भगवान ने मनुष्य जीवन के रूप में असाधारण उपहार प्रदान किया है, तो साथ में यह उत्तरदायित्व भी सौंपा है कि इस विभूति का समुचित सदुपयोग किया जाए।
दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है। धन-वैभव तक अनेकों ऐसी दुष्प्रवृतियाँ सिखा देता है जो न केवल स्वयं के विदा होने का, अपितु साथ में स्वास्थ्य, संतुलन, यश और सहयोग भी छिन जाने का निमित्त कारण बनती हैं।
जीवनधारी के लिए सबसे बड़ा सुयोग यह है कि वह मनुष्य जन्म प्राप्त कर सके। इनमें भी भाग्यवान वे हैं, जो उसका सदुपयोग जानते और कर पाते हैं। पेट भर लेने और इंद्रिय भोगों की सुविधा हर योनि में हैं। जिसका जैसा आकार और स्वरूप है, उसे उस स्तर की सुविधाएँ, सुख-संवेदनाएँ प्राप्त करने का अवसर भी है। यदि इतना ही बन पड़ा तो समझना चाहिए कि मनुष्य जीवन की गरिमा को समझने में भूल हुई है और दिन उसी प्रकार कट गए जैसे कि अन्य प्राणी काट लेते हैं।
मानव जीवन की विशेषता यह है कि वह अपने अंतःकरण को—व्यक्तित्व को समुन्नत करे और ऐसे पद चिन्ह छोड़े, जिन पर चलते हुए पीछे वालों को प्रगति के परम लक्ष्य तक पहुँचने की सुविधाएँ मिलें। संक्षेप में यही मानवी आदर्शवादिता हैं। जिसे अपनाने पर इस सुयोग की सार्थकता बन पड़ती हैं।