दुःख की निवृत्ति ज्ञान से ही सम्भव

November 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संसार को विष वृक्ष कहा है उसमें आपत्तियाँ भी कम नहीं हैं। यहाँ यंत्रवत सब कुछ चलता है, दूर रहते और न चाहते हुए भी कठिनाईयाँ आती हैं, कष्ट घेर लेते हैं। फिर सारे जीवन भर का क्रम हो जाता है उन कठिनाइयों से लड़कर अपने लिये सुख-सुविधा की स्थिति तैयार करना। इसी प्रयत्न में सारा जीवन बीत जाता है जब पीछे मुड़कर देखते हैं तब पश्चाताप होता है कि यह जीवन कठिनाइयों में ही बीत गया। न मिला सुख, न पाई शाँति, मस्तिष्क में सुखों की तृष्णा का अम्बार लाद लिया।

दुःख का कारण क्या था? यह एक विचारणीय बात है। सारे जीवन के क्रिया-कलापों को जब हम प्रकृति की माया के साथ तौलते हैं तब पता चलता है कि संसार समष्टि रूप में जैसा था हमने उसे अज्ञानवश वैसा ही नहीं लिया वरन् उसे अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते रहे। संसार इतना बड़ा है कि हम उसे अपने अनुकूल बना ही नहीं सकते थे अपने इस अज्ञान का फल दुःख रूप में मिला। यह ज्ञान का रास्ता ही उपयुक्त था। भीगी हुई लकड़ियों को आग नहीं जला पाती उसी प्रकार ज्ञान से भीगे मनुष्य को मानसिक दुःख वेदना नहीं दे सकते हैं। संसार समुद्र है ज्ञान-युक्ति उसकी नौका जो इस नाव पर चढ़ लेता है उसके साँसारिक दुःख भी मिट जाते हैं। संसार की यथार्थ स्थिति जानने के कारण जन्म-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

-योग वशिष्ठ


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118