महान कहलाने का अधिकारी

November 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्वराज्य आन्दोलन के दिनों की बात है। राजकोट में काठियावाड़ राज्य प्रजा परिषद का अधिवेशन हो रहा था। बापू अन्य नेताओं के साथ मंच पर बैठे थे। तब ही उनकी दृष्टि दूरी पर बैठे एक वृद्ध पर पड़ी। वे गाँधी जी को कुछ जाने-पहचाने से लगे। स्मरण शक्ति पर जरा जोर देने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ये तो मेरे बचपन के अध्यापक हैं।

बापू शीघ्र ही मंच से उतरकर उनके पास गये और प्रणाम करके उनके चरणों के समीप बैठ गये। गुरुजी ने उनसे परिवार की कुशल-क्षेम पूछी। जब काफी समय हो गया तो गुरुजी ने बापू से कहा- ‘अब आप मंच पर पधारिये। नेतागण आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’ बापू बोले- ‘नहीं, नहीं, मैं यहीं पर ठीक हूँ। अब मैं मंच पर नहीं जाना चाहता। यहीं बैठकर सारा कार्य देखूँगा। आप चिंता न कीजिये।’ सभा समाप्त होने पर वे चलने लगे तो अध्यापक ने गदगद होकर आशीर्वाद दिया- ‘जो व्यक्ति तुम जैसा अहंकार रहित हो, महान कहलाने का अधिकारी वही हो सकता है।’


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles