मनुष्य भी ज्वालामुखी की तरह फूटता है।

March 1987

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पृथ्वी पर जो हलचलों होती रहती हैं उन्हें हम आँखों से दूरबीन से देख लेते हैं। ताप, शब्द और रेडियो तरंगों से भी पृथ्वी की ऊपरी परत एवं कुछ दूर तक ऊपरी परत एवं कुछ दूर तक ऊँचाई की भी हलचल विदित होती रहती है। पर यह नहीं सोचना चाहिए कि अपनी धरती नितान्त ठोस है और उसके भीतर कोई हलचल नहीं होती। भीतर भी गरम हाँड़ी पकती रहती हैं।

पृथ्वी पर 71 प्रतिशत पानी है। शेष को थल कह सकते हैं। अन्तरिक्ष में गैसों का भण्डार है। उनकी कई चित्र विचित्र परतें भी हैं। उनकी सघनता भी कम नहीं। ब्रह्माण्ड से बरसने वाली उल्काएँ उन्हीं सघन परतों से टकराती और जलकर खाक होती होती रहती हैं। उनकी खाक पृथ्वी की परत तक आ पहुँचती है। कुछ अधजले उल्का खण्ड भी। इस प्रकार प्रतिदिन पृथ्वी में बोझ प्रायः 300 टन अधिक बढ़ता जाता है। यह बोझ तथा प्राणियों की बढ़ोत्तरी मिलकर इस बोझ को और भी अधिक बढ़ा देती है। परिणाम यह होता है कि धरती का भीतरी दबाव दिन-दिन बढ़ता जाता हैं।

पृथ्वी की ऊपरी परत ठंडी है। वह धूप के तापमान से गरम ठंडी भी होती रहती है। पर उसके गर्भ में पिघले हुए लोहे जैसी स्थिति है। जितने हम भीतर उतरते हैं उतना ही उसे गरम पाते हैं। इस गरमी को नियंत्रण में रखने के लिए समुद्री पानी पहुँच कर कुछ सहायता करता रहता है तो भी अस्थिरता बनी ही रहती है और उसके गर्भ में आश्चर्यजनक हलचलें चलती रहती हैं। वे कभी-कभी अनियंत्रित भी हो जाती हैं और अपने सीमा बंधनों को तोड़कर फव्वारे की तरह उछल पड़ती हैं। इसी स्थिति में ज्वालामुखी फटते हैं, भूकम्प आते हैं और चक्रवात तूफान मचलने लगते हैं।

पृथ्वी की ऊपरी सतह मिट्टी, रेत, चट्टान, पहाड़ आदि की बनी है पर उसके साथ ही खनिज भी मिले हुए हैं। लोहा, ताँबा धातुएँ मनुष्य द्वारा निरन्तर खोदी जाती हैं, तेल भी निकाला जाता है। इस कारण ठोसपन घटता और पोल बढ़ती है। मिट्टी में मिले हुए क्षार भी नदियों तथा वर्षा के जल के साथ समुद्र में पहुँचते रहते हैं। इसलिए भी पृथ्वी की मजबूती घटती और पोलापन बढ़ता है। भीतर आग और समुद्र का भारीपन बढ़ने से दबाव का अनुपात बढ़ता ही जाता है। पिलपिले आम पर यदि दबाव पड़े तो उसका रस छिलका फाड़ कर ऊपर उछल जाता है और जिस ओर भी जगह मिलती है उसी ओर छितराता है। यही हाल पृथ्वी का भी है। चारों और से बढ़ता दबाव और भीतर का खोखलापन मिलकर ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं, जिससे ज्वालामुखी, भूकम्प, तूफान जैसे कितने ही उपद्रव उठ खड़े होते हैं। फलतः न केवल धरती का सामान्य स्वरूप ही ऊबड़-खाबड़ होता है वरन् प्राणियों के लिए असाधारण असुविधाएँ भी सामने आ खड़ी होती हैं।

इण्डोनेशिया के काका डोडग क्षेत्र में एक भयानक ज्वालामुखी सन् 1883 में फटा उसका धमाका 30000 मील तक सुना गया। द्वीप समूल नष्ट हो गया। इस विस्फोट ने जावा, सुमात्रा के समुद्र में 135 फुट ऊँची लहरें उठाईं और उनकी चपेट में जो भी तटवर्ती नगर एवं समुद्री टापू आये वे सभी उदरस्थ होते चले गये। इन लहरों ने जापान से लेकर आस्ट्रेलिया तक को बुरी तरह प्रभावित किया। तूफानों ने समस्त संसार को प्रभावित किया। सन् 1960 के तूफान ने बंगाल की खाड़ी को कोई आठ बार झकझोरा। जिसमें चार लक्ष मनुष्य मारे गये। चटगाँव में नवम्बर 1974 में जो तूफान आया उसमें तीन लाख आदमी मरे।

1967 में महाराष्ट्र का अंधड़ तूफान भी ऐसा भयंकर था। असम में 1890 औ 1950 में दो ऐसे भूकम्प आये जिनमें लाखों की जान गई और अरबों की सम्पदा नष्ट हुई।

ज्वालामुखियों, भूकम्पों, तूफानी चक्रवातों का इतिहास बड़ा विलक्षण है। वे कब, कहाँ फट पड़े इसका कुछ पूर्व अनुमान नहीं होता है? पर मोटा कारण यह समझा जाता है कि ऊपरी परत पर दबाव बढ़ता और भीतरी खोखलेपन की स्थिति बनते जाना ही इसका प्रधान कारण है। पृथ्वी पर जनसंख्या न बढ़े और उसके कारण भूमिगत संपदाओं का इतना दोहन न करना पड़े तो संभवतः जल्दी-जल्दी इतने भारी और इतने भयंकर विस्फोटों का सिलसिला न चले और कमाने की तुलना में कहीं अधिक गँवाने का संकट सामने खड़ा न हो।

मनुष्य शरीर और जीवन में भी ऐसे छोटे बड़े संकट आते रहते हैं। इसका कारण साँसारिक बोझों से लद जाना और भीतरी विशेषताओं को खोते चले जाना है। क्षय रोग प्रायः इसी कारण से उपजता और बढ़ता है। शरीर को अतिशय श्रम करना पड़े। मस्तिष्क पर चिन्ताओं तक उद्वेगों का भार लदा रहे तो दुहरे दबाव से फेफड़ों या आँतों में जख्म हो जाते हैं और उनमें होकर जीवन तत्व बाहर निकलने लगता हैं। समझना चाहिए कि भूकम्प से पड़ने वाली दरारें भीतर से फूटती और बाहर उनका उपद्रव कई प्रकार के कहर ढाता दीखता है।

भीतरी ऊर्जा को संतुलित बने रहने की स्थिति जब तक सही बनी रहती है, तब तक व्यक्तित्व सामान्य रहता है। पर जब संतुलन में अवाँछनीय क्षति पहुँचती या चोट लगती है तो उसी घुटन को बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ना पड़ता है। यह कभी-कभी उद्दण्डता का रूप धारण कर लेती हैं और भयंकर उत्पात मचाती है। इसे ज्वालामुखी के समतुल्य समझा जा सकता है।

व्यक्ति गड़बड़ाता है तो अपने आपको क्षति पहुँचाने तक सीमित नहीं रहता, वरन् दूर-दूर तक के वातावरण को बिगाड़ता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और ज्वार-भाटे एक दूसरे को धकेलते हुए उस श्रृंखला को लम्बी घसीट ले जाते हैं। यही तूफान है जो पृथ्वी के अन्तराल से उफनते हैं। वातावरण पर छा जाते हैं और चक्रवात बनकर अन्तरिक्ष में ऊँचाई तक उफनते चले जाते हैं।

ज्वाला मुखी विस्फोटों से गरम और जहरीला लावा निकलता है। वह समीपवर्ती भूमि को जलाता है और आकाश धुएँ से भर देता है। धुँआ जब नीचे उतरता है तो उसकी परत जमीन पर जम जाती है और उगी हुयी वनस्पतियों को भारी हानि पहुँचाती है। क्रोध जब भीतर से उबलता है तो उसका प्रत्यक्ष स्वरूप विस्फोट से कम नहीं होता। मुँह से असंस्कृत शब्द निकलते हैं और ऐसा व्यवहार बन पड़ता है, जिसे आक्रमण भी कहा जाता है और आत्मघात भी। मुँह ज्वाला उगलता है और उससे समूचे वातावरण में विक्षोभ भर जाता है।

सामान्य सन्तुलित स्थिति ही श्रेयस्कर हैं। उसे सही बनाये रहने के लिए संयम बरतने की आवश्यकता है। संयम की शीतलता, शान्ति और स्थिरता में बनी रहती हैं। उद्धत आचरणों की प्रतिक्रिया न चैन से बैठती है और न बैठने देती है। दबा हुआ आक्रोश और असंयम देर सवेर में विस्फोट बनकर फूटता है और ज्वालामुखी, भूकम्प और तूफान जैसे उपद्रव खड़े करता हैं।


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