आत्मा-शरीर नहीं, शाश्वत और स्वतंत्र द्रव्य

November 1970

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आत्म जिज्ञासु नचिकेता यमाचार्य से आग्रह करता है-

येयं प्रते विचिकित्सा मनुष्ये,

अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं

वराणामेष वर स्तृतीयः॥

-कठोपनिषद् ।1।20

भगवन्! कुछ लोग कहते हैं आत्मा है, कुछ कहते हैं यह शरीर ही आत्मा है। मृत्यु के पश्चात आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। सही तत्व क्या है सो आप मुझे बतायें यह मेरा तीसरा वर है।

नचिकेता की तरह संसार का प्रायः हर व्यक्ति जिसने गहन तप, साधना, योगाभ्यास, स्वाध्याय और दीर्घकालीन मनन चिन्तन के बाद आत्मतत्व की स्पष्ट अनुभूति नहीं कर ली, इस विषय में दुविधा पूर्ण स्थिति में रहता आया है। आत्मा का कोई अस्तित्व है भी अथवा नहीं। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे सुलझा न पाने वाले जीवन भर उलटी और अंधकार पूर्ण दिशाओं में भटकते रहते हैं पर जो इस स्थिति के बारे में निश्चिन्त होकर आत्मानुभूति कर लेते हैं, वे अपना जीवन धन्य मानते हैं।

इस संबंध में हिन्दू दर्शन की मान्यतायें बिलकुल स्पष्ट हैं। महर्षि चरक और इसी तरह के थोड़े ही विचारक हुये हैं जिन्होंने आत्मा को शरीर या द्रव्य की चेतना के अतिरिक्त कुछ नहीं माना जबकि अधिकाँश तत्त्ववेत्ता उसे शरीर से भिन्न एक शाश्वत और स्वतंत्र तत्व मानते रहे हैं। योगाभ्यास की ऐसी जटिल विधियाँ खोज निकाली गई हैं जो जीवित अवस्था में ही आत्म-चेतना को शरीर से बाहर कर लेने से स्वेच्छा से किसी भी शरीर में प्रविष्ट होने के प्रमाण प्रस्तुत कर चुकी हैं। इस कथन की पुष्टि में 1. जगद्गुरु शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी भगवती भारती से शास्त्रार्थ करने के लिये काम-शास्त्र का अध्ययन आवश्यक होने पर महिष्मती नगर के राजा के शरीर में ‘परकाया प्रवेश’ किया था। वे प्रतिदिन अपनी आत्म-चेतना को शरीर से निकाल लेते थे। शव जंगल में पड़ा रहता था और उनकी आत्म चेतना राजा के शरीर में बनी रहती थी। रात्रि के समय वे अपने निजी शरीर में आ जाते थे तब राजा का शरीर शव हो जाता था। एक ही आत्मा द्वारा दो शरीरों के उपयोग के इस उदाहरण से आत्मा का पृथक अस्तित्व प्रतिपादित होता है।

2. सन 1939 में पश्चिमी कमान के सैनिक कमाण्डेन्ट श्री एल.पी. फैरेल ने आसाम बर्मा सीमा पर एक योगी को अपनी आँखों अपने वृद्ध शरीर से निकलकर एक स्वस्थ के शव में प्रविष्ट होकर जीवित देखा था। यह घटना अखण्ड-ज्योति मई, 1970 के अंक पेज 29-30 में छपी है।

3. सामान्यतः शरीर का जीवन श्वाँस क्रिया पर आधारित माना जाता है पर सन्त हरदास ने महाराज रणजीत सिंह तत्कालीन अंग्रेज जनरल वेन्टुरा और अनेक अंग्रेज पदाधिकारियों की उपस्थिति में एक माह की समाधि लगाकर दिखा दिया कि आत्मा का शरीर से उतना ही संबंध है जितना किसी मशीन से विद्युत शक्ति का। आत्मा के न रहने पर शरीर मृत हो जाता है।

यह सैंकड़ों में एकाध उदाहरण है जब कि भारतीय धर्म शास्त्र और तत्व दर्शन के पन्ने-पन्ने ऐसी घटनाओं से भरे पड़े हैं। भारतीय आचार्य इस संबंध में पूर्णतया आश्वस्त हैं और बताते हैं-

व्यतिरेकस्तद् भावाभावित्वान्न तूपलधिवत्।

वेदान्त 3।3।54

अर्थात्- ‘शरीर और आत्मा एक नहीं है शरीर में रहते हुये भी आत्मा का अभाव हो जाने से शरीर को किसी बात का ज्ञान नहीं हो सकता।’

आत्मा की सत्ता और स्वतंत्रता के संबंध में करोड़ों वर्ष पूर्व स्थापित ऋषियों की मान्यतायें अब विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध होती जा रही हैं। इस संबंध में शरीर का निर्माण करने वाले जीव-कोषों को बड़ा महत्व दिया जा रहा है। जीवित शरीर और मृत शरीर में क्या अन्तर है, इस संबंध में अमरीका की रायफेर संस्था के डॉ. बेकाफ और डॉ. स्टेनली ने बहुत परिश्रम और खोजें की हैं। यद्यपि उन्होंने अपना अन्तिम मत प्रतिपादित नहीं किया पर यदि भारतीय तत्वदर्शन को सामने रखकर उन खोजों पर विचार किया जाये तो इन वैज्ञानिक उपलब्धियों से भी वही तथ्य प्रतिध्वनित होंगे जो भारतीय दर्शन से ध्वनित होते हैं।

इन वैज्ञानिकों का कथन है कि जीवित अणु रासायनिक प्रक्रिया के प्रभाव से स्वयं ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् आत्मा शरीर की रासायनिक चेतना है पर वे अणु तभी तक उत्पन्न होते हैं जब तक कि वे जीवित पदार्थ (प्रोटोप्लाज्मा जिससे कि शरीर का निर्माण होता है) से संबंधित रहते हैं। अर्थात् चेतना का संबंध चेतना से ही है इस कथन के अनुसार आत्मा शरीर से भिन्न है।

यह एक स्वयं सिद्ध सत्य है कि मृत्यु के अनन्तर शरीर की सारी तन्मात्रायें समाप्त हो जाती हैं जो प्राणी अभी तक चलता, फिरता, खाता, पीता, सूँघता, मल-उत्सर्जन करता, खाँसता, छींकता जम्हाई लेता सोचता, बोलता, परामर्श करता, प्रेम, दया, करुणा या घृणा द्वेष और क्रोध व्यक्त कर रहा था मृत्यु होने के बाद शरीर ज्यों का त्यों होने पर अब वैसी क्रियायें क्यों नहीं करता।

वैज्ञानिक के समक्ष प्रश्न यह था कि प्रत्येक अस्तित्व का भार होना चाहिए। यदि प्रकाश कणों के इलेक्ट्रान अत्यधिक तीव्र गति से गतिशील न रहे होते और इस कारण उन्होंने अपने आप को गुरुत्वाकर्षण से मुक्त न कर लिया होता तो प्रकाश की मात्रा को भी तोलना संभव हो जाता। शक्तियों चाहे वह विद्युत हो, प्रकाश, ध्वनि, ताप या चुम्बक हो की परिभाषा यह है कि उनमें भार नहीं होता, वे वस्तुएं प्रभाव से ही जानी जा सकती हैं। केवल प्रभाव से ही किसी वस्तु के विश्लेषण को मानने के लिये वैज्ञानिक तैयार नहीं होते इसी कारण विज्ञान और मनोविज्ञान दोनों में मेल नहीं हो पाता और एक सनातन प्रश्न इस बौद्धिक प्रखरता के युग में भी अधूरे का अधूरा छूट जाता है।

फिर भी कुछ वैज्ञानिकों का ध्यान प्रसंगवश इधर गया और उन्होंने कुछ ऐसे कारण पाये जो आत्मा के अस्तित्व के प्रमाणीकरण में बड़े सहायक सिद्ध हुये। इंग्लैण्ड के डॉ. किलनर एक बार अस्पताल में रोगियों का परीक्षण कर रहे थे। एक मरणासन्न रोगी की जाँच करते समय उन्होंने देखा कि उनकी खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) के शीशे पर एक विचित्र प्रकार के रंगीन प्रकाश जम गये हैं जो आज तक कभी भी देखें नहीं गये थे। दूसरे दिन उसी रोगी के कपड़े उतरवाकर जाँच करते समय डॉ. किलनर फिर चौंके उन्होंने देखा जो रंगीन प्रकाश कल दिखाई दिया था आज वह लहरों के रूप में माइक्रोस्कोप के शीशे के सामने उड़ रहा है। रोगी के शरीर के चारों ओर छः, सात इंच परिधि में यह प्रकाश फैला था। उसमें कई दुर्लभ रासायनिक तत्वों के प्रकाश कण भी थे। उन्होंने देखा जब-जब वह प्रकाश मंद पड़ता है तब-तब उसके शरीर और नाड़ी की गति में शिथिलता आ जाती है। थोड़ी देर में एकाएक प्रकाश-पुँज विलुप्त हो गया। अब की बार जब उन्होंने नाड़ी पर हाथ रखा तो पाया कि उसकी मृत्यु हो गई है। डॉ. किलनर अनुमान करते रहे कि आत्म-चेतना कोई प्रकाश जैसा द्रव्य है और वह शरीर से पृथक द्रव्य और गुणों वाला है इसमें कुछ सन्देह नहीं।


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