चक्कर, चौरासी लाख योनियों का

November 1970

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जोहान्सबर्ग (अफ्रीका) का एक गड़रिया बकरियाँ चराकर लौट रहा था। उसने एक झाड़ी के पास खो-खों कर रही बबून-बन्दरिया देखी। लगता था वह बच्चा अपने माँ-बाप से बिछुड़ गया है। गड़रिया उसे अपने साथ ले आया और जोहान्सबर्ग के एक औद्योगिक फार्म के मालिक को उपहार में दे दिया।

सामान्यतः सृष्टि का विज्ञान सम्मत नियम यह है कि कोई भी जीव अपने माता-पिता के गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) से प्रभावित होता है। शरीर के आकार-प्रकार से लेकर आहार-विहार और रहन-सहन की सारी क्रियायें मनुष्य ही नहीं जीव-जन्तुओं में भी पैतृक होती हैं। इस नियम में थोड़ा बहुत अन्तर तो उपेक्षणीय हो सकता है पर असाधारण अपवाद उपेक्षणीय नहीं हो सकते। जो संस्कार सैकड़ों पीढ़ी पूर्व में भी संभव न हो, ऐसे संस्कार और जीव जन्तुओं के विलक्षण कारनामे भारतीय दर्शन के पुनर्जन्म और जीव द्वारा कर्मवश चौरासी लाख योनियों में भ्रमण के सिद्धाँत को ही पुष्ट करते हैं।

अफ्रीका की जिस बबून बंदरिया की घटना प्रस्तुत की जा रही है उसमें असाधारण मानवीय गुणों का उभार उस औद्योगिक फार्म में पहुँचते ही उसकी आयु के विकास के साथ प्रारंभ हो गया। उसे किसी से कोई प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर उसमें, उस विलक्षण प्रतिभा का जागरण कहाँ से हुआ जिसके कारण वह इस परिवार की अन्तरंग सदस्या बन गई? आज के विचारशील मनुष्य के सामने यह एक जटिल और सुलझाने के लिये बहुत आवश्यक प्रश्न है।

बंदरिया का नाम आहला रखा गया। फर्म मालिक एस्टन को पशुओं से बड़ा लगाव है उनकी उपयोगिता समझने के कारण ही उन्होंने फार्म के भीतर ही एक पशुशाला भी स्थापित की है। उसमें गायें, बछड़े, बछड़ियाँ, कुत्ते, बकरियाँ आदि दूध देने वाले पशु भी पाले हैं, उनसे उनकी अच्छी आय भी होती है और बचे समय के उपयोग का साधन भी। पशुओं को चराने और उनकी देख-रेख के लिये एक नौकर रखा गया था। वह बंदरिया भी उसे ही देख-रेख के लिये दे दी गई।

नौकर उसे साथ लेकर गौ-चारण के लिये जाता था धीरे-धीरे उसको अभ्यास हो गया। एक दिन किसी कारण से नौकर अपने गाँव चला गया। उस दिन बिना किसी से कुछ कहे ठीक समय पर बंदरिया भेड़-बकरियों को बाड़े के बाहर निकाल ले गई और दोनों कुत्तों की सहायता से उन्हें दिन भर चराती रही। उसने चरवाहे का नहीं कुशल चरवाहे का काम किया। भटके हुये मेमनों को उनके माता-पिता तक बगल में दबाकर पहुँचाकर, जिनके पेट आधे भरे रह गये उन्हें हरी घास वाले भूभाग की ओर घेरकर पहुँचाकर उसने अपनी कुशलता का परिचय दिया। शाम को कुछ ऐसा हुआ कि एक बकरी का एक बच्चा तो जाकर स्तनों में लगाकर दूध पीने लगा, दूसरा कहीं खेल रहा था। आहला ने देखा कि वह अकेला ही सारा दूध चट किये दे रहा है, उसने उसे पकड़कर वहाँ से अलग किया। दूसरे बच्चे को भी लाई तब फिर दोनों को एक-एक स्तन से लगाकर दूध पिलाया। मालिक यह देखकर बड़ा खुश हुआ। उसने चरवाहे को दूसरा काम दे दिया, तब से आहला लगातार 16 वर्ष तक चरवाहे का काम करती आ रही है। इस अवधि में उसने पशुओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य, रख-रखाव में ऐसे परिवर्तन और नये प्रबंध किये हैं जिन्हें देखकर लगता है मानो वह पूर्व जन्म में कोई गड़रिया रही हो और उसने भेड़-बकरियाँ चराने से लेकर उनकी व्यवस्था तक का सारा काम स्वयं किया हो।

वह शिकारी जन्तुओं से मेमनों की रक्षा करती है। शाम को हर एक पशु की गणना करती है। कोई पशु बिछुड़ गया हो कोई मेमना कहीं पीछे रह गया हो तो वह स्वयं जाकर उसे ढूंढ़कर लाती है। फुरसत के समय उनके शरीर के जुएं मारने से लेकर छोटे-छोटे मेमनों के साथ क्रीड़ा करने की सारी देख-रेख आहला स्वयं करती है। उसे देखकर जोहान्सबर्ग के बड़े-बड़े वकील और डॉक्टर भी कहते हैं-इस बंदरिया के शरीर में यह कोई मनुष्य आत्मा है। कदाचित उन्हें पता होता कि जीवनी शक्ति के रूप में आत्मा एक है दो नहीं, वह शक्ति इच्छा रूप में इधर-उधर विचरण करती और कभी मनुष्य तो कभी पशु-पक्षी और अन्य जीव के रूप में जन्म लेती रहती है।

योग वशिष्ठ में इस तथ्य को बड़ी सरलता से प्रतिपादित किया गया है। लिखा है-

ऐहिकं प्राक्तनं वापि कर्म यद्चितं स्फुरत्।

पौरषोडसो परो यत्नो न कदाचन निष्फलः॥

3।95।34

अर्थात्-पूर्व जन्म और इस जन्म में किये हुये कर्म, फल-रूप में अवश्य प्रकट होते हैं। मनुष्य का किया हुआ यत्न, फल लाये बिना नहीं रहता है।’

कर्म की प्रेरणा मन की इच्छा और आवेगों से होती है इसलिये इच्छाओं को ही कर्मफल का रूप देते हुए शास्त्रकार ने आगे लिखा है-

कर्म बीजं मनः स्पन्दः कथ्यतेऽथानुभूयते।

क्रियास्तु विविधास्तस्य शखाश्चित्र फलास्तरोः॥

-योग वसिष्ठ 3।96।11

अर्थात्- मन का स्पन्दन ही कर्मों का बीज है, कर्म और अनुभव में भी यही आता है। विविध क्रियायें ही तरह-तरह के फल लाती हैं।

नये शरीर में आने के पश्चात अपने पूर्व अनुभवों का विवरण लिखते हुए एक जागृत आत्मा की अनुभूति का वर्णन वेद में इस प्रकार आता है-

पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन् पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रं म आगन्। वैश्वानरोऽदब्ध स्तनूपा अग्निर्नः पातुः दुरितादवधात्॥

-यजुर्वेद 4।15

अर्थात्- शरीर में जो प्राण शक्ति (आग्नेश्य परमाणुओं के रूप में) काम कर रही थी मैंने जाना नहीं कि मेरे संस्कार उसमें किस प्रकार अंकित होते रहे। मृत्यु के समय मेरी पूर्व जन्म की इच्छायें, सोने के समय मन आदि सब इन्द्रियों के विलीन हो जाने की तरह मेरे प्राण में विलीन हो गई थीं, वह मेरे प्राणों का (इस दूसरे शरीर में) पुनर्जागरण होने पर ऐसे जागृत हो गये है जैसे सोने के बाद जागने पर मनुष्य सोने के पहले के संकल्प विकल्प के आधार पर काम प्रारंभ कर देता है। अब मैं पुनः आँख, कान आदि इन्द्रियों को प्राप्त कर जागृत हुआ हूँ और अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भुगतने को बाध्य हुआ हूँ।

इस कथन से आधुनिक विज्ञान का ‘जीन्स-सिद्धाँत’ पूरी तरह मेल खाता है। कोश के आग्नेय या प्रकाश भाग को ही प्राण कह सकते हैं पैतृक या पूर्व जन्मों के संस्कार इन्हीं में होते हैं। यदि प्राणों की सत्ता को शरीर से अलग रखकर उसके अध्ययन की क्षमता विज्ञान ने प्राप्त कर ली तो पुनर्जन्म और विभिन्न योनियों में भ्रमण का रहस्य भी वैज्ञानिक आसानी से जान लेंगे।

तथापि तब तक यह उदाहरण भी इस परिकल्पना की पुष्टि में कम सहायक नहीं। आहला बंदरिया उसका एक उदाहरण है। बन्दरों में मनुष्य से मिलती-जुलती बौद्धिक क्षमता तो होती है। पर यह कुशलता और सूक्ष्म विवेचन की क्षमता उनमें नहीं होती। यह संस्कार पूर्व जन्मों के ही हो सकते हैं। आहला की यह घटना दैनिक हिन्दुस्तान और दुनिया के अन्य प्रमुख अखबारों में भी छप चुकी है। दिलचस्प बात तो यह है कि आहला एक बार कुछ दिन के लिये कहीं गायब हो गई। फिर अपने आप आ गई। इसके कुछ दिन पीछे उसके बच्चा हुआ। बच्चे के प्रति उसका मोह असाधारण मानवीय जैसा था। दैवयोग बच्चा मर गया पर आहला उसे तब तक छाती से लगाये रही जब तक वह सूखकर अपने आप ही टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गया। कुछ दिनों पूर्व पुनः गर्भवती हुई और उसकी खोई हुई प्रसन्नता फिर से वापस लौट आई।

बंदरिया ही क्यों अपने असाधारण कारनामों के लिये कैरेकस का एक तोता पिछले वर्ष ही विश्व विख्यात हो चुका है। इस तोते के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें किसी कम्युनिस्ट नेता के गुण विद्यमान हैं। तोते को तोड़-फोड़ की कार्यवाही में सहयोग देने के अपराध में कैरेकस से 287 मील दूर फाल्कन राज्य के सैन फ्रांसिस्को स्थान पर बंदी बनाया गया।

यह तोता क्यूबा के ‘फिडल कास्ट्रो’ विचारधारा के साम्यवादी गुरिल्लों को ‘हुर्रा’ कहकर उत्साहित किया करता और उन्हें क्यूबाई भाषा से मिलते-जुलते उच्चारण और ध्वनि में मार्गदर्शन किया करता, गुरिल्ले उसके संकेत बहुत स्पष्ट समझने लगे थे, उन्हें इस तोते से बड़ी मदद मिलती थी। उन्होंने इसका नाम ‘चुचो’ रखा था। अब इस तोते की जीभ साफ की जा रही है और उसे नई विचारधारा में ढालने का प्रयास किया जा रहा है, किन्तु उसके संस्कारों में साम्यवाद की जड़े इतनी गहरी जम गईं हैं मानो उसने साम्यवाद साहित्य का वर्षों अध्ययन और मनन किया हो। तोते की वह असाधारण क्षमता इस बात का संकेत है कि अच्छे या बुरे कोई भी कर्म अपने सूक्ष्म संस्कारों के रूप में जीव का कभी भी पीछा नहीं छोड़ते चाहे वह बन्दर हो या तोता।

यह दो उदाहरण व्यक्तिगत हैं, एक और उदाहरण ऐसा है जो यह बताता है कि व्यक्ति ही नहीं यदि सामाजिक परम्परायें विकृत हो जावें और किसी समाज के अधिकाँश लोग एक से विचार के अभ्यस्त हो जायें तो उन्हें उन कर्मों का फल सामूहिक रूप से भोगना पड़ता है। सन् 1910 के लगभग की बात है दक्षिण पश्चिमी अमरीका सामाजिक अपराधों का गढ़ हो चुका था। माँसाहारी होने के कारण वहाँ के लोग उग्र स्वभाव के तो होते ही हैं। हत्या, डकैतियों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही थी। ऐसे कई कुख्यात अपराधी मर भी चुके थे। उन्हीं दिनों वहाँ पाई जाने वाली भेड़ियों की ‘लीबो’ जाति में कई ऐसे खूँखार भेड़िये पैदा हुये जिनके आगे लोग हत्या और लूट-पाट करने वालों का भी भय भूल गये।

कोलोरेडो का एक भेड़िया इतना दुष्ट निकला कि उसने अपने थोड़े से ही जीवन काल में इतने पशु-मारे कि उनकी क्षति का यथार्थ अनुमान लगाने के लिये सरकारी सर्वेक्षण किया गया और यह पाया गया कि इस एक भेड़िये ने 100000 डालर के मूल्य के पशुओं को केवल शौक-शौक में मार डाला। इसे लोग ‘कोलोरेडो का कसाई’ कहते थे और उसके असाधारण बुद्धि कौशल को देखकर मानते थे कि ऐसी चतुरता तो मनुष्यों में ही हो सकती है। प्रश्न यह है कि कोई खूँखार मनुष्य ही था जिसने कर्मफल या पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण भेड़िये के रूप में जन्म लिया।

1915 में ऐसे कई भेड़ियों का आतंक छा गया और तब सरकार को उन्हें मरवाने के लिये काफी धन भी खर्च करना पड़ा। ‘जैक द रिपर’ भेड़िये को सरकार ने इनाम देकर मरवाया। एक तीन टाँग का भेड़िया, उसने केवल अपना शौक अदा करने के लिये लगभग 1 हजार पशुओं का वध किया, वह भी ऐसे ही मारा गया। इसकी वृद्धि बताते हैं मनुष्यों से कम नहीं थी। धोखा देने संगठित रूप से आक्रमण करने, चकमा देने में वह आश्चर्यजनक चतुरता करता। एक बार टेडी रुवबेल्ट नामक एक व्यक्ति ने शिकारी कुत्तों के साथ इस कसाई का पीछा किया। भेड़िया भागता ही गया रुका नहीं, रात होने को आई कुत्ते रोक लिये गये। बस भेड़िया भी वहीं रुक गया। रात को कैम्प लगाकर टेडी रुक गया और उस कैम्प में घुसकर एक-एक करके भेड़िये ने नौवों कुत्तों को मार दिया और किसी को पता भी नहीं चल सका।

बंदरिया से लेकर तोते और भेड़िये तक के यह असाधारण संस्कार विश्व चिन्ह हैं और वे यह बात सोचने के लिये विवश करते हैं कि क्या सचमुच ही कर्मफल जैसी कोई ईश्वरीय व्यवस्था भी है जो इच्छाशक्ति (जीव) को सैंकड़ों योनियों में भ्रमण कराती है, घूमती रहती है?


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