शोपेन हाॅवर- जर्मनी का ब्रह्मवेत्ता

March 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अहंकार उन दिनों आसमान छू रहा था। नाम तो उसे स्वाभिमान का दिया जाता है, पर था वह औद्धत्य। नम्रता और शालीनता की सभी परिधियों को तोड़कर अपने को सर्वोपरि सिद्ध करने के लिए इस बात की होड़ लगी हुई थी कि किसने कितनों को पीछे धकेला और पछाड़ा। शासन के क्षेत्र में काम करनेवाले सैनिक भी बड़े अफसरों का रौब दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर क्रूरता का परिचय देते थे। मालिकों का स्वार्थ साधने के अतिरिक्त अपनी भी चौथ बटोरते थे। शासन का पर्याय-वाचक ही अत्याचार बन रहा था।

शासन के संपर्क में आनेवाले वरिष्ठ प्रजाजनों ने भी सत्ताधारियों का ही अनुसरण आरंभ कर दिया था। वे व्यापारी अपने ग्राहकों, श्रमिकों को शोषण करते—मनमाना मुनाफा कमाते और भारी ब्याज लेते। उनके यहाँ जेवर बर्तन ही गिरवी नहीं रखे जाते थे, वरन् युवा नर नारियों को भी इच्छानुसार बरतने के लिए पैसे के बदले गिरवी रख दिया जाता था।

सामान्यजनों में भी यही प्रवृत्ति पनप रही थी कि वे अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ाएँ और अधिक सफल संपन्न बनने के लिए जो चाहें सो रास्ता अपनाएँ, चाहे वह अनीति का ही क्यों न हो?

समय का दर्शन ही ऐसा कुछ बन गया था कि साथियों की तुलना में अपने को विशिष्ट सिद्ध करने के लिए ऐसा कुछ कर दिखाया जाए  जिससे उनकी बलिष्ठता, प्रतिभा और महत्ता सिद्ध होती हो। यह विचार दर्शन प्रचलन बन गया था। इसमें दया, करुणा, सेवा, सहानुभूति के लिए स्थान न था। उपभोग और संचय ही प्रतिभा और सफलता के प्रमाण माने जाते थे। इस कुचक्र में दुर्बलों, पिछड़ों को बुरी तरह पिसना पड़ रहा था। विचारशील कहे जाने वाले दार्शनिकों, पुरोहितों ने भी हवा का रुख देखकर उसी के साथ चलने में अपनी भलाई और कमाई देखी। वे भी समर्थों का समर्थन करने लगे।

ऐसे समय में यूरोप के क्षेत्र में एक नया सितारा उदय हुआ—जर्मनी का शोपेनहाॅवर। वह अठारहवीं सदी के अंत में जन्मा। निर्धन वर्ग में जन्मने के कारण उसे बचपन से ही समर्थों के शोषण, उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ा। किशोरावस्था पार करते-करते उसने अपनी पैनी दृष्टि दूर-दूर तक फेंकी और देखा कि संव्याप्त अनाचार के पीछे भ्रष्ट दर्शन की प्रेरणा किस प्रकार अपना प्रभाव छोड़ रही है। उसने विष वृक्ष की टहनियाँ तोड़ने पर श्रम नहीं किया, वरन् जड़ों पर कुल्हाड़ा चलाया।

उसने अधिक पढ़ने और अधिक कमाने का विचार मन में से पूरी तरह निकाल दिया। विश्व दर्शन के सभी पक्षों के अध्ययन को उसने अपना प्रिय विषय बनाया। इस समुद्र मंथन से उसने पाया कि भारतीय धर्म दर्शन ही मात्र ऐसा है जो मनुष्य को संयम बरतने, नम्रता अपनाने, सज्जनोचित निर्वाह करने और सेवा साधना में संलिप्त रहने की शिक्षा देता है। अधिक रुचि बढ़ी तो अधिक गहरा अध्ययन किया। उपनिषद् उसे अधिक प्रिय लगे। उनमें वह तत्त्व पाया जो मनुष्य की लिप्सा, अहंता, विलासिता एवं तृष्णा पर कुठाराघात करता है। उसकी सर्जना और शिक्षा में वे तत्त्व थे जो मानवी गरिमा के सूक्ष्म संकेतों को मुखर एवं कार्यान्वित करने में कारगर रूप से अपना पक्ष प्रतिपादित करते थे।

शोपेन हाॅवर ने भारतीय उपनिषदों का गहरा अध्ययन किया और उसके सार तत्त्व को, विभिन्न वर्गों के गले उतारने योग्य इस प्रकार निरूपित किया कि समाज का प्रत्येक वर्ग अपनी विचार सारिणी और कार्यपद्धति की यथार्थवादी समीक्षा कर सके। उसमें आवश्यक हेर-फेर सुधार कर सके। पुरातन के स्थान पर नवीन की स्थापना कर सके। उसने अपने प्रतिपादन को वाणी से प्रसारित करने में कोई कमी नहीं रहने दी और इतना लिखा, जिससे जनसमुदाय के व्यापक अविचारों को नए सिरे से समीक्षा करने का अवसर मिल सके। उसने अपने जीवन को पूरी तरह इसी मिशन के लिए समर्पित कर दिया।

शोपेन हाॅवर अपनी विधवा माता का इकलौता पुत्र था। वह संपन्न भी थी और विलासपूर्ण जीवन की पक्षपाती भी। उसकी कार्य पद्धति समय के साथ चलती थी। बेटे को भी अपने साथ चलने और वही रीति-नीति अपनाने के लिए समझाया। पर उस पर भारतीय निवृत्ति मार्ग का रंग चढ़ चुका था। निजी जीवन में आदर्शों का समावेश किए बिना कोई लोक मानस को आदर्शों की ओर मोड़ नहीं सकता। यह तथ्य उसकी स्वीकृत मान्यता का अंग बन चुका था। वह अपनी माता से अलग हो गया। एक सस्ते होटल में छोटी कोठरी किराए पर लेकर उसमें रहने और गुजारा करने लगा। जन संपर्क के लिए जितना समय आवश्यक था उतने समय बाहर रहता और लौटकर फिर कोठरी में बैठ जाता। रात्रि का आधा भाग उसने सोने के लिए और आधा पढ़ने-लिखने के लिए सुरक्षित कर लिया। जिस समय होटल में तरह-तरह की रंग रैलियाँ चलती रहतीं, उस समय वह विचारों में डूबा रहता और सोचता रहता कि प्रचलित अहम्मन्यता को किस प्रकार सज्जनता की राह पर मोड़ा जाए? जो उसे सूझता उसे निर्भीकतापूर्वक व्यक्त और अंकित करता।

शोपेन हाॅवर के विचार चौंकाने वाले थे, प्रचलन प्रवाह के विपरीत भी। उसने समर्थों की गतिविधियों की धज्जियाँ उड़ाईं। इस प्रतिपादन को सुनने और छपने में सहयोग देने के लिए कोई तैयार नहीं होता था। इसलिए उसकी आजीविका भी स्वल्प थी। इतने में ही उसे गुजारा चलाना पड़ता था। पर पीछे खरी सुनने वालों का भी एक वर्ग उभरा। उसने इन सुधारवादी संघर्षमूलक विचारधारा को प्रश्रय देने और दिलाने का प्रयत्न किया। फलतः उस प्रकार का भी एक वर्ग विकसित हुआ जो उस विचारधारा का समर्थन ही नहीं, सहयोग भी करता था। उसके ग्रंथ प्रकाशित ही नहीं हुए, बड़ी मात्रा में लोकप्रिय भी हुए। उत्साह बढ़ा तो उसने एक के बाद दूसरा ग्रंथ लिखा और समय का प्रवाह उलटने के लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि पर भरसक प्रयत्न किया, जिसमें लगे हाथों सफलता भी मिलने लगी। शोपेन हाॅवर के जीवन में ही योरोप में एक वर्ग ऐसा उत्पन्न हो गया था जो शासन और समाज में संव्याप्त सामंतवाद का खुले आम विरोध करने लगा। इतना ही नहीं, इन अनुयाइयों ने अपने निज के जीवन में भी इस प्रकार के आदर्शवादी परिवर्तन किए, जिससे सिद्ध हो सके कि उनकी मान्यता मात्र बौद्धिक ही नहीं है, वरन् गहराई तक उतर कर जीवन विद्या में भी प्रवेश करने लगी है।

शोपेन हाॅवर का प्रख्यात ग्रंथ 'द वर्ल्ड एज विल एण्ड आइडिया'  जब प्रकाशित हुआ तो सुधारवादी भावनाशील क्षेत्र में उसकी धूम मच गई। उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और कोटि-कोटि लोगों ने उसे चावपूर्वक पढ़ा। जिनने उन विचारों पर गौर किया, उन्हें समय की प्रवंचना पर आक्रोश भी उपजा और सुधार परिवर्तन के लिए कुछ कर गुजरने का उत्साह उभरा। छुटपुट स्थानीय संघर्ष उन्हीं दिनों उभरने लगे थे। शासकों और शासितों के बीच विरोध उभरा और उसने संघर्ष का रूप धारण करना आरंभ किया। समीक्षक कहते हैं कि एक समर्थ प्रवाह को मोड़ने और उसके विरुद्ध जन मानस को संघर्ष के लिए अड़ा देने का कार्य, शोपेन हाॅवर के प्रयासों से ही, अपनी नींव मजबूत कर सका। जिनके कारण बाद में कई बड़ी राजनैतिक और सामाजिक क्रांतियाँ संभव हुईं।

शोपेन हाॅवर ने पूरी जिंदगी उसी छोटी कोठरी में सच्चे संत की तरह व्यतीत की। वह आजीवन अविवाहित रहा। समय और चिंतन का एक-एक कण वह  अपने मिशन के लिए विसर्जित करता रहा। मरा तब उसके हाथ में  लेखनी और सिरहाने पुस्तकों का बड़ा सा ढेर था। यही थी उसकी संपदा, जिसे मरते समय मित्रों के लिए सौगात रूप में छोड़ा।

विलास के स्थान पर संयम की, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य की प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति की शिक्षा का प्रतीक शोपेन हाॅवर का चिंतन और जीवन। उसने अपने समय के समाज को पूरी तरह झकझोरा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118