वाराणसी नरेश ब्रह्मदत्त सिंहल द्वीप से आर्यावर्त्त लौट रहे थे। जलयान एक छोटे से द्वीप के समीप से गुजरा तभी उन्हें एक नारी की चीत्कार सुनाई पड़ी। जलपोत के लंगर वहीं डाल दिये गये जहाँ एक नौका पहले से ही रुकी खड़ी थी। सब लोग दौड़कर उधर पहुँचे जिधर से किसी स्त्री के रोने की आवाज आ रही थी।
उन्होंने आगे बढ़कर देखा कुछ दस्यु एक स्त्री को पकड़कर पीट रहे हैं- ‘स्त्री कह रही थी दुष्टों में भारतीय नारी हूँ, शील मेरा धर्म और स्वजनों के प्रति निष्ठा मेरी साधना है, मैं तुम्हारी दुष्टता के आगे झुकूँगी नहीं चाहे मेरे प्राण ही क्यों न ले लो।’
ब्रह्मदत्त के ललकारने पर दस्यु भयभीत हो भाग खड़े हुये। समीप जाकर सम्राट ने कहा-भद्रे! तुम्हारा परिचय तो मैं अभी तुम्हारे शब्दों से पा चुका तुमने भारतीय नारी के आदर्शों में अपनी निष्ठा व्यक्त कर न केवल अपना वरन् सारी हिन्दू जाति का मुख उज्ज्वल किया है इसलिये तुम सर्वोच्च सम्मान की अधिकारिणी हो। तुम मेरे साथ चलो और अपने देश में अपने पति, बच्चों के साथ सुखी जीवन यापन करो।
स्त्री बोली- राजन! दस्युओं ने मेरे पति को मार दिया है, मेरे पुत्र मुझे छोड़कर पहले ही अलग हो चुके हैं, अब मैं किसके आश्रय में जीवन यापन करूंगी?
‘इसका प्रबंध देश लौटकर करेंगे’ यह कहकर सम्राट ब्रह्मदत्त ने उस स्त्री को साथ लिया और स्वदेश की ओर लौट पड़े।
जलयान भारतीय समुद्र तट पर रुका। महाराज के स्वागत के लिये विशाल जन समुदाय जिसमें महारानी, मंत्रीगण और सामन्त सभासद भी थे आगे बढ़े उनकी ओर संकेत करते हुये महाराज ने उस स्त्री से कहा- भद्रे! इन आगंतुकों में तुम जिसे अपने पति पुत्र के रूप में चुनना चाहो चुन सकती हो। तुम्हारे सुखी जीवन के लिये मैं सारी व्यवस्थायें जुटा सकता हूँ।
स्त्री की आँखें छलक उठीं उसने कहा-राजन! मेरा पति था, जिसने मुझे अपनी वासना से जकड़ा, मुझे घर की चहारदीवारी में बंद कर मेरा स्वास्थ्य लूटा। मुझे ऐसा भी नहीं रहने दिया कि मैं आतताइयों का मुकाबला कर सकती। अशिक्षा, अज्ञान में जकड़ी रह गई मैं, पति की प्रवंचना ने मुझे दासी बनाकर छोड़ दिया। इसलिये अब मुझे पति नहीं चाहिये।
‘और पुत्र’ उसने आगे कहा-पुत्रों को मैंने अपनी देह का सारा रस रक्त पिला दिया, स्वयं कष्ट झेले, पर उनकी सेवा शिक्षा और पालन-पोषण में कमी न आने दी, वही पुत्र जब बड़े हुये तो उनसे इतना भी नहीं बन पड़ा, कि गाढ़े संकट में मेरी रक्षा करते, ऐसे कृतघ्न पुत्र लेकर भी अब मैं क्या करूंगी।
हाँ जो मेरे शील, मेरे धर्म की रक्षा कर सके मुझे साहसी और चरित्रवान भाई की आवश्यकता अवश्य है, यदि आप उसे पूरा कर सकते हैं तो मुझे एक भाई की ही व्यवस्था कर दें।
ब्रह्मदत्त ने उपस्थित जनसमूह पर आँखें दौड़ाकर देखा सबकी आँखें झुकी हुई थीं- उन्होंने कहा-बहन आओ। तुम मेरे साथ चलो-इनमें से ऐसा कोई भाई दिखाई नहीं देता जो तुम्हारा उद्धार कर सके।
उस स्त्री और सम्राट ब्रह्मदत्त की आँखें अब भी ढूंढ़ रही हैं कुछ ऐसे भाई मिलें जो अपने देश की नारी को अंधविश्वास, रूढ़िवाद और अत्याचारियों के बंधन से छुड़ा सके, पर पति और पुत्र बनने के लिये तो यहाँ सब तैयार हैं, भाई का भार संभालने के लिये आज भी एक भी व्यक्ति तैयार नहीं होता।