धर्म का मूल प्रयोजन—सत्य की शोध

March 1987

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धर्म किन्हीं विशेष अभिरुचि के या फालतू समय वालों के मन बहलाव का माध्यम है अथवा उसका कोई सार्वजनिक उपयोग भी है? इस प्रश्न के उत्तर में हमें धर्म का स्वरूप और उद्देश्य समझने का प्रयत्न करना होगा और यह जानना होगा कि क्या तथाकथित धर्माध्यक्षों द्वारा अपने-अपने ढंग से किया गया बहुमुखी प्रतिपादन ही धर्म है? अथवा उसके पीछे व्यक्ति और समाज की उपयोगी मार्गदर्शन की तथ्यपूर्ण क्षमता भी है।

सर जूलियन हक्सले ने अपने ग्रन्थ 'रिलीजन विदाउट रेवेलेशन' में धर्म संप्रदायों के सम्मिलित सत्य और असत्य की समीक्षा करते हुए लिखा है कि सत्य, ज्ञान और सौंदर्य की अभिव्यक्तियों से जो धर्म जितना पिछडा हुआ है,उसे उतना ही झूठा और नीचा समझा जाना चाहिए। सालोमन रीनाइक की यह उक्ति एक खीज भर है, जिसमें उन्होंने धर्म पर 'मानवी क्षमताओं पर रोक लगाने' का आक्षेप किया है। वस्तुतः वैसा है नहीं। धर्म की मूल आत्मा न्याय, कर्त्तव्य एवं औचित्य का समर्थन करती है। प्रथा-परंपराएँ तो धर्म के आवरण मात्र हैं। जिन्हें समय-समय पर बदले जाने की आवश्यकता पड़ती हैं।

देशभक्ति ही सब कुछ नहीं है। विश्व भक्ति उससे भी ऊपर है। समाज का कितना ही महत्त्व क्यों न हो, बहुमत की मान्यताओं के समर्थन में कुछ भी क्यों न कहा जाता रहे; अंततः विवेक ही सबसे ऊपर है, उसे देशभक्ति से भी ऊँचा स्थान मिलना चाहिए। 'बहु-जन हिताय, बहु-जन सुखाय' के आधार पर विधान कुछ भी क्यों न बनते रहें, उच्च आदर्शों का स्थान सबसे ऊँचा है; भले ही उनके समर्थन में नीतिनिष्ठ व्यक्तियों की थोड़ी-सी-ही संख्या क्यों न हो?

धर्म दुधारी तलवार है। यदि वह अपरिपक्व दर्शन और संकीर्ण सांप्रदायिकता का समर्थन भर करता है तो वह हानिकारक है। किंतु यदि उसमें नीतिनिष्ठा का समुचित समावेश है तो उसके द्वारा मनुष्य और समाज का हित साधन ही होगा।

विज्ञान और धर्म के शोध विषय पृथक है। एक पदार्थ की गहराई को खोजता है, दूसरा चेतना के मर्मस्थल को। इतने पर भी दोनों का मूल प्रयोजन एक है—सत्य की शोध। इसके लिए आवश्यक है कि मस्तिष्क को किन्हीं पूर्वाग्रहों से जकड़ कर न रखा जाए। पिछले लोग क्या सोचते क्या कहते और क्या करते रहे हैं? इसकी जानकारी उत्तम है। उसके सहारे तथ्यों तक पहुँचना सरल पड़ता है, पर यह मानकर नहीं चला जा सकता कि जो जाना या माना गया है, उसमें संशोधन या सुधार की गुंजाइश नहीं है। तथ्यों को स्वीकार करने की शोध दृष्टि में यह साहस रहता है कि यदि स्वीकृतियों से भिन्न प्रकार के तथ्य सामने आते हैं तो उनके स्वीकार करने में इसलिए असमंजस न करना पड़े कि अब तक के चिंतन को झुठलाना पड़ेगा।

तर्कहीन मनःस्थिति का नाम धार्मिकता नहीं है। आँखें बंद करके किसी के भी वचन को गले नहीं उतारना चाहिए। अपने लोग कहते हैं या पराये-बात संस्कृत या अरबी भाषा में कही गई है अथवा बोल चाल की भाषा में इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। स्वीकार करने योग्य वही है जिसमें तथ्य जुड़े हुए हों और जिसे विवेक की कसौटी पर खरा सिद्ध किया जा सके। बिना खोज परख के जो धर्म के नाम पर किसी भी मान्यता या प्रथा को स्वीकार कर ले, वह स्वस्थ दृष्टि नहीं है। धार्मिक मन सत्य का उपासक होता है। उसे औचित्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए। भले ही इसके लिए उन्हें पूर्वजों की अथवा उपदेशकों, ग्रंथों अथवा साथियों की ही अवहेलना क्यों न करनी पड़े।


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