निरहंकारी ही पापों से बच सकता है?

November 1970

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‘पाप मूल अभिमान’- पाप से बचना है तो अहंकार का परित्याग करिये। वे सारी गति-विधियाँ पाप ही हैं जो पतन की ओर ले जायें अथवा जो शारीरिक, मानसिक अथवा आत्मिक प्रगति में बाधक हों। अहंकार से दूषित मनुष्य की हर गतिविधि कुछ इसी प्रकार की होती है। श्रेय का भागी निरहंकारी व्यक्ति ही हो सकता है, अहंकारी नहीं।

अहंकार से प्रेरित गति तीव्र हो सकती है, पर कल्याणकारी नहीं। अहंकार से प्रेरित होकर आर्थिक क्षेत्र में उतरने वाले व्यक्ति प्रायः शोषक स्वभाव के होते हैं। वे लोगों का हित-अहित नहीं देखते। भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी का मार्ग अपनाते हैं। निर्धन जल्दी-जल्दी धनवान बनते जाते हैं। पर ज्यों ही उनका यह पाप पराकाष्ठा पर पहुँचता है कि पतन प्रारंभ हो जाता है। उसी गति से जिस गति से उसका शोषण चला था, गति तीव्र होने से पाप की पराकाष्ठा आते ही विलम्ब नहीं लगता। पाप के पराकाष्ठा तक पहुँचने की अवधि में भले ही कोई अहंकारी अपने किये को चतुरता समझता रहे, अपनी उन्नति पर संतोष और हर्ष मनाता रहे किन्तु पराकाष्ठा पर पहुँचते ही सारा समाज उसका सच्चा रूप पहचान लेता है और एक साथ ही उसका साथ छोड़ देता है। समाज का असंग होते ही पतन का क्रम प्रारंभ हो जाता है। उसकी गति भी उतनी ही तेज होती है जितनी कि पाप की रही होती है। संयोग अथवा परिस्थितिवश आई अवनति से तो पुरुषार्थ द्वारा पुनः ऊपर उठा जा सकता है किन्तु पापजन्य पतन से उठ सकना असाध्य हो जाता है।

इस असाध्यता का कारण स्पष्ट है। एक तो मनुष्य अपने संस्कार खराब कर चुका होता है जिनका सुधार सहज नहीं होता। दूसरे अपने समय तथा शक्ति को उपक्रमों में व्यय कर चुका होता है, खोई शक्ति और गया समय वापस मिलना संभव नहीं। तीसरे समाज में उसका विश्वास उठ चुका होता है, समान के अविश्वस्त व्यक्ति का उद्धार बड़ा कठिन होता है। गिरा हुआ व्यक्ति जो कि अपनी सामान्य स्थिति में भी नहीं होता इतने-इतने भारी अवरोधों को हटाकर फिर ऊपर उठ सकता है, ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता।

यह बात सही है कि अपना सुधार करके पुनः उचित दिशा में पुरुषार्थ करने पर पुनरुत्थान संभव हो सकता है, किन्तु इस पतन से उत्थान में कितने गुना पुरुषार्थ करना होगा- यह विचारणीय विषय है। नीति भी यही कहती है और बुद्धिमानी भी इसी में है कि ऐसे कामों से पहले ही सावधान रहा जाए जो पतन के हेतु हो सकते हैं। पहले गिर लिया जाए और फिर उठने के लिये पुरुषार्थ करने की वीरता दिखलाई जाए-यह बात बुद्धि संगत नहीं मानी जा सकती? किन्तु खेद है कि अहंकार को आश्रय देने वाला व्यक्ति ऐसी ही उल्टी गतिविधि अपना लिया करता है। पाप और पतन से बचना है तो अहंकार का परित्याग करना ही होगा।

अहंकार का उपचार, उदारता और विनम्रता को माना गया है। इस विषय में मनुष्य परमात्मा को अपना आदर्श बना सकता है। परमात्मा से बढ़कर कोई शक्तिमान नहीं, उससे बढ़कर कोई ज्ञानवान और साधन संपन्न नहीं। उसके ऊपर न कोई अंकुश होता है और न प्रभु। उसे कोई पातक भी नहीं लगता। यह सर्वदा पुण्य एवं पावित्र्य समरूप है। उसका पतन भी नहीं होता है क्योंकि यह निर्विकारी भी है और अच्युत भी। उसे न उन्नति करने की आवश्यकता है और न बंधन मुक्त होने की क्योंकि वह सर्वोपरि है, सदा मुक्ति और बंधन रहित है। ऐसा सर्वसमर्थ और वे सर्वस्व पूर्ण परमात्मा जब रंच मात्र अहंकार वही करना तब उसका एक बिन्दु उसका मात्र प्रतिबिम्ब अहंकार करे, यह बात हर प्रकार से शोचनीय है। मनुष्य कुछ भी तो नहीं है। उस महाचेतन परमात्मा का एक स्पन्दन मात्र ही तो है।

ऐसा शक्तिवान और सर्वस्ववान परमात्मा कितना उदार है। वह अपने लिए कुछ भी तो संग्रह नहीं करता। यद्यपि उसके पास प्रकृति के भण्डार के भण्डार भरे हैं तथापि उसका एक अंश भी वह अपने लिए खर्च नहीं करता। उसके पास जो कुछ है वह सब लोक हित के लिये है। वह अपनी विभूतियों को सदा दूसरों के लिए वितरित करता रहता है। इसी से वह पूर्ण काल और सच्चिदानन्द बना हुआ है। आनन्द अपने लिए रखने में नहीं, दूसरों के हित में वितरित करते रहने में है, सच्चा संतोष संग्रह करने में नहीं बल्कि त्याग करने में मिलता है।

माना मनुष्य परमात्मा की तरह पूर्ण काम नहीं है, और न वह स्वतः सन्तुष्ट ही है। उसे अपने लिए भी कुछ चाहिए ही। किन्तु जब वह इस कुछ से सब कुछ पर पहुँच जाता है तभी विघ्न पैदा होने लगते हैं। मनुष्य संग्रह करता है किन्तु अहं को नष्ट करने के लिये केवल अपनी सम्पन्नता के लिए। यदि यही संग्रह वृत्ति ‘परोपकाराय’ भाव से पवित्र और महान बना ली जाए तो इसमें परमात्मा भाव का समावेश हो जाए। किन्तु खेद है कि मनुष्य का अहंकार उसे इस हद तक संकीर्ण बना देता है कि वह आदान-प्रदान के सहज सामान्य नियम को भी भुला देता है और अपने भण्डार भरता चला जाता है या ऐसी कामना पाल लेता है। मनुष्य की यही संकीर्णता उसे पतन के गर्त में गिरा देती है। यदि संग्रह में त्याग का भी भाव जुड़ा रहे और दोनों वृत्तियाँ एक सन्तुलित स्थिति में सक्रिय होती चलें तो मनुष्य का न तो लोक बिगड़े और न परलोक। वह दोनों जगह सुखी और सन्तुष्ट रहे। संकीर्णता का जन्म अहंकार से ही होता है। इसका त्याग सारे श्रेयों की संभावना निश्चित कर सकता है।

कहा गया है- ‘परोपकाराय सताँ विभूतयः’ सज्जन व्यक्तियों की धन सम्पदा परोपकार के लिए होती है। किन्तु इस नीति वाक्य को चरितार्थ तभी किया जा सकता है जब संग्रह और त्याग साथ-साथ चलते रहें। पुरुषार्थ और दान को एक साथ जोड़ दिया जाए। जो पुरुषार्थी न होगा, जो संग्रह न करेगा, वह विभूतिवान हो ही कैसे सकता है और जो संग्रह में त्याग का भाव न रखेगा वह अपनी विभूति को सार्थक किस प्रकार कर सकता है? मनुष्य पुरुषार्थ द्वारा धन संग्रह भी करे और उसे परोपकार, परमार्थ तथा लोक कल्याणार्थ त्याग भी करे तभी सज्जनता की उस परिधि में आ सकता है, उपर्युक्त वाक्य में इसी की ओर संकेत किया गया है। किन्तु अहंकार से दूषित व्यक्ति इस ‘सताँ’ का श्रेय नहीं पा सकता।

संग्रह एक गुण है, यदि वह लोक हित में व्यय करने के लिये किया गया है। संग्रह एक अवगुण है यदि वह अहंकार भाव से किया गया है। परमात्मा की इस लीला स्थली संसार में जो कुछ है, वह सबके लिए समान रूप से है। इसमें सबका अधिकार है। ऐसी बुद्धि रखने वाला व्यक्ति देवता के समान होता है। इसके विपरीत जो अहंकारवश संसार की सारी विभूति, सारी सम्पदाएं केवल अपने और अपनों के लिये चाहता है वह मनुष्य की कोटि से भी नीचे का प्राणी होता है। जैव स्थिति से पूर्ण मनुष्यता और मनुष्यता के देवत्व पर पहुँचने के लिये त्यागपूर्ण उदारता की बड़ी आवश्यकता है। और यह पवित्र वृत्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब अहंभाव का परित्याग कर दिया जाए।


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