आगामी 200 दिन जिसमें 20 वर्ष का काम निपटाना है।

November 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अगले वर्ष गायत्री जयन्ती 3 जून, 71 को पड़ती है। गायत्री तपोभूमि में 20 गायत्री जयन्ती मना लेने की बात उस दिन पूरी हो जायेगी। इसके बाद हम जल्दी से जल्दी अपने जीवन का तीसरा अध्याय प्रारंभ करने के लिये हिमालय यात्रा पर चल पड़ेंगे। इस बीच लगभग 200 दिन शेष रह जाते हैं। प्रत्यक्ष जन संपर्क के लिए और प्रत्यक्ष प्रवृत्तियों को गतिशील करने के लिए अब केवल इतने ही दिन शेष हैं। इस अवधि में हम अपने जीवन लक्ष्य नव-निर्माण अभियान को इतनी गति देकर जाना चाहते हैं जिससे उसकी प्रगति परिपूर्ण गतिशीलता के साथ अग्रगामी बनती जाय।

किसी के मन में यह आशंका नहीं रहनी चाहिये कि आचार्य जी के चले जाने के बाद अपना आन्दोलन शिथिल या बन्द हो जायेगा। ऐसी आशंका करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा आरंभ की हुई प्रवृत्ति नहीं है। इसके पीछे विशुद्ध रूप से ईश्वरीय इच्छा और प्रेरणा काम कर रही है। जिसके पीछे यह शक्ति काम कर रही हो उसके संबंध में किसी को आशंका नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति असफल हो सकते हैं, भगवान के असफल होने का कोई कारण नहीं। व्यक्ति की इच्छायें अधूरी रह सकती हैं, भगवान की इच्छा पूरी क्यों न होगी। अब तक के आन्दोलन की प्रगति को जिन लोगों ने बारीकी से देखा समझा है उन्हें यह विश्वास करना ही चाहिए कि उपलब्ध सफलतायें हमारे जैसे नगण्य व्यक्ति के माध्यम से किसी भी प्रकार संभव न थी, हमें निमित्त बनाकर कोई महाशक्ति अदृश्य रूप से काम कर रही है- केवल आँखों के सामने कठपुतली नाचने से लोग प्रशंसा उस लकड़ी के टुकड़े की करते हैं जो नाचता दीखता है। वस्तुतः श्रेय उस बाजीगर को है जिसकी उंगलियाँ अपनी अदृश्य संचालन कला के द्वारा उस खेल का सारा सरंजाम जुटा रही हैं।

जीवन के पिछले दो चरणों में जो सफलतायें मिली हैं, उनके पीछे व्यक्ति पुरुषार्थ राई भर और परमेश्वर का अनुदान पहाड़ भर है। 15 वर्ष तक की आयु ही खेलकूद, पढ़ने-लिखने की बाल क्रीड़ा में गंवा पाये। बाकी 45 वर्ष तो किसी महाशक्ति के इशारे पर कठपुतली की तरह ही चले हैं, इतना ही श्रेय हमें मिल सकता है कि निष्ठापूर्वक अपने आराध्य का हर संदेश बिना ननुनच के शिरोधार्य करते रहे। उससे अपनी अनिच्छा और असुविधा की बात कभी नहीं जोड़ी। फौजी सिपाही का गुण आदेश अनुशासन को प्राण देकर भी निवाहना होता है। अधिक से अधिक हमें एक निष्ठावान सैनिक कहा जा सकता है जिसने कि लंबी जिन्दगी के असंख्य क्षणों में से प्रत्येक को अपने सूत्र संचालक की इच्छानुसार बिताया।

16 से लेकर 40 वर्ष तक की आयु के 24 वर्ष गायत्री पुरश्चरणों की कठोर तपश्चर्या में लग गये। काम रूखा और मन में ऊब लाने वाला था, पर मन और शरीर को समझा लिया गया। बिके हुए सामान पर अपना अधिकार क्या? जब शरीर और मन बेच दिया तो खरीदने वाले की आज्ञा पर चलने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं। राजा हरिश्चन्द्र भंगी के हाथी बिके। उनने अपना शरीर और मन उसी तरह का बना लिया जैसा खरीदने वाले ने चाहा। आत्म-समर्पण का मतलब अपने शरीर और मन को दूसरे के हवाले कर देना है। बात समझ की थी, मन मान गया, शरीर ने भी अधिक अड़चन उत्पन्न नहीं की। ढर्रा शाँतिपूर्वक चल पड़ा और देखते-देखते वे कठिन नीरस, रूखे लोगों की दृष्टि में सनक और मूर्खता से भरे हुए 24 वर्ष एक एक करके सहज ही गुजर गये। इस तपश्चर्या ने हमें बहुत शक्ति दी। शरीर को निरोगता के रूप में मन को सन्तुलन के रूप में और आत्मा को मनस्विता तेजस्विता के रूप में बहुत कुछ मिला। इन उपलब्धियों के बिना जीवन का दूसरा अध्याय ठीक तरह पूरा नहीं हो सकता था।

41 से लेकर 60 वर्ष तक के बीस वर्ष हमारी सार्वजनिक सेवा के हैं। इसमें ज्ञान यज्ञ को जन्म देने ओर गतिशील बनाने का प्रमुख कार्य हमें सौंपा गया था। विभिन्न स्तर की दिखाई पड़ने वाली प्रवृत्तियाँ वस्तुतः उस एक ही क्रियाकलाप के अंतर्गत आती हैं। पत्रिकाओं का सम्पादन, जीवन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ विशुद्ध रूप से ज्ञान-यज्ञ के लिए थीं। देश भर के सुसंस्कारी भावना शील लोगों को खोज, उन्हें एक परिवार के रूप में एक सूत्र में पिरोना, 4 हजार शाखाओं और 10 लाख व्यक्तियों का संगठन विशुद्ध रूप से जन जागरण के लिए था। गायत्री यज्ञों और युग-निर्माण सम्मेलनों के विशालकाय आयोजनों द्वारा कोटि-कोटी जनता से संपर्क और उन्हें युग परिवर्तन के ढाँचे में ढलने की प्रेरणा देते फिरना यह प्रचारात्मक कार्य भी ज्ञान यज्ञ के अंतर्गत आता है। गायत्री तपोभूमि, युग निर्माण योजना का केन्द्रीय कार्यालय उसी प्रक्रिया को सुसंचालित रखने के लिये था। कष्ट पीड़ितों और दुःखियों को अपनी तपश्चर्या का अंश देकर उनके कष्टों को घटाने की सेवा साधना भी वस्तुतः इस सूक्ष्म आकाँक्षा के लिये ही रही कि ये लाभान्वित दीन-दुःखी नव निर्माण मिशन की ओर भी उन्मुख होंगे। वे न हुए बात दूसरी है। आज की दुनिया कुछ है ही इस ढंग की कि अपने मतलब से मतलब रखना बुद्धिमानी मानी जाती है। प्रणाम, दर्शन करने की कीमत पर आशीर्वाद अनुदान प्राप्त करना लोगों को सस्ता लगता है। सेवा साधना के झंझट में कोई क्यों पड़े? उसमें तो समय, पैसा, मन सभी बिना स्वार्थ के काम में खर्च करने पड़ते हैं। इस झंझट को कौन मोल ले। लोगों का यही दृष्टिकोण रहा और उस वर्ग में से चन्द लोग ही अपने जीवन लक्ष्य में सहायक हो सके। जो हो हमारा प्रयोजन वही था। सफलता कम मिली यह बात दूसरी है। किन्तु दूसरे विचारशील वर्गों में अपने प्रयत्नों को सराहा भी गया, अपनाया भी गया। सजीव भावना स्तर वाले विवेकशील लोगों के सहयोग समर्थन का ही फल है कि युग-निर्माण आन्दोलन अब आकाश छूने जैसे दुस्साहस करने लगा है।

हमारे बीस वर्ष इसी नव निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार करने में लग गये। अब 60 वर्ष से आगे की आयु का तीसरा अध्याय आरंभ होता है। उसमें काम वह पूरा ही होगा केवल ढंग बदल जायेगा। हमारी स्थूल शक्तियाँ, स्थूल प्रवृत्तियाँ, स्थूल गति-विधियाँ रूपांतरित होकर सूक्ष्म बन जायेंगे। प्रत्यक्ष परोक्ष में बदल जायेगा। करना आगे भी वही है, जिसके लिये हमें यह जन्म धारण करना पड़ा है। स्थूल प्रयत्नों का परिणाम सीमित होता है। सूक्ष्म प्रयत्न बहुत व्यापक और शक्तिशाली होते हैं। जिस क्षेत्र में सूक्ष्म प्रयत्न सफल नहीं होते उनमें सूक्ष्म तत्वों द्वारा हेर-फेर अधिक आसानी से हो सकता है। हम उग्र तपश्चर्या केवल इसलिये करने जा रहे हैं कि अपनी उन सूक्ष्म शक्तियों को विकसित करें जो जन मानस को प्रभावित करने और प्रखर बनाने में अधिक समर्थ हो सकती है।

इस देश के निवासियों में महानता अभी भी कम नहीं है। ऋषियों के रक्त की पूँजी अभी भी पूर्णतया समाप्त नहीं हुई है। वह सब केवल सो भर गया है। मोह निद्रा इतनी गाढ़ी हो गई है कि नर-पशुओं की तो बात ही क्या, जिनमें नर-नारायण की क्षमता भरी पड़ी है वे भी लोभ और मोह की जंजीरों से इस बुरी तरह कस गये हैं कि परमार्थ की, युग निर्माण की, ईश्वरीय पुकार तक को समझ सकना उनके लिये संभव नहीं हो रहा। जैसे-जैसे धक्का-मुक्की करने भर को थोड़ा बहुत कुसमुसाते हैं और जैसे ही दबाव कम हुआ कि पूर्वस्थिति में फिर मूर्छा ग्रस्त हो जाते हैं। युग परिवर्तन के लिये उत्कृष्ट प्रतिभाओं की प्रचण्ड जनशक्ति नियोजित होनी चाहिए। वह मिल नहीं रही है। गत बीस वर्षों के प्रयास से हम जो जुटा सके हैं वह बहुत कम है। विश्व का कायाकल्प करने के लिये हल्के स्तर के थोड़े से लोगों से काम नहीं चल सकता। हमें प्रखर प्रतिभाएं चाहिए। वे मिलती नहीं, इस अभाव या असफलता ने हमें क्षुब्ध कर दिया है। अगले दिनों उग्र तपश्चर्या के द्वारा वैसी सूक्ष्म शक्ति हम उपलब्ध करेंगे जिससे लोक मंगल में लग सकने की प्रखर प्रेरणा हम अपने साथी, स्वजनों में भर सकें और उन्हें मोह की कीचड़ में से उबारकर ईश्वरीय प्रयोजनों में लग सकने का साहस उत्पन्न कर सकें।

हमारे जीवन के तीसरे अध्याय का प्रयोजन यही है। भागीरथ की तरह हम लोक मंगल के महत्वपूर्ण योगदान दे सकने वाली ज्ञान गंगा को लाने के लिये उसी महानता के पद चिन्हों पर चलने जा रहे हैं और वहीं रहेंगे जहाँ उस महामानव के ‘करने या मरने’ का संकल्प लेकर डेरा जमाया था। कह नहीं सकते कब तक जीना पड़ेगा, पर जब तक साँस चलेगी हर क्षण उस जन जागरण के ज्ञान यज्ञ को पूरा करने में लगे रहेंगे जिसके लिए हमें यह शरीर कलेवर दिया गया है।

अध्यात्म की विज्ञानपरक शक्तियों की शोध करना भी भावी कार्यक्रम के साथ जुड़ा हुआ है और उसका भी अपना महत्व है। आज अध्यात्म केवल चर्चा का, दर्शन का विषय रह गया है, उसके माध्यम से प्रचण्ड शक्ति कैसे उत्पन्न की जा सकती है और उससे कैसे उत्पन्न की जा सकती है और उससे कैसे समर्थन बढ़ाने का लाभ पाया जा सकता है, यह विद्या एक प्रकार से लुप्त हो गई। अब हम अध्यात्म वादियों को विचारक भर देखते थे। उनमें शक्ति मात्र समर्थता नहीं रही। शक्तिरहित विचारणा से कुछ काम चलने वाला नहीं। भारत की भावी समर्थता-अध्यात्म के आधार पर उत्पन्न होती है। उसका ज्ञान और प्रयोग एक प्रकार से लुप्त हो गया। उसकी शोध करना और उस उपलब्धि को सर्व सुलभ बनाना अपना एक कार्य यह भी है जिसे हम उस भावी तप साधना की अवधि में पूरा करेंगे। जनमानस में जागृति उत्पन्न करना और उसे शक्ति सज्जा से सुसज्जित करना यह दोनों कार्य एक ही है, इन्हें एक भी कहा जा सकता है, दो भी। जो भी कहा जाय हम अपने जीवन का तीसरा अध्याय इसी प्रयोजन के लिए पूरा करेंगे। हमारी कार्य पद्धति अपने द्वारा निर्धारित नहीं होती न अपनी व्यक्तिगत इच्छा और समझ का उपयोग उसमें होता है। तीसरे अध्याय का कार्यक्रम भी ऊपर से आया है तो उसमें ननुनच कैसे करें? अभी इधर ही रहने का परिजनों का आग्रह उचित हो सकता है। पर हम तो उचित अनुचित की कसौटी भी खोजेंगे। समर्पित पुष्प की तरह हमने अपना शरीर, मन ही नहीं-भाव केन्द्र भी इष्ट सत्ता को बहुत पहले सौंप दिया है। सो उसके आदर्श की अवहेलना कैसे बन पड़े। तीसरा अध्याय शुरू करने की कठिन प्रक्रिया सामने रख दी गई तो उस पर पुनर्विचार करने या संशोधन प्रस्तुत करने का कोई आधार नहीं रह गया। हम अब चलने की तैयारी में ही लगे हैं और बोरिया बिस्तर बाँधकर मन को समेट कर उसी ऊहापोह की व्यवस्था बना रहे हैं।

चलने के दिन अब एक-एक करके रेलगाड़ी की दौड़ दौड़ते चले आ रहे हैं। केवल 200 दिन के करीब बाकी रह गये हैं। एक-एक दो-दो करके यह भी अब गये तब गये ही समझने चाहिये। पटाक्षेप की घंटी बज चुकी, अब पर्दा गिरने ही वाला है और यह मनोरंजक नाटक जो गत 45 वर्ष से जनसाधारण द्वारा कौतूहल पूर्वक देखा जा रहा है अब अपनी अन्तिम सीमा पर पहुँचकर सदा के लिये बंद हो जायेगा। केवल एक कथानक मात्र कहने सुनने के लिये शायद बचा रहे। इस नाटक से चित्त चुराने वाले और रोमाँच खड़े करने वाले दृश्य अब पाठकों की आंखों से ओझल ही समझे जाने चाहिये। अब दिन तो उंगलियों पर गिनने लायक रह गये। इन्हें भी आँधी में उड़ते हुए पेड़ से टूटे पत्ते की तरह आँखों से ओझल होने में अब क्या देर लगने वाली है।

हम चाहते थे कि इन थोड़े से दिनों का श्रेष्ठतम उपयोग इस संदर्भ में करते रहें हमारे जीवन का अवतरण और उत्सर्ग जिन प्रयोजन के लिये हुआ-उसकी जड़ मजबूत बनाने के लिये जो साधन संभव हों उन्हें अधिक तत्परता पूर्वक पूरा कर लें। काम बहुत पड़े हैं- योजनायें सामने बहुत हैं। वे समय माँगती थी और सहयोग तथा साधन की अपेक्षा करती थी। सो अभीष्ट मात्रा में जुट न सका। उपलब्ध परिस्थितियों में जितना संभव था उसे पूरा करने में राई भर भी उपेक्षा या आलस्य और प्रमाद हमने नहीं बरता। फिर भी जरूरी काम बहुत से निपटाने को रह गये हैं और उनमें से कई तो ऐसे हैं जो समय रहते पूरे न किये जा सके तो पीछे वालों पर इतना अधिक बोझा बढ़ जाएगा जिसे वहन करने में वे अनासक्त होने के कारण बहुत अड़चन अनुभव करेंगे। हम इस तरह के कामों को इन्हीं दिनों इस रूप में प्रस्तुत कर जाना चाहते हैं कि पीछे वाले उस गाड़ी के पहिये को ठीक तरह घुमाते रह सकें तो जो काम हमें अत्यधिक अड़चनों के बीच करना पड़ा उसे वे सफलता पूर्वक आगे बढ़ाते चले जायेंगे। हम ऐसी ही स्थिति पैदा करके जाना चाहते हैं। इसलिये इन 200 दिनों में उतना काम करना चाहते हैं जितना पिछले 20 वर्षों में कर सके।

हम इन दिनों क्या कर रहे हैं और जिन पर हमारा प्रभाव अधिकार है- उनसे क्या करा रहे हैं, इसकी विस्तृत चर्चा इसी अक्टूबर की युग-निर्माण पत्रिका में पढ़ लेना चाहिए। केवल अक्टूबर का ही क्यों नवम्बर, दिसम्बर के भी युग-निर्माण अंक हर अखण्ड-ज्योति के पाठक को पढ़ लेने चाहिए जो उसे मंगाते न हों या माँगकर पढ़ने की सुविधा न प्राप्त कर सकें वे 3 अंकों का चन्दा 1)50 भेज दें और उन्हें प्राप्त करलें। हम चाहते हैं कि उन तीनों अंकों को हर पाठक पढ़लें। ताकि हमारी तथा आन्दोलन की वर्तमान तथा भावी गति-विधियों की जानकारी ठीक तरह सभी को मिल जाय। अक्टूबर अंक में इन छह महीनों में किये जाने वाले प्रयत्नों का उल्लेख है। यह नवम्बर, दिसम्बर में बताया जायगा कि योजना को आगे क्या करना होगा और उसके लिये क्या करना पड़ेगा। इन अंकों के आधार पर युग परिवर्तन अभियान की रूप-रेखा आदि से अन्त तक समझी जा सकेगी और सोचा जा सकेगा कि उन प्रयत्नों में अपने को कौन कितना कहाँ फिट कर सकता है। इन तीनों अंकों को प्रेरणा और सूचना की तरह इन दिनों लिखकर तैयार किया जा रहा है।

बूढ़ा शरीर अधिक से अधिक श्रम इस बीच कर सके इसमें हम कुछ भी न उठा रखेंगे। मेहनत करने की आदत भी जीवन भर की है पर अगले दिनों उसकी अति कर देने में भी हमें आपत्ति नहीं। 200 दिनों में 20 वर्ष का काम निपटाना हो तो अति ही करनी पड़ेगी। हम करेंगे। पर अपने साधियों में यह चाहिये कि वे भी इन दिनों हमारा हाथ बँटाने, कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का कुछ अधिक उत्साह दिखा सकें तो यह उनके लिये और हमारे लिये एक चिर स्मरणीय घटना बनी रहेगी, घरेलू काम-काज जिन्दगी भर लगे रहे हैं, ममता जैसे-जैसे बढ़ेगी काम का दबाव भी बढ़ता जायगा, उससे फुरसत भी मिल सकती है जब व्यक्ति भावी प्रयोजनों को प्राथमिकता देने लगे और उनका महत्व समझे। अन्यथा फुरसत न मिलने का चिर परिचित बहाना कोई भी कर सकता है और किसी दूसरे का नहीं तो कम से कम अपना मन तो इसी आड़ में समझा सकता है। जरूरी जो काम समझे जाते हैं उनके लिए पर्याप्त समय मिलता है, अन्य काम पीछे के लिए छोड़ दिये जाते हैं और जरूरी पहले किया जाता है। बीमार पड़ जाने पर सबको फुरसत मिल जाती है। ऐसी ही कुछ मनोभूमि बना ली जाय तो किसी को भी हमारी थोड़ा सहयोग करने की फुरसत मिल सकती है और अगले छह महीने में पूरे या आरम्भ किये जाने वाले कार्यों की एक सन्तोष जनक व्यवस्था बन सकती है।

सक्रिय सदस्यों की संख्या वृद्धि, जो सदस्य बन चुके हैं, उनका व्यवस्थित संगठन, कार्य वाहकों की नियुक्ति, झोला पुस्तकालयों की सक्रियता, चल पुस्तकालय, (धकेल गाड़ियाँ) का प्रचलन, इतना क्रम चल पड़े तो समझना चाहिए कि सुदृढ़ संगठन बन गया और इसका ढर्रा ठीक तरह चलने लगा, समय देने वाले- अपने यहाँ अपने समीपवर्ती क्षेत्रों में भावनाशील परिजनों से मिलकर इस व्यवस्था को पूरा कराने में योगदान दे सकते हों दें, हमारी प्रबल इच्छा सक्रिय कार्यकर्त्ताओं का संगठन देखकर जाने की है क्योंकि हमारे सामने की साकारता प्रधानतया इन संगठनों पर ही निर्भर रहेगी।

जनवरी 71 से हर शाखा में, हर गाँव, मुहल्ले में अभिनव शिक्षा पद्धति के माध्यम से व्यक्ति-निर्माण तथा समाज-निर्माण की पाठशालायें चलाई जानी चाहिए पुरुषों के लिये रात्रि की महिलाओं के लिए तीसरे पहर की। अभी से अध्यापकों की नियुक्तियाँ तथा स्थान की व्यवस्था, पाठ्य पुस्तकों की खरीद का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। कोई स्थान स्थान न रहे जहाँ इन पाठशालाओं का क्रम- चल पड़ा है। कला भारती भी 1 जनवरी 71 से आरम्भ होने जा रही हैं उसके लिये मधुर कण्ठ वाले, कला प्रेमी अथवा प्रचार अभियान में रुचि लेने वाले केवल 20 छात्रों की प्रथम वर्ष में भर्ती होगी। यह छात्र उप क्षेत्र में प्रचारक का काम कर सकें ऐसी आवश्यक शिक्षा 6 महीने में दे दी जायेगी। प्रथम सत्र में अधिक उपयुक्त अधिक भावना संपन्न छात्र आ सके होते तो अधिक अच्छा होता। इसके लिये भी अपने क्षेत्रों में प्रयत्न किया जा सकता है। इस वर्ष नवम्बर 70 से लेकर अप्रैल 71 तक प्रायः छह महीने देशव्यापी प्रचार के लिये गायत्री यज्ञों से मिले हुए युग-निर्माण सम्मेलनों की व्यवस्था की गई है। उनमें से अधिकाँश में हम स्वयं पहुंचेंगे, जो लोग शिविरों में मथुरा नहीं आ सके हैं, वे उधर ही अन्तिम भेंट कर लें तो अच्छा रहेगा। समीपवर्ती आयोजनों में आने का आमंत्रण इन पंक्तियों का ही समझ लिया जाय।

अन्य भाषाओं में प्रकाश की बात इन दिनों कुछ अधिक उत्साह से की जा रही है, जिससे अन्य भाषाओं में भी मिशन का प्रचार क्षेत्र और प्रभाव क्षेत्र बढ़ सके। गुजराती की पत्रिका 1 जनवरी में प्रकाशन हो जायेगी। उसके साधन खड़े कर दिये गये हैं। मराठी और अंग्रेजी की भी पत्रिकायें इस वर्ष निकल सकीं होती तो अच्छा होता। इसके लिये उन भाषाओं से प्रेम रखने वाले सज्जनों को कहा गया है कि अपने-अपने जिम्मे कुछ ग्राहक बना देने के आश्वासन भेजें। उपर्युक्त संख्या बनती दीखी तो तुरन्त इन दो भाषाओं में भी प्रकाशन आरंभ कर दिया जायेगा। हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी में अच्छा अनुवाद कर सकने वाले व्यक्ति भी चाहिए जो मथुरा रहकर अथवा अपने घर में वह काम कर सकें।

तात्कालिक कार्य इसी प्रकार के हैं। भविष्य में युग-निर्माण योजना को व्यापक कैसे बनाया जा सकेगा इसके रूपरेखा नवम्बर, दिसम्बर के युग-निर्माण अंकों में भी बताई गई है। ऊपर तो केवल उन बातों की चर्चा है जो इन्हीं दिनों पूरी करने में, तत्काल सहयोग इन्हीं कामों में देने के लिये विशेष रूप से कहा गया है। हम अभिनव शिखा पद्धति की पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने से लेकर अन्य भाषाओं में प्रकाशन, प्रेस, कला भारती का ढांचा खड़ा करना, देशव्यापी भ्रमण, तथा दूसरी पचासों व्यवस्थायें बनाने में जुटे रहते हैं जिनकी चर्चा छपने के रूप में आवश्यक नहीं। अपने कार्यों को हम ठीक तरह जन सहयोग से ही निपटा सकें सो उसकी चर्चा की गई है।

माता भगवती देवी जो जून से ही सप्त सरोवर हरिद्वार चली जायेंगी और वहाँ अपनी साधना में लग जायेंगी। वहाँ से वे अखण्ड-ज्योति का सम्पादन करेंगी तथा परिजनों को मार्गदर्शन एवं स्नेह प्रदान करती रहेंगी। बाप मर जाता है तो माँ बच्चों को पाल लेती है। माँ न रहे तो बाप के लिये कठिन पड़ता है। सो परिजनों को हमारे स्नेह सहयोग की आवश्यकता की पूर्ति माता जी द्वारा होती रहेगी वे अपने को एकाकी अनुभव न करेंगे।

हम 200 दिन बाद चले जायेंगे। इस बीच मिशन को मजबूत करने वाले पाये काफी गहरे जम जायेंगे। हम जहाँ कहीं भी रहेंगे परिजन हमारा स्नेह, सद्भाव प्रकाश, सहयोग बराबर अपने ऊपर बरसता अनुभव करेंगे। जो हमारी भावनाओं के समीप हैं उन्हें सान्निध्य संपर्क की कमी भी अखरेगी नहीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118