ज्ञान शास्त्रार्थ से नहीं सेवा से सार्थक होता है-
काश्मीर में एक बड़े विद्वान रहते- नाम था केश्व भट्ट। धर्म के गूढ़ रहस्यों का भी वे इतना प्रतिपादन करते थे कि सुनने वाले मुग्ध हो जाते थे। लोगों की बड़ी इच्छा थी कि केवल भट्ट वहीं रहकर लोगों का आध्यात्मिक, धार्मिक शिक्षण और मार्गदर्शन करें पर केशव भट्ट को अपनी विद्या का अहंकार हो गया। अतएव वे सब धर्म छोड़कर शास्त्रार्थ दिग्विजय के लिये निकल पड़े।
केशव भट्ट को जहाँ कहीं पता चलता कि अमुक नगर में कोई विद्वान है वे उधर ही चल देते और वहाँ पहुँचते ही शास्त्रार्थ की ताल ठोक देते। कई लोगों ने सुझाया भी कि शास्त्रार्थ करने से अहंकार बढ़ता है, विद्वानों में व्यर्थ विवाद होते हैं, झगड़े और षड़यंत्र बढ़ते हैं। आपके ज्ञान की सार्थकता इस बात में है कि आप सभी विद्वानों को संगठित कर समाज सुधार और धर्म प्रसार का कार्य करें तो उससे कितने लोगों को प्रकाश मिले और अपनी जाति का गौरव भी बड़े पर अहंकार तो उस विषधर की तरह होता है जिसे न तो सीधी सच्ची बातें अच्छी लगती हैं, और न सीधे सरल लोग। उनकी शास्त्रार्थ वृत्ति गई नहीं।
इस तरह भ्रमण करते-करते एक बार वे बंगाल के नदिया जिले में पहुँचे। उन्होंने सुना कोई सात साल का गौराँग प्रभु नामक लड़का बड़ा ईश्वरभक्त है। लोगों ने बताया कि भक्त ही नहीं ईश्वर उपासना में गहन तल्लीनता के कारण उसमें इसी उम्र में आत्मिक और बौद्धिक प्रतिभा का विलक्षण विकास भी हो गया है। केवल भट्ट भला दूसरे की प्रशंसा कैसे सुनते, वे सीधे गौराँग के पास जाकर बोले-मुझसे शास्त्रार्थ करो।
विनीत शब्दों में चैतन्य महाप्रभु बोले- मान्यवर! मुझे आत्म-कल्याण की चिन्ता है शास्त्रार्थ मैं क्या जानूँ? हाँ यदि आप भगवान की कोई स्मृति सुना सकते हैं तो सुनाइये। केवल भट्ट ने एक स्तुति सुनाई जो उन्हीं की रची हुई थी। चैतन्य महाप्रभु ने उसमें कई अशुद्धियाँ निकाल दी तो केशव भट्ट अवाक् रह गये। उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और फिर कभी शास्त्रार्थ न करने का परामर्श भी मान लिया।