एक दुरात्मा था। नित्य महात्मा के पास जाता और पूछता-दुष्टता का स्वभाव कैसे छूटे?
महात्मा टालते रहे। एक दिन उनने उसकी हस्त रेखा देखी और विश्वास दिलाया, अब तुम्हारा अन्त आ गया। एक महीने से अधिक जीना न हो सकेगा। दुरात्मा चिन्ता में डूब गया। एक महीना दुःख, भय, पश्चाताप और भजन में लगा रहा। भविष्य में होने वाली दुर्गति ही मस्तिष्क पर छाई रही।
एक महीने में एक दिन शेष रहा तो महात्मा ने उसे फिर बुलाया और पूछा - इस महीने कितनी बार दुष्टता हुई? कितने पाप बने? उत्तर मिला- एक बार भी नहीं - एक भी नहीं। चित्त पर तो हर समय मृत्यु भय ही छाया रहा।
पाप की इच्छा ही कैसे उठती? महात्मा हँस पड़े। पाप से बचने का एक ही उपाय है कि हर घड़ी मृत्यु को याद रखो और वह करने की सोचो जिससे भविष्य उज्ज्वल बने। मृत्यु के टल जाने का अभयदान पाकर दुरात्मा चला गया और मृत्यु का स्मरण प्रगाढ़ होते ही महात्मा बन गया।