सत्य को सर्वोपरि मानने वाला सत्यकाम

November 1970

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माँ नहीं जानती थी कि उसका पुत्र इतनी शीघ्र इसके सम्मुख वह प्रश्न लेकर आ खड़ा होगा-जिसके विषय में, पुत्र के जन्म से ही वह सोचती रही है कि अवसर आने पर पुत्र के सम्मुख किस रूप में उसका उत्तर देगी वह?

किन्तु वह कायर नहीं थी। कटु से कटु सत्य को कहने की तथा सुनने की सामर्थ्य थी उसमें। पुत्र कह रहा था- ‘अब मैं आश्रम में जाकर गुरु से विद्या प्राप्त करूंगा। मुझे मेरा गोत्र बता दे माँ। वे पूछेंगे तो मैं क्या बताऊंगा?’

और जो उत्तर माँ ने दिया वह ज्यों का त्यों ले जाकर उसने आपने भावी गुरु के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।

जब वह ऋषि हारीद्रु मात गौतम के पास पहुँचा तो आशा ही के अनुकूल उन्होंने सर्वप्रथम यही प्रश्न पूछा ‘वत्स! तुम्हारा नाम तथा गौत्र क्या है?’

सत्यकाम न झिझका और न घबराया। मृदुल वाणी में उसने करबद्ध होकर कहा- ‘आचार्य प्रवर! यही प्रश्न मैंने घर से चलते समय अपनी माँ से किया था। उन्होंने बताया कि वे स्वयं भी नहीं जानती कि मेरा गौत्र क्या है। कुछ वर्षों पूर्व, जब वे ग्रह-ग्रह जाकर परिचारिका का कार्य करती थीं- तभी उन्होंने मुझे जन्म दिया था। किन्तु उन्होंने कहा है कि एब बात तो निश्चित है कि मेरा नाम सत्यकाम है और उनका जावाला। अतः आप मुझे केवल जवाला पुत्र समझकर ही दीक्षा देने की कृपा करें।’

गुरु ने देखा- बालक में अपूर्व तेज, अदम्य उत्साह तथा सत्य के प्रति अडिग निष्ठा है। उनका हृदय गदगद हो गया। बोले- ‘तुम्हारा गोत्र कुछ भी हो, गुण महान व्यक्तियों जैसे हैं। कोयले की खान में से कोयला निकलता है- हीरे की खान से हीरा। निश्चय ही तुम्हारी माता सत्य की उपासिका तथा साहसी महिला होंगी। मैं तुम्हारी इस स्पष्टवादिता से बहुत प्रसन्न हूँ। कोई भी निम्न वंश का बालक कटु सत्य को इतने के साथ कहने में अवश्य ही झिझकता। मैं तुम्हारी इस सत्यवादिता से बहुत प्रसन्न हूँ। जाओ समिधायें ले आओ। मैं तुम्हारा ब्रह्मचर्य प्रवेश कराऊंगा।’

संस्कार होने के पश्चात वह अन्य बालकों के साथ उसी आश्रम में रहने लगा। ऋषि ने देखा इस बालक में सत्य के प्रति गहन आस्था है। उसके प्रश्नों में सदा यही जिज्ञासा झलकती सृष्टि का अन्तिम सत्य क्या है?

उन्होंने कुछ सोचकर उसे प्रकृति के सान्निध्य में भेजा। सत्यकाम को बुलाकर ऋषि ने आदेश दिया ‘वत्स! इन गायों को लेकर जाओ। इनकी संख्या चार सौ है। जब तक इनकी संख्या एक हजार न हो जाय आश्रम मत लौटना। वनस्थली में आशा है तुम्हें कोई कष्ट न होगा।’

यह एक परीक्षा थी। किन्तु वैसी ही जैसे कंचन को तपते समय देनी पड़ती है पर परिणाम भी वैसा ही सुखद होता है। मलिनता गलकर दूर हो जाती है और शुद्ध खरा कंचन देदीप्यमान हो उठता है।

सत्यकाम के लिये गुरुवचन वेद वाक्य से कम न थे। तत्काल ही वह चल पड़ा। एक सुन्दर रम्य वनस्थली में उसने स्थान बनाया। एक छोटी पर्णकुटी का निर्माण किया अपने लिये। पशुओं के लिये भी रहने की समुचित व्यवस्था की।

भोजन की समस्या कन्दमूलों से, सुन्दर फलों से तथा दुग्ध से हल हो जाती थी। दिनभर गौओं को चराता रहता। सन्ध्या समय बछड़ों से प्यार करता गौओं की सेवा करता- दूध निकालकर आस-पास के ग्रामों में जाकर असहायों तथा साधनहीनों में वितरित कर देता। एक-एक दिन बीतता और वह यही लेखा-जोखा लेता रहता कि मेरे पशु हृष्ट-पुष्ट हो रहे हैं या नहीं- उन्हें कोई कष्ट तो नहीं। गुरुदेव का यह भी आदेश था कि पशु दुर्बल हो गये हैं- तनिक हृष्ट-पुष्ट हो जाने चाहिये।

गुरु के प्रति असीम श्रद्धा तथा कर्त्तव्य निष्ठा दोनों मिलकर उसके कार्य को अत्यधिक प्राणपूर्ण बना देते। जब कार्यों से अवकाश मिलता तभी वह निर्जन स्थान में बैठा कभी उगते सूर्य को देखा करता उसे लगता ये प्रकाश- ये जीवनदायी किरणें निश्चय ही परमात्मा का प्रतिबिम्ब हैं। रात का गहन अन्धकार और उसमें चमकते चाँद तारे सत्यकाम के मस्तिष्क में अजीब द्वन्द्व उठा देते और वह सोचता ईश्वर रात्रि की इस शीतलता से भरे अपने क्रोड में मानव को भरकर उसके समस्त ताप-शाप को धो देता है।

रात को जब वह आग जलाता- तो विचार करता रहता- यही तत्व मनुष्य को उसके आवरण को भेदकर असीम सत्ता से एकाकार कर देता है। इस भूलोक में अग्नि ही आधार है मानव-जीवन का।

कभी पहाड़ी की चोटियों पर जा बैठता और विचार करता रहता ये विस्तृत आकाश, ये विशाल सागर, लहराती नदियाँ, गौरव से मस्तक ऊंचा किये हुए ये पर्वत ये सनसनाती पवन, अन्न-जल, प्रदान करने वाली, रत्नों की देवी, ये पृथ्वी पर्वतों की छाती भेदकर वनों को जीवन देने वाले ये निर्झर ये सभी क्या उस परमपिता का विराट स्वरूप नहीं?

और हाँ ये शरीर इसकी अद्भुत शक्तियाँ। सब उसी की सत्ता द्वारा संचालित हैं। जल की शीतलता धूप की ऊष्मा, शीतल पवन की माँ के प्यार जैसी थपक भरी स्पर्श की अनुभूति सब में उसे उस अनादि, अनन्त ब्रह्म की छाया तथा शक्ति प्रतिभासित होती हुई दृष्टिगोचर होती।

गायों की संख्या अब एक सहस्र हो चुकी थी। सत्यकाम का कर्त्तव्य पूरा हो चुका था। जब वह उन्हें लेकर गुरु के सम्मुख पहुँचा तो उसे देखते ही ऋषि का हृदय स्नेहावेग से भर आया। सूखे बैल तथा निर्बल गायें संख्या में बढ़ने के साथ-साथ पर्याप्त परिपुष्ट हो गये थे। सत्यकाम की आभा में भी लालिमा भर उठी थी। मुख मण्डल तेज से दीप्त हो उठा था।

ऋषि ने कहा- ‘मेरी आशा के अनुरूप ही तुम वास्तविक ज्ञान लेकर लौटे हो’ तब सत्यकाम ने कहा ‘यह तो मेरी परीक्षा थी, कसौटी थी- ज्ञान तो अभी आपसे प्राप्त करना है।’

तब ऋषि गदगद हृदय से बोले ‘प्रकृति के सान्निध्य में तुम्हें इसीलिये भेजा था। सृष्टि के अन्तिम सत्य को तुमने जानने की जिज्ञासा व्यक्त की थी। एक बड़ी सीमा तक तुम उसे पा भी चुके हो। कुछ सैद्धाँतिक रहस्य शेष हैं। वे भी तुम्हें बता दूँगा। तुम्हें पाकर मेरा आचार्यत्व धन्य हुआ है और तुमने तो अपना शिष्यत्व प्रमाणित कर ही दिया है।’

सत्यकाम- हारीद्रु मात का सर्वाधिक प्रिय शिष्य था। केवल सत्य के प्रति निष्ठा ने ही उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्रदान की थी। अन्तिम सत्य को खोजने अथवा पाने से पूर्व, सत्य का आचरण जीवन में पग-पग पर किया जाना अनिवार्य होता है- तभी उस अन्तिम सत्य को जानने का अधिकार अथवा पात्रता होती है।

ऋषि ने सत्यकाम को पूर्ण ब्रह्मज्ञान देकर उसकी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण की। (पिता का सही ज्ञान न होने के कारण सत्यकाम, उपनिषदों में अपनी माता के नाम पर ही सत्यकाम जावाल के नाम से सुविख्यात है)।


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