विलाप किस बात का

March 1987

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हाय! सब कुछ चला गया, संचित निधि हाथ से निकल गई। भारी घाटा सहना पड़ा। उस अभाव के नीचे किस तरह दिन कटेंगे? ऐसा ही कुछ प्रलाप करता है मनुष्य, जब उसके किसी संबंधी का निधन हो जाता है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल पड़ जाती हैं। घाटा लग जाता है, चोरी हो जाती है। यह अपना शरीर मृत्यु की ओर तेजी से दौड़ने लगता है। समझता है कि भारी क्षति उठानी पड़ी। अब इस स्थिति में किस प्रकार निर्वाह हो सकेगा? कैसे शेष दिन कटेंगे? विपत्ति की स्थिति को कैसे सहा जाएगा?

न्यूनाधिक मात्रा में ऐसी परिस्थितियों का सामना हम में से अधिकांश को किसी न किसी समय करना पड़ता है। यह सृष्टि का नियम भी है। चमकता और ऊष्मा बखेरता दिनमान सदा नहीं रहता। संध्या होते ही इतना सघन अंधकार छाने लगता है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता। सृष्टि का सारा सौंदर्य एक काली चादर के नीचे ढँक जाता है। फुर्तीले शरीर को नींद आने लगती है और जीवित रहते हुए अर्ध-मृतक जैसी स्थिति में जा पड़ना पड़ता है। लम्बी रात किसी प्रकार बीतती है और फिर कुछ समय बाद ब्रह्म मुहूर्त आता है। ऊषाकाल प्रकट होता है और अरुणोदय के उपरांत वही सिलसिला चल पड़ता है जैसा कि पिछले कल था।

सागर में ज्वार-भाटे आते हैं। पानी ऊँचा उठता और नीचे गिरता रहता है। झूला-झूलते समय भी एक जैसी स्थिति नहीं रहती। कभी आगे बढ़ना पड़ता है, कभी पीछे हटना। समय भी सदा किसी का ऐसा नहीं रहता जिसे एकरस कहा जा सकता हैं। जब यहाँ आकाश के ग्रह तारक और धूलि कण के अणु परमाणु निरंतर गतिशील रहते हैं, तो यह आशा करना व्यर्थ है कि मनुष्य की एक जैसी स्थिति में ही समूची जिंदगी कट जाएगी, उसमें व्यवधान न आवेंगे। लोग इच्छानुकूल ही व्यवहार करेंगे और साधनों का जो समुच्चय अभी हाथ में है, वह सदा सर्वदा बना ही रहेगा। परिवर्तन इस सृष्टि का नियम भी है, परंपरा और व्यवस्था का अंग भी। इसे चाहते हुए भी बदला नहीं जा सकता, इसके लिए रुदन करना व्यर्थ है। उचित यही है कि परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाना सीखें। मन को वस्तुस्थिति समझाएँ और अपना दृष्टिकोण ऐसा मजबूत बनाएँ जो बदलती परिस्थितियों में भी अपना संतुलन न डगमगाए। खिन्न और विपन्न न हों।

यह जीवन तो एक धर्मशाला है, होटल के समान है, जिसमें साज सज्जा के कीमती सुविधा साधन भी भरे पड़े हैं, पर उसमें ठहरना उतने ही समय होता है जितने का कि अनुबंध है। इसके उपरांत बिस्तर गोल करके सड़क पर जा खड़ा होना है। हसरत भरी निगाहों से मुड़-मुड़कर देखा तो जा सकता है, पर उसमें प्रवेश तब तक नहीं मिलता, जब तक नया शुल्क जमा न किया जाए। वह भी थोड़े ही समय के लिए होता है। होटल पर उसके कर्मचारियों अथवा सुविधा साधनों पर आधिपत्य जमाने का आधार नहीं बनता। यह संसार ठीक ऐसे ही होटल की तरह है जिसकी मालिकी किसी दूसरे की है। उसमें नियत समय तक सुविधाएँ प्राप्त करते रहने भर का ही अधिकार है। इस तथ्य को जो नहीं समझते वे ही संसार की वस्तुओं पर कब्जा जमाते हैं और छिनने पर रोते कलपते हैं।

बच्चे एक खिलौने से खेलते-खेलते ऊब जाते हैं। अस्तु अभिभावक उनके लिए विभिन्न आकृति प्रकृति के खिलौने लेकर देते और बच्चे का मन बहलाते हैं। सृष्टा भी ऐसा ही करता रहता है। वह मनुष्यों को विभिन्न प्रकार के साधन एवं अवसर देता रहता है, पर यह आवश्यक नहीं कि वे सदा सर्वदा यथावत् यथास्थान बने ही रहें। जब सरकारी नौकरों तक का स्थानांतरण होता रहता है तो मनुष्य ही सदा एक जैसी परिस्थितियों में किस प्रकार बना रह सकता हैं।

ऋतुएँ आती हैं चली जाती हैं। जो आगमन पर प्रसन्न होता है परिवर्तन का आनंद लेता है वही विचारशील है। जो मौसम को बदलता देखकर हैरान होता है,  उसे प्रसन्नता कम और अप्रसन्नता अधिक होती है। पौधों पर फूल आते हैं, फल बनते हैं और फिर वे नीचे गिर जाते हैं। इस क्रम में परिवर्तन कैसे हो? फूल सदा खिला हुआ ही कैसे बना रहे, उसे परिवर्तन क्रम में होकर गुजरना और निरंतर बदलते रहना पड़ता है। इस बदलाव के साथ उसके प्रशंसक और मित्र भी बदल जाते हैं। फूल के कुम्हला जाने पर न तितलियाँ पास फटकती हैं और न मधुमक्खियाँ दिन भर साथ रहने का क्रम जारी रखती हैं। भौंरे गीत सुनाना बंद कर देते हैं। यह प्रकृति का स्वाभाविक क्रम है। मीठे का ही नहीं नमक-मिर्च का स्वाद भी उसे चखना पड़ता है। इसके बिना दावत कैसी? प्रीति भोजों में षट्–रस व्यंजन परोसे जाते हैं। उनके स्वाद एक दूसरे से पृथक होते हैं?इस भिन्नता के बिना रसोई का रसास्वादन कहाँ मिलता है? जीवन की सरसता अनेक परिवर्तनों के साथ ही जुड़ी है। यात्री पर्यटन के लिए निकलता है तो उसे मार्ग में अनेक सुहावने, डरावने दृश्य देखने को मिलते हैं। यदि एक ही दृश्य से संतुष्ट रहना है तो घर की किसी कोठरी में पड़े-पड़े समय गुजारा जा सकता है।

जन्म के समय हम कुछ भी साथ नहीं लेकर आते। दोनों ही स्थितियों में खाली हाथ होते हैं। नंगे बदन भी। जब आने के समय कुछ साथ लेकर नहीं आए तो जाते समय कोई क्या कुछ साथ ले जाने देगा? विदाई के समय चोरों जैसी तलाशी ली जाती है। खीसे में कुछ है तो नहीं, यह टटोल लिया जाता है। शरीर पर कोई आभूषण रहा हो तो उसे भी उतार लिया जाता है। इसमें दुःख मानने की बात ही क्या है? जो कुछ पास में था सब इसी विश्व-वसुधा का उपार्जन था, है और रहेगा। इसका दृश्य देखने, स्वाद चखने भर का अधिकार है। किसी वस्तु पर अधिकार जमाने का मतलब है कि स्रष्टा के बिखरे वैभव पर कब्जा जमाना। यह अनाधिकार चेष्टा चलती नहीं रह सकती। विश्व वैभव का स्वामित्व स्रष्टा का ही है। इस पर अपना हक सिद्ध करना किसी भी प्रकार न्यायानुकूल नहीं है। जो अनुचित है, असंभव है, उसके लिए हाथ पैर पीटना अपने आप को ही आहत करना और उपहासास्पद बनाना है। ऐसी अनधिकार चेष्टा अनाड़ी ही करते हैं। विज्ञजन न ऐसा सोचते हैं और न ऐसा करते ही हैं। वे परिवर्तनों को परिवर्तन ही मानते हैं, उनके कारण उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ रही है, उनके कारण उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ रही है ऐसा नहीं सोचते।

शरीर भी साथ आता तो है, पर साथ जाता नहीं। जिसे साथ लेकर आए थे वही जब इसी दुनिया में रहना चाहता है अन्यत्र नहीं जाना चाहता तो परलोक के लिए साधनों संबंधियों का साथ रहने की कल्पना करना व्यर्थ है। यह संसार सदा से एक सुहावने मेले की तरह सज-धज कर लगा हुआ है। यह अपने स्थान पर रहता है। मात्र दर्शक ही आवागमन की धूम मचाए रहते है। प्रदर्शनी इसलिए लगती है कि दर्शक उसे देखें और ज्ञान तथा आनंद उपलब्ध करें। इतने से ही उन्हें संतोष करना पड़ता है। जो उस सज्जा पर मोहित होकर बटोर ले चलने की कुचेष्टा करता है उसे सुरक्षा अधिकारी आड़े हाथों लेते हैं और जो न करना चाहिए उसे नहीं ही करने देते।

शरीर जब बचपन से किशोर बना था तब बुरा नहीं बनाया गया। जब युवक से प्रौढ़ और प्रौढ़ से वृद्ध होता है तो खीजने की क्या आवश्यकता? फटा पुराना कपड़ा उतारकर जब नया वस्त्र धारण करते हैं तो शोक कहाँ मनाया जाता है, मरने में दुःख किस बात का?


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