भटकते न फिरें, ध्रुव के साथ जुड़ें

March 1987

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रेत के उड़ते कण हवा के साथ अस्त-व्यस्त उड़ते रहते हैं। उनका कहीं घर ठिकाना नहीं होता न वे कहीं आश्रय विश्राम पाते हैं। अनादि काल से अनन्त काल तक ऐसे ही भटकते रहते हैं। पानी पड़ने पर कीचड़ बने और ग्रीष्म में चक्रवातों के साथ उछलते कुदकते रहते हैं। शीत उनके ऊपर बनकर लद जाता है। इस प्रकार पराश्रित अनाश्रित स्थिति में निरुद्देश्य रेत कणों का जीवन बीतता है। वे न किसी के होते हैं और न कोई उनका होता हैं। जहाँ कुछ क्षण विरमने का अवसर मिला वहाँ मकड़ी जैसा मोह जाल बुनने लगते हैं।

जिनका इस क्षण साथ था अगले क्षण उनका साथ रहेगा, इसका कोई भरोसा नहीं। किसी को साथी सहयोगी बनाया जाय तो वह भी तो ठीक तरह नहीं बन पड़ता। नियति अपनी ही तरह दूसरों की भी हैं। वे भी अपनी राह चलते और कर्म भोग भोगते रहते हैं। कोई चाह कर भी किसी रेत कण के साथ देर तक जुड़ा नहीं रह सकता है। मिलन संयोग होता है। मिलन एक अवसर है और विछोह सतत् प्रवाह। पानी बूँद बादल से बरसते समय एक दूसरे की साथी सहचरी भी हो सकती है। पर जमीन पर गिरने के उपरान्त उनमें से किस की क्या नियति होगी इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता।

वर्षा की बूँदें जमीन पर पड़ने के उपरान्त किधर चल पड़े, इस सम्बन्ध में कौन क्या कहे? हो सकता है कि वह नाले नालियों का चक्कर काटती हुई समुद्र में जा पहुँचे। यह भी हो सकता है कि वह उसी खेत में उगते हुए पौधों के शरीर में प्रवेश करके हरीतिमा जैसी लहलहाती दिखाई पड़े और पकने सूखने पर भाप बनकर आकाश की और चल पड़े और ओस कणों के रूप में नया रूप धारण करे और दिन में भात रात में ओस बनते रहने की चक्र परिक्रमा करती रहे। बादलों से बरसते समय तो उस बिन्दु परिकर में निकटता घनिष्ठता थी वह कितने मय मिली जुली रही और फिर पीछे उनकी अपनी नियति किसी स्थिति में किस प्रकार कहाँ भ्रमाती रही इसका लेखा-जोखा लिया जा सकना असम्भव हैं। इस संसार में असंख्यों प्राणी अगणित संख्या में बसते हैं। उन पर दृष्टि दौड़ा सकना अपनी बौद्धिक सीमा से बाहर होगा, पर मनुष्य को तो गिना भी जा सकता है। वे इन दिनों इस धरती पर पाँच सौ करोड़ के करीब हैं। इन में से कई एक घर परिवार में जन्मते और छोटी बड़ी आयु के होते हुए भी मिल जुल कर रहते हैं। तब प्रतीत होता है कि यही हमारा परिवार है। इन्हीं को साथी सहयोगी समझा जाता हैं किन्तु नियति को संयोग कहाँ सुहाता है। वह वियोग का ही ताना बाना बुनती रहती है।

कुछ दिन भी सहचरत्व टिक नहीं पाता कि वियोग का क्रम चल पड़ता है। लड़कियाँ बड़ी होकर ब्याही जातीं और किसी दूसरे का घर बसाती हैं। लड़के कॉलेज पढ़ने चले जाते हैं और नौकरी के फेर में अदलते बदलते कहीं से कहीं पहुँचते हैं। बूढ़े मर जाते हैं। युवाओं को व्यवसाय के संदर्भ में डेरा उठा कर कहीं से कहीं डालना पड़ता है। कभी जिस परिवार के सदस्य स्थिर और एक जगह थे, वे समय के साथ अपना प्रवाह क्रम बदलते हैं और कहीं जा पहुँचते हैं।

हम भी मक्खी मच्छरों जैसी नियति साथ लेकर जन्मे हैं। वे हवा के साथ उड़ते और जहाँ भी भोजन विश्राम का अवसर पाते हैं वहीं विरम जाते हैं। फिर उस विश्राम में भी चैन कहाँ? स्थिरता कहाँ? परिस्थितियाँ आगे धकेलती हैं। कोई किसी राह जाता है कोई किसी रास्ते। यात्रा पथ के पथिकों में से कितने ही आगे निकल जाते हैं और कितने ही पीछे छूट जाते हैं।

जीवन अवधि स्वल्प हैं। ढर्रे की आदतें दिन रात की तरह अपनी चर्खी पर घूमती रहती हैं और जितने दिन जीना था वे एक-एक करके निपटते जाते हैं। छेद वाले घड़े की तलजी में से वह सारा पानी रिस जाता है जिसमें आरम्भ में घड़ा भरा हुआ था। एक-एक बूँद करके समूची सम्पदा समाप्त हो जाती है और खाली फूटे घड़े को उठाकर किसी कूड़े वाले के ढेर पर फेंक दिया जाता है। यही होती है हमारी भी दशा। जब अपना ही कहीं कोई ठिकाना नहीं तो दूसरों के बारे में क्या कहा जाय कि कौन कितने समय साथ रहेगा? किसका साथ देगा और बिछुड़ते ही कहाँ से कहाँ से जायेगा?

मोह किस से किया जाय? कब तक किया जाय? किसकी प्रतीक्षा में ठहरा जाय? किसे अपना, किसे विराना कहा जाय? किसके मिलने पर मोद मनाया जाय और किसके बिछुड़ने पर रुदन किया जाय। यह मुसाफिर खाना है। नये यात्री आते और पुराने जाते रहते हैं। आवागमन का मेला यहाँ लगा ही रहता है।

यह दुनिया एक नाट्यशाला है इसमें तरह-तरह की पोशाकें पहन कर तरह-तरह के मुखौटे लगाकर अनेक नट आते रहते हैं। अपना निर्धारित कार्य करते और फिर वापस चले जाते हैं। वापसी बहुत देर की नहीं होती। कुछ ही क्षण उपरान्त उन्हें नये पार्ट की तैयारी करनी पड़ती है। पिछला पर्दा बन्द होता है। नया आरम्भ होता है। पुराने नट नई पारी में नई शैली अपनाते और नये संवाद व्यक्त करते हैं। कुछ घंटे यह खेल चलता रहता है इसके बाद सारा सरंजाम समाप्त हो जाता हैं। जमीन खाली हो जाती है। सारा सिलून उखड़ जाता हैं। दूसरे दिन पता भी नहीं चलता कि यहाँ क्या हुआ था? इसी प्रकार मनुष्य जीवन भी एक रंगमंच है इसमें अनेक प्रकार के खेल होते रहते हैं। अनेक स्वाँग रचे जाते रहते हैं। बदलाव का क्रम चलता रहता है। परिवर्तन की गति धीमी और तीव्र होती रहती है। अन्त में एक दिन ऐसा आता है जिसमें तूफानी हेर-फेर होता है और जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा था वह सब कुछ उलट जाता हैं।

संसार की बनावट ही ऐसी है। इसमें ब्रह्माण्डव्यापी ग्रह नक्षत्रों का परिकर द्रुतगति से किसी अविज्ञात की ओर दौड़ा जा रहा है। सौर मण्डल के ग्रह और उपग्रह अपनी-अपनी धुरी और कक्षा में केन्द्र की परिक्रमा लगा रहे हैं। यहाँ सब से छोटा घटक परमाणु हैं। वह भी अपने से भी अधिक सूक्ष्म घटकों को साथ में लपेटे एक छोटे परिवार के रूप में निरन्तर गतिशील है। इस प्रकार विश्व संरचना में सर्वत्र भगदड़ ही मची दीखती है। दस में से किसी के भी साथ यदि हम जुड़ते हैं तो उसका परिणाम अपने आपके लड़खड़ा जाने, डगमगा जाने, उलट-पुलट हो जाने के अतिरिक्त और क्या हो सकता हैं?

फिर स्थिर क्या है? किसके साथ जुड़ें? किसको अपना समझें? किसकी सहायता माँगें? किसके बनें? किस को अपना बनायें। इस असमंजस का समाधान एक ही हो सकता है, कि अपनी आत्मा ही वह अवलम्बन है जिसे दृढ़तापूर्वक पकड़ा और सदा सर्वदा के लिए अपनाया जा सकता है।

आत्मा परमात्मा के साथ जुड़ता है। दोनों के बीच जब घनिष्ठता स्थापित होती है तो एकात्मता विकसित होती है। उसके कारण छोटा घटक भी बड़े के समान ही शक्तिशाली हो जाता है। अग्नि में पड़कर ईंधन भी बड़े के समान ही शक्तिशाली हो जाता है। विद्युत प्रवाह एक तार से निकल कर दूसरे स्पर्श करने वाले तार में दौड़ता है। ठीक इसी प्रकार परमात्म सत्ता के साथ जुड़ जाने पर आत्मा भी इतनी सशक्त बन जाती है कि फिर उसे कोई कठपुतली की तरह न नचा सके। पहिया घूमता है धुरी नहीं। धुरी के साथ जुड़ जाने पर हम भी ध्रुव बन जाते हैं। ध्रुव स्थिर रहता है। ब्रह्माण्ड उसी के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है।


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