जीवन अविभक्त है, देखने में लगता है-जीवों के शरीर उनकी आकृतियाँ भिन्न हैं पर वे सब एक ही प्रकृति मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश के पंचीकृत रूप है। देखने में लगता है सबकी लालसायें, आकाँक्षायें, कामनायें और आवश्यकतायें अलग-अलग हैं पर वह सब एक ही इच्छा शक्ति, विचार संकल्प शक्ति के नाना-रूप हैं। इस भिन्नता को स्थूल दृष्टि से सत्य मान लेने के कारण ही शाश्वत सौंदर्य चेतना एक ही शक्ति का अंश है तो वह परस्पर प्रेम का आदान-प्रदान क्यों नहीं कर सकती है। प्रेम का अभाव ही क्या हमारे दुःख का कारण नहीं है?
प्रेम से उन्नत कोई सम्पत्ति नहीं, प्रेम से उन्नत कोई सद्गुण नहीं। प्रेम ही सत्य रूप में प्रकट हुआ धर्म और परमेश्वर का व्यक्त प्रकाश है। जिसने प्रेम का रसास्वादन न किया उसका सारा जीवन बेकार है।
ईश्वर को प्राप्त करने के प्रत्येक जिज्ञासु को प्रेम की उपासना करनी पड़ेगी। उसे अपने आपसे परिवार, पत्नी और बच्चों से पड़ोसी देश और विश्व से सृष्टि के प्राणिमात्र से उतना ही घनिष्ठ प्रेम करना पड़ेगा जितना वह परमात्मा को प्रेमास्पद मानता है। भगवान प्रेम में जीवित हैं और प्रेम में ही विराजते हैं प्रेम की साधना किये बिना कोई उन्हें पा नहीं सकता।
प्रेम की शक्ति अनन्त और उसकी गहराई अपरिमेय है। वन्य पशु बड़े खूँखार होते हैं शस्त्र से भी वे भयभीत नहीं होते पर प्रेम की चाह उन्हें इतना निर्बल कर देती है कि एक छोटा सा व्यक्ति भी हिंसक सिंह को साध लेता है। प्रेम की प्यास कब बुझे सारा संसार इस एक ही आकाँक्षा के लिये जीवित है। बार-बार मरता है, वह और इस आशा से फिर-फिर जन्म लेता है कि उसे कोई प्यार दे, निश्छल अन्तःकरण से प्रेम देकर अपना दास बना ले। शत्रु भी प्रेम करने लगे तो वह उसके लिये भी हृदय के द्वारा खोल देता है। प्रेम जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि है जो सुख और शाँति के लिये साधनों में भटकते हैं वह भी अन्त में प्रेम में ही दिव्य-आनन्द की अनुभूति करते हैं। एक बार प्रेम का प्याला पी लिया जिसने उसके लिये भौतिक सम्पदाओं का क्या मोह, प्रेम जीवन का सार है, सबसे बड़ी शक्ति है। आत्मा उसे ही प्राप्त और विकसित करने के लिए मनुष्य शरीर में जन्मा है। धिक्कार है कि फिर भी मनुष्य वासनाओं और कामनाओं की भूल में प्रेम जैसे दिव्य तत्व से संबंध विच्छेद कर अनन्त सुख प्राप्ति के पथ से भ्रष्ट हो जाता है।
पदार्थ में जो सुख है वह अपना अन्तःकरण उसमें प्रतिरोपित हो जाने, उससे प्रेम हो जाने के कारण है। प्रेम ही सुखद और प्रेम ही लक्ष्य है। फिर वस्तुओं को क्यों ढूँढ़ा जाये? क्यों न प्रेम का दीपक जलाकर अन्तःकरण आलोकित किया जाये।