पवित्रीकरण- प्रकृति की आद्य-प्रक्रिया

November 1970

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मनुष्य जो कुछ खाता-पीता है उससे जीवन शक्ति को उसकी सहायता के लिये कार्बोहाइड्रेट, (कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन), चर्बी, प्रोटीन, विटामिन्स और खनिज द्रव्य मिलते हैं। भोजन में से यह आवश्यक तत्व ग्रहण करने के लिये गले की नली से लेकर आमाशय की छोटी आँतों तक की पूरी मशीन दिन-रात काम करती रहती है। उससे भी अधिक ध्यान और मशीनरी का निर्माण शरीर में इसके लिये किया गया है कि शरीर द्वारा उत्पन्न होने वाली गंदगी शरीर से अलग होती रहे। भोजन और शक्ति के अभाव में मनुष्य कुछ दिन जी भी सकता है पर स्वच्छता और सफाई के अभाव में मनुष्य शरीर अधिक दिन तक टिक नहीं सकता।

शरीर के वृक्क प्रतिदिन डेढ़ सेर मूत्र निकालते हैं। इसके द्वारा यूरिया, यूरिक एसिड, क्रीटीनाइन, एमोनिया, सोडियम क्लोराइड, फास्फोरिक अम्ल, मैग्नीशियम, कैल्शियम और पोटैशियम की बहुत सी गंदगी शरीर से बाहर निकल जाती है। बड़ी आँत प्रतिदिन ढेरों मल निकालती रहती है। शरीर की त्वचा में लाखों की संख्या में ग्रंथियाँ होती हैं जो रक्त से पसीने को छान कर बाहर निकालती रहती है। हथेली के एक वर्ग इंच में ही ऐसी कम से कम 3600 ग्रंथियाँ होती हैं इससे पता चलता है कि प्रकृति ने शरीर में सफाई की व्यवस्था को सबसे अधिक ध्यान देकर सावधानी से जमाया है यदि शुद्धिकरण की यह क्रिया एक दिन को भी बन्द हो जाये तो शरीर सड़ने लगे और मस्तिष्क पागल हो जाये।

शरीर ही नहीं प्रकृति का हर कण और प्रत्येक क्षण दोष दूषणों के प्रति सजग और सावधान रहता है। जहाँ भी कहीं गंदगी दिखाई दी प्रकृति उस पर टूट पड़ती है और देखते-देखते गंदगी को साफ करके उस स्थान को शुद्ध और उपयोगी बना देती है।

जिसे हम नगण्य समझते हैं- उस मिट्टी में भी फफूँद (फंगाई) एक्टीनो माइसिटीज तथा दूसरे कई महत्वपूर्ण जीवाणु (बैक्टीरिया) पाये जाते हैं यह नंगी आँखों से दिखाई नहीं देते, उन्हें शक्तिशाली दूरबीनों माइक्रोस्कोप से ही देखा जा सकता है। पर उनकी इस लघुता में वह महानता छिपी है जो सारे मनुष्य समाज के हितों की रक्षा करती है। यदि यह जीवाणु न होते यह सारी पृथ्वी 7 दिन के अन्दर पूरी तरह से मल से आच्छादित हो जाती और तब मनुष्य का जीवित रहना भी असंभव हो जाता।

जैसे ही कोई सड़ी-गली वस्तु, मल या कोई गन्दगी जमीन में गिरी यह जीवाणु दौड़ पड़ते हैं और इन गंदगी के अणुओं की तोड़-फोड़ प्रारंभ कर देते हैं। दूसरे दिन हम उधर जाते हैं तो मल के ढेर के स्थान पर मिट्टी का सा ढेर दिखाई देता है। लोग उपेक्षा से देखकर निकल जाते हैं पर वहाँ प्रकृति का एक बड़ा उपयोगी सिद्धाँत काम करता रहता है। यह जीवाणु इस गंदगी के एक-एक अणु को तब तक तोड़ते फोड़ते रहते हैं जब तक वह सारी की सारी मिट्टी में बदल नहीं जाती।

मनुष्य ने इस सिद्धाँत को समझा होता और मानवीय स्वभाव के दोष व दुर्गुणों की गंदगी को सुधारने के लिये इन नन्हें-नन्हें जीवों की तरह भी प्रयत्न किया होता तो संसार में एक भी बुराई का नाम निशान तक न होता।


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