स्वामी विवेकानन्द आरम्भ में साधारण परिवार में जन्मने और आर्थिक स्थिति गई-गुजरी होने के कारण सहचरों में साधारण ही समझे जाते हैं। पर जब उनने परमहंस की कृपा से दृष्टिकोण में असाधारण परिवर्तन किया, जीवन क्रम में उच्चस्तरीय गतिविधियों का समावेश किया तो वे सब की आंखों में ऊँचे उठने लगे। सम्मान और सहयोग उन पर बरसने लगे। उत्कृष्टता अपनाने के सत्परिणाम प्रत्यक्ष देखे तो वे उन सत्प्रवृत्तियों की ओर भी तेजी, मुस्तैदी से आगे बढ़ने लगे। द्रुतगति से बढ़े और आसमान पर छा गये। विश्व भर में उन्हें देव संस्कृति का राजदूत माना जाने लगा। देश की नई पीढ़ी में बढ़ती अनास्था को उनने न दृढ़ता पूर्वक रोका और भटकते पैरों को सही रह पर चलने के लिए बाधित किया। वे विदेशों से लौटे तो मद्रास व कलकत्ता की सड़कों पर घोड़े जुती बग्घी में बैठे हुए अपने मसीहा के वाहन से घोड़े खेल दिया और स्वयं जुत गये। अन खींचने वाले में मूर्धन्य गण्यमान लोगों की भी बड़ी संख्या थी। एक और उनके प्रयासों और त्याग बलिदानों अनुरूप जहाँ जन मानस से श्रद्धा उमड़ रही थी, वहीं दूसरी ओर न? अपनी और उनकी तुलना करते हुए हीनता अनुभव करने वाले ईर्ष्यालुओं की भी बाढ़ आई और वे उन्हें टाँग पकड़ कर नीचे गिराने के लिए अपनी समता तक उतार लाने के लिए असाधारण प्रयत्न करने लगे।
आक्रमण के लिए अन्य हथियार उठाना तो जोखिम भरा लगा। सस्ता एक ही उपाय सूझा। मनगढ़ंत आरोपों और लाँछनों को गढ़ कर बदनामी फैलाना। वास्तविकता तो कुछ थी नहीं। पर मनगढ़ंत पर तो कोई रोक है नहीं जो मन आया सो गढ़ लिया और जो जीभ पर उतरा सो कहने लगे। बात यहीं तक सीमित नहीं रही। पर्चेबाजी भी चली। लंगड़े लूले अखबारों में पैसा देकर आरोप पत्र भी छपाये गये। ईर्ष्यालू समझते थे कि प्रचार ही सब कुछ है। प्रोपेगैंडा किसी को तिल से ताड़ बना सकता है और हाथी को मच्छर जैसा छोटा कर सकता है। पर उनकी धारण मिथ्या सिद्ध हुई जब संगठित गिरोह के योजनाबद्ध आक्रमणों का कोई प्रतिफल नहीं निकला।
स्वामी जी के मित्रों और हितैषियों ने कहा- “ईर्ष्यालुओं के आक्षेपों का प्रतिवाद किया जाय और मुँह तोड़ उत्तर दिया जाय।” इस प्रस्ताव को स्वामी जी ने सर्वथा अस्वीकार कर दिया और कहा हमें धैर्य रखना चाहिए और जनता के विवेक पर विश्वास रखना चाहिए। यथार्थता को समझते देर भले ही लगे पर वह अपनी स्थिति स्वयं स्पष्ट कर देती है। सूर्य पर धूल फैंकने वाले के मुँह पर ही वह उलट कर पड़ती है।
हुआ भी ऐसा ही आरोपों का कोई प्रतिवाद नहीं छपा। वाणी प्रत्युत्तर में मौन रही। न स्वामी जी ने सफाई दी और न उनके सहयोगियों ने ऐसा कोई कदम उठाया नया ईंधन न मिलने पर जलाई गई आग अपने आप समयानुसार बुझ गई। दुष्टता अपनाने के कारण ईर्ष्यालुओं पर ही धिक्कार पड़ी। स्वामी जी खरे सोने की तरह अधिक चमके और प्रमाणिकता लिए हुए उभरे क्योंकि उन्हें अन्ध विश्वास के आधार पर नहीं वरन् अनेकों उपायों से जाँच पड़ताल करने का उपरांत हृदय पर बिठाया गया था और यथार्थता का समर्थन उपलब्ध हुआ था।
ऐसे विद्वेषी, ईर्ष्यालु एवं कालनेमि स्तर के ओछे व्यक्ति समय-समय पर जन्मते व पनपते रहे हैं, पर कालान्तर में कुकुरमुत्तों की इस सेना का नाश होकर ही रहता है, यह सर्वथा सत्य है।