषा है, सो आप मुझे आत्म ज्ञान का उपदेश करे। महामुनि शाकायन्य ने उसकी निष्ठा की परख करते हुए कहा- तात! तलवार की धार पर नंगे पाँव चल लेना कठिन है, पर आत्म-दर्शन की साधनायें उससे भी कठिन है, तुम उन्हें पूरा नहीं कर सकोगे। चाहिये तो कोई शारीरिक सुख का वरदान माँग लो। मैं तुम्हें वृद्ध से युवा बना देने में भी समर्थ हूँ। सुखों की इच्छा त्यागकर कठिनाइयों भरा जीवन से मत जियो?

ब्रहद्रथ ने जो उत्तर दिया है उसका स्वर भिन्न है पर भावार्थ वही है जो अब वैज्ञानिक बताते हैं। उन्होंने कहा-

भगवन्नसस्थि चर्मस्नायुमज्जामाँस शुक्र शोणित श्लेष्माश्रु दूषिकाविण्मूत्र वात=पित्त कफ संघाते दुर्गन्धे निःसारेड- स्मिन् शरीरे कीं कामोपभोगैः॥

-मैत्रायण्युपनिषत् 1।2

हे भगवन्! यह शरीर हड्डी, चमड़ा, स्नायु, माँस, वीर्य, रक्त, आँसू, विष्ठा, मूत्र, वायु, पित्त, कफ आदि से युक्त, दुर्गन्ध से भरा निस्सार है, फिर मैं विषय भोग लेकर क्या करूंगा?’ मुझे तो आप शाश्वत एवं सनातन आत्मा के ही दर्शन कराने का मार्गदर्शन करें।

महाराज की निष्ठा अडिग है यह जान लेने पर महामुनि शाकायन्य ने उन्हें योग दीक्षा दी। जिससे ब्रहद्रथ का मनुष्य शरीर भी धन्य हो गया।

उपर्युक्त आख्यान पढ़कर क्या सचमुच ही यह मान लिया जाये कि मनुष्य शरीर बहुत दुर्गन्धित और घृणित है। स्थूल दृष्टि से तो उसका मूल्य और महत्व दरअसल ऊपर कहे जैसा ही है पर यदि ज्ञान की दृष्टि से उसके आध्यात्मिक मूल्य और महत्व का चिन्तन किया जाये तो पता चलेगा कि मनुष्य ने यह एक ऐसी जटिल किन्तु सर्व समर्थ मशीन बनाई है कि उसका मूल्य रुपयों में कभी मापा ही नहीं जा सकता। टूटे-फूटे छप्पर और कटी-फटी दीवारों वाले घर के मकान साज, सज्जा और कलाकारिता ही नहीं सीमेंट पत्थर चूने और उसमें पायी जाने वाली सुख सुविधाओं की सामग्री से परिपूर्ण होते हैं। मनुष्य शरीर जैसे यंत्र पर अन्य दृष्टि से विचार करते हैं, तो पता चलता है कि सम्पन्न व्यक्ति के भव्य भवन के समान मनुष्य को भी यह, परमात्मा की असाधारण देन और वरदान है, यदि उसका सच्चा उपयोग किया जा सके तो मनुष्य इसी शरीर से देवता और भगवान हो सकता है।

1 बालिश्त के छोटे से मस्तिष्क को ही लें-उस जैसा 1. टेपरिकॉर्डर 2. मुवी कैमरा और 3. कंप्यूटर न आज तक संसार में कोई बना और न बन सकना संभव है। टेपरिकॉर्डर में एक छोटी सी मोटर काम करती है। यही टेप को 1. सीधी (प्ले फार्वर्ड) 2. सीधी तेज (फास्ट फार्वर्ड) और 3. उल्टी तेज (रिवाइन्ड) जैसा कुछ चलाना होता है, चलाती है। उसका एक यंत्र, ध्वनि ग्रहण करता है, दूसरा यंत्र उसे विद्युत कम्पनों में बदलकर टेप में टंकन करता है। इसकी क्षमता इतनी न्यून होती है कि जीवन भर के सुने को टेप करने की आवश्यकता पड़े, उसके लिये पूरी लंबाई का टेप खरीद सकना टाटा और डालमियाँ को भी कठिन पड़ जाये। सामान्यतः एक टेप रिकॉर्डर डेढ़ घंटे में 600 फीट टेप करता है। 24 घंटे के लिए 9600 फीट टेप की आवश्यकता होगी। मनुष्य की औसत उम्र 60 वर्ष मानें तो इस अवधि के लिये केवल बाहर के शब्द और शोर को अधिक करने के लिये 9600&60&365 1।4 = 210384000 फीट लंबे टेप की आवश्यकता होगी। 600 फीट लंबे टेप का औसत मूल्य 50 रुपया होता है उपरोक्त टेप का मूल्य तब 17532000 रुपये होगा।

यह तब है जब कि मानव निर्मित ‘टेप रिकॉर्डर’ चारों तरफ की आवाज नहीं ले सकता। उसकी मशीन अपनी इच्छा से नहीं चल सकती। शब्दों के साथ दृश्य का स्मरण नहीं करा सकती। इसके विपरीत मनुष्य के मस्तिष्क में पाये जाने वाले ईश्वर प्रदत्त टेप रिकॉर्डर की क्षमता और उसके मूल्य को कूतना तो संभव भी नहीं है।


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