अलबर्ट श्वाइत्जर जहाँ रहते थे, उनके समीप ही बन्दरों का एक दल रहता था। दल के एक बन्दर और बन्दरिया में गहरी मित्रता हो गई। दोनों जहाँ जाते साथ-साथ जाते, एक कुछ खाने को पाता तो यही प्रयत्न करता कि उसका अधिकाँश उसका साथी खाये। कोई भी वस्तु उनमें से एक ने भी कभी अकेले न खाई। उनकी इस प्रेम भावना ने अलबर्ट श्वाइत्जर को बहुत प्रभावित किया। वे प्रायः प्रतिदिन इन मित्रों की प्रणय-लीला देखने जाते और एकाँत स्थान में बैठकर घंटों उनके दृश्य देखा करते। कैसे भी संकट में उनमें से एक ने भी स्वार्थ का परिचय न दिया। अपने मित्र के लिये वे प्राणोत्सर्ग तक के लिये तैयार रहते, ऐसी थी उनकी अविचल प्रेम-निष्ठा।
विधि की विडम्बना-बन्दरिया कुछ दिन पीछे बीमार पड़ी, बन्दर ने उसकी दिन-दिन भर भूखे-प्यासे रहकर सेवा-सुश्रूषा की पर बन्दरिया बच न सकी, मर गई। बन्दर के जीवन में मानो वज्राघात हो गया। वह गुमसुम जीवन बिताने लगा।
इतर प्राणियों में विधुर विवाह पर प्रायः किसी में भी प्रतिबंध नहीं है। एक साथी के रहने पर नर हो या मादा अपने दूसरे साथी का चुनाव खुशी-खुशी कर लेते हैं इस बन्दर दल में एक से एक अच्छी बन्दरियाँयें थीं, बन्दर हृष्ट-पुष्ट था किसी भी नई बन्दरिया को मित्र चुन सकता था, पर उसके अन्तःकरण का प्रेम तथाकथित मानवीय प्रेम की तरह स्वार्थ और कपटपूर्ण नहीं था, पता नहीं उसे आत्मा के अमरत्व परलोक और पुनर्जन्म पर विश्वास था इसलिये उसने फिर किसी बन्दरिया से विवाह नहीं किया।
पर आत्मा जिस धातु का बना है वह प्रेम के प्रकाश से ही जीवित रहता है, प्रेमविहीन जीवन तो जीवित नरक समान लगता है, बन्दर ने अपनी निष्ठा पर आँच न आने देने का संकल्प कर लिया होगा तभी तो उसने दूसरा विवाह नहीं किया, पर प्रेम की प्यास कैसे बुझे? यह प्रश्न उसके अन्तःकरण में उठा अवश्य होगा तभी तो उसने कुछ दिन पीछे ही अपने जीवन की दिशा दूसरी ओर मोड़ दी। प्रेम को सेवा का रूप दे दिया उसने, अभी तक उसने अपनी प्रेयसी बन्दरिया को आत्म-समर्पण किया था अब उसने हर दीन-दुःखी में आत्मा के दर्शन करने और सबको प्यार करने का सिद्धाँत बना लिया, उससे ही उसे शाँति मिली।
बन्दर एक स्थान पर बैठा रहता। अपने कबीले या दूसरे कबीले का कोई अनाथ बन्दर मिल जाता तो वह उसे प्यार करता रहता खाना खिलाता, भटक गये बच्चे को ठीक उसकी माँ तक पहुँचा कर आता, लड़ने वाले बन्दरों को अलग-अलग कर देता, इसमें तो वह कई बार अति उग्र पक्ष को मार भी देता था पर तब तक चैन न लेता जब तक उनमें मेल-होल नहीं करा देता। उसने कितने ही वृद्ध, अपाहिज बन्दरों को पाला, कितनों ही का बोझ उठाया। बन्दर की इस निष्ठा ने ही अल्बर्ट श्वाइत्जर को एकान्तवादी जीवन से हटाकर सेवा भावी जीवन बिताने के लिये अफ्रीका जाने की प्रेरणा दी। श्वाइत्जर बन्दर की इस आत्म-निष्ठा को जीवन भर नहीं भूले।
सेन्टियागो की धनाढ्य महिला श्रीमती एनन ने पारिवारिक कलह से ऊबकर जी बहलाने के लिये एक भारतीय मैना पाल ली। मैना जब से आई तभी से उदास रहती थी। एनन की बुद्धि ने प्रेरणा दी संभव है उसे भी अकेलापन कष्ट दे रहा हो। सो दूसरे दिन एक और तोता मोल ले लिया। तोता और मैना भिन्न जाति के दो पक्षी भी पास आ जाने पर परस्पर ऐसे घुल-मिल गये कि एक के बिना दूसरे को चैन ही न पड़ता।
प्रातःकाल बिना चूके मैना तोता को ‘नमस्ते’ कहती। तोता बड़ी ही मीठी वाणी में उसके अभिवादन का कुछ कहकर उत्तर देता। पिंजड़े पास-पास कर दिये जाते फिर दोनों में वार्ताएं छिड़ती, न जाने क्या मैना कहती न जाने क्या तोता कहता पर उनको देखकर लगता यह दोनों बहुत खुश हैं। दोनों का प्रेम प्रतिदिन प्रगाढ़ होता चला गया, चोंच से दबाकर अपनी चीजें बाँटकर खाते।
कुछ ऐसा हुआ कि श्रीमती एनन की एक रिश्तेदार को तोता भा गया, वे जिद करके उसे माँग ले गई ठीक उसी दिन मैना बीमार पड़ गई और चौथे दिन सायंकाल 5 बजे उसने अपनी नश्वर देह त्याग दी। तोता कृतघ्न नहीं था। वह बन्दी था चला तो गया पर आत्मा को बन्दी बनाना किसके लिए संभव है। वह भी मैना की याद में बीमार पड़ गया और ठीक चौथे दिन सायंकाल 5 बजे उसने अपने प्राण त्याग दिये। पता नहीं दोनों की आत्मायें परलोक में कहीं मिली या नहीं, पर इस घटना ने श्रीमती एनन का स्वभाव ही बदल दिया। अब उनके स्वभाव में सेवा और मधुरता का ऐसा प्रवाह फूटा कि वर्षों से पारिवारिक कलह में जलता हुआ दाम्पत्य सुख फिर खिल उठा। पति-पत्नी में कुछ ऐसी घनिष्ठता हुई कि मानो उनके अन्तःकरण में तोता और मैना की आत्मा ही साक्षात उतर आई हो। उनकी मृत्यु भी वियोगजन्य परिस्थितियों में एक ही दिन एक ही समय हुई।
तोता, मैना, बन्दर छोटे-छोटे सौम्य स्वभाव जीवों की कौन कहे प्रेम की प्यास तो भयंकर खूंखार जानवरों के हृदय में भी होती है। एफ. कुवियर के एक मित्र को भेड़िया पालने की सूझी। कहीं से एक बच्चा भेड़िया मिल गया। उसे वह अपने साथ रखने लगे। भेड़िया कुछ ही दिनों में उनसे ऐसा घुल-मिल गया मानो उनकी मैत्री इस जन्म की नहीं कई जन्मों की हो।
कुछ ऐसा हुआ कि एक बार उन सज्जन को किसी काम से बाहर जाना पड़ गया। वह भेड़िया एक चिड़ियाघर को दे गये। भेड़िया चिड़ियाघर तो आ गया पर अपने मित्र की याद में दुःखी रहने लगा। मनुष्य का जन्म-जात बैरी मनुष्य के प्रेम के लिये पीड़ित हो यह देखकर चिड़ियाघर के कर्मचारी बड़े विस्मित हुये। कोई भारतीय दार्शनिक उनके पास होता और आत्मा की सार्वभौमिक एकता का तत्वदर्शन उन्हें समझाता तो संभव था ये भी जीवन को एक नई आध्यात्मिक दिशा में मोड़ने में समर्थ होते, उनका विस्मय चर्चा का विषय भर बनकर रह गया।
भेड़िये ने अपनी प्रेम की पीड़ा शाँत करने के लिए दूसरे जीवों की ओर दृष्टि डाली। कुत्ता-भेड़िये का नम्बर एक का शत्रु होता है पर आत्मा किसका मित्र किसका शत्रु क्या तो वह कुत्ता क्या भेड़िया-कर्मवश भ्रमित अग-जग आत्मा से एक है। यदि यह तथ्य संसार जान जाये तो फिर क्यों लोगों में झगड़े हों, क्यों मन-मुटाव, दंगे-फसाद, भेदभाव, उत्पीड़न और एक-दूसरे से घृणा हो। विपरीत परिस्थितियों में भी प्रेम जैसी स्वर्गीय सुख की अनुभूति आत्मदर्शी के लिये ही संभव है, इस घटना का सार-संक्षेप भी यही है। भेड़िया अब कुत्ते का प्रेमी बन गया उसके बीमार जीवन में भी एक नयी चेतना आ गई। प्रेम की शक्ति कितनी वरदायक है कि वह निर्बल और अशक्तों में भी प्राण की गंगोत्री पैदा कर देती है।
दो वर्ष पीछे मालिक लौटा। घर आकर वह चिड़ियाघर गया अभी वह वहाँ के अधिकारी से बातचीत कर ही रहा था कि उसका स्वर सुनकर भेड़िया भगा चला आया और उसके शरीर से शरीर जोड़कर खूब प्यार जताता रहा। कुछ दिन फिर ऐसे ही मैत्रीपूर्ण जीवन बीता।
कुछ दिन बाद उसे फिर जाना पड़ा। भेड़िये के जीवन में लगता है भटकाव ही लिखा था फिर उस कुत्ते के पास जाकर उसने अपनी पीड़ा शाँत की। इस बार मालिक थोड़ा जल्दी आ गया। भेड़िया इस बार उससे दूने उत्साह से मिला पर उसका स्वर शिकायत भरा था बेचारे को क्या पता था कि मनुष्य ने अपनी जिन्दगी ऐसी व्यस्त जटिल साँसारिकता से जकड़ दी है कि उसे आत्मीय-भावनाओं की ओर दृष्टिपात और हृदयंगम करने की कभी सूझती ही नहीं। मनुष्य की यह कमजोरी दूर हो गई होती तो आज संसार कितना सुखी और स्वर्गीय परिस्थितियों से आच्छादित दिखाई देता।