छतरी ने मस्तक से शिकायत करते हुए कहा ‘स्वार्थ की भी हद होती है तुम ऐसे स्वार्थी निकालोगे, मैं नहीं जानती थी। तुम्हारी सुरक्षा के लिए मुझे तेज धूप और वर्षा सहन करनी पड़ती है और तुम हो कि मेरी तनिक भी चिन्ता न करते हुए सुखपूर्वक सर्वत्र घूमते रहते हो। अब इस प्रकार की संकीर्णता मुझ पर सहन नहीं की जाती। यदि तुम्हीं मेरे स्थान पर होते तो क्या करते?
मस्तक कुछ कहे इससे पूर्व ही दाहिना हाथ बोला- बहन धैर्य रखो, उत्तेजित मत हो। इस तरह सोचने की अपेक्षा यह क्यों नहीं सोचती कि मस्तिष्क की सुरक्षा से ही हम सबकी सुरक्षा है। तुम्हें भी तो उसी ने बनाया है।
छतरी को अपनी भूल पर बड़ा पश्चाताप हुआ। सच्ची स्थिति का ज्ञान हो जाने पर उसने मस्तक से भी ऊंचा होने का सम्मान पाया।