वैज्ञानिक कसौटी पर फेल-आधुनिक फैशन

November 1970

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साइन्स डाइजेस्ट के पिछले एक लेख में अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के डॉ. लिंडा एलेन लिखते हैं- मुझे बड़ा कौतूहल उत्पन्न हुआ जब मैंने त्वचा रोग की चिकित्सा के आँकड़ों पर दृष्टि दौड़ाते हुये पाया कि वह अधिकाँश किशोरों तथा युवा-युवतियों को ही अधिक मात्रा में हो रहे हैं। यह बिलकुल उल्टी बात थी। इस विस्मय ने मुझे इस पर गंभीरता से जाँच करने की प्रेरणा दी।

डॉ. एलेन की जाँच के निष्कर्ष फैशन की अन्धी दौड़-दौड़ाने वालों को चौंका देने वाले हैं। उनका कहना है कि शरीर को छूती तंग पोशाकें पहनने के कारण किशोरों तथा युवक युवतियों के शरीर में रक्त त्वचा, पपड़ीदार- त्वचा शोथ, विन्टर इच तथा खुजली जैसे त्वचा रोग तेजी से बढ़ रहे हैं उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि यदि युवक-युवतियों ने तंग पोशाकें पहननी न छोड़ी तो आगे त्वचा रोग एक भीषण समस्या बन सकता है, कुछ रोग तो असाध्य और वंशानुगत तक हो सकते हैं।

वस्त्र पहनने में स्वच्छता सफाई और कला का ध्यान रखा जाये, इसमें कुछ हानि नहीं, वरन् यह एक प्रकार से आवश्यक है पर उसके साथ ही स्वास्थ्य सामाजिकता के विवेकपूर्ण पहलू भी उपेक्षित नहीं किये जाने चाहियें। वस्त्र पहनने का उद्देश्य जहाँ शरीर के उन अंगों को ढकना है जो लोगों की मनोवृत्ति दूषित कर सकते हैं वहाँ यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन न हो अर्थात् मौसम का प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता रहना चाहिये। जिन शरीरों में ताजी हवा का स्पर्श नहीं बना रहता वे मौसम के थोड़े से भी परिवर्तन सहन नहीं कर पाते। थोड़े से ही परिवर्तन से शरीर गड़बड़ करने लगता है। भारतीय वेश-भूषा का निर्धारण इन बातों को ध्यान में रखने के साथ-साथ कला की दृष्टि से भी उच्चकोटि का है किन्तु आज का फैशन उसे नष्ट कर देने पर तुल गया है। जब जो तंग कपड़े पहने जाते हैं वह शरीर में इस तरह मढ़े होते हैं कि उनसे काम अंगों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता है लोगों में मनोविकार उत्पन्न होते हैं साथ ही उनसे स्वास्थ्य में भी बुरा असर पड़ता है। डॉ. एलेन का कहना है कि इन तंग कपड़ों के यान्त्रिक दबाव और शरीर की रगड़ से ही त्वचा रोग पैदा होते हैं। यह पहलू ही कम चिन्ताजनक नहीं है।

इन दिनों आस्ट्रेलिया में प्रैक्टिस कर रहे अंग्रेज डॉ. लैंडन कोर्टिने ने भी फैशन शास्त्र पर खोज की और बताया कि मिनी र्स्कट तथा दूसरे अस्वाभाविक वस्त्र पहनना न केवल शारीरिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है वरन् उसके कारण मस्तिष्क में घबराहट और स्नायुविक तनाव बढ़ता है, जो उभरती पीढ़ी के लिये एक प्रकार का अभिशाप है। इससे किशोरों का बौद्धिक तथा भाव विकास रुकता है।


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