जागते रहो! सावधान रहो!

March 1987

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सो जाने के उपरान्त मनुष्य की स्थिति मृतक जैसी हो जाती है। करवट बदले में शरीर के कपड़े ढुलक सकते हैं और छिपाये जाने वाले अंग खुल सकते हैं। कान रहते हुए भी निन्दा प्रशंसा सुनने की स्थिति नहीं रहती। घर में चोरी होती रहे तो भी कुछ पता नहीं चलता। सोते समय सपने दिखाई देते हैं। अपने-पराये का- भले बुरे का - लाभ हानि का - निन्दा प्रशंसा का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता ऐसी स्थिति में जीवित होते हुए भी प्रसुप्त की गणना अर्ध मृतकों में ही होती है।

बहुत लोग जागृत स्थिति में भी वस्तुस्थिति से अपरिचित और यथार्थता से दूर रहते हैं। उन्हें हित अनहित का विभेद करते नहीं बन पड़ता। सम्मोहित की तरह वे उसी दिशा में चल पड़ते हैं, जिस पर कदम बढ़ाने के लिए उन्हें कहा जाता है। भेड़ें झुण्ड के साथ चलती हैं चाहे उन्हें कहा जाता है। भेड़ें झुण्ड के साथ चलती हैं चाहें उन्हें एक के पीछे एक करके अन्धे कुएं में ही क्यों न गिरना पड़े? नशेबाज उन्मादी होश हवास खो बैठते हैं और न कहने योग्य कहते, न करने योग्य करते हैं। आँखें रहते हुए भी उन्हें अन्धा कहा जा सकता है। अज्ञान की पट्टी आँखों पर बँधी हो तो दीखता कुछ नहीं। यों दृष्टि मारी गयी यह भी नहीं कहा जा सकता। नेत्र और दृश्य का होना ही पर्याप्त नहीं। दीख पड़ने के लिए यह भी आवश्यक है कि मध्यम प्रकाश भी हो अन्यथा आँखें रहते हुए भी समीप ही रखी वस्तु को निरख परख सकना कठिन पड़ता है। जागरूकता वही मध्यवर्ती प्रकाश है जो चेतना को यथार्थता के साथ जोड़ता है।

जागरूकता का अर्थ है- संबंधित संदर्भों पर समुचित ध्यान रखना। इसमें हानि पक्ष से बचने और लाभ के लिए प्रयत्नरत रहने की सूझ-बूझ काम करती है। अन्यथा प्रमाद आ धमकता है और आधे श्रम से काम करने का आलस्य छाया रहता हैं। आधे मस्तिष्क से सोचने और उपेक्षापूर्वक आधा अधूरा निर्णय लेने में प्रमाद करते हैं। आलसी और प्रमादी अपनी स्फूर्ति एवं उमंग गँवा बैठते हैं। फलतः जो कुछ किया जाता है वह बेगार भुगतने जैसा होता है। ऐसी मनः स्थिति सफलता के लक्ष्य तक नहीं ले पहुँचती। रास्ते में ही भटका देती है। जंक्शन पर एक लाइन में खड़ी गाड़ियों में से किसी में भी बिना पूछताछ किये जा बैठने से गन्तव्य की अपेक्षा कहीं ऐसे स्थान पर जा पहुँचा जाता है जहाँ पछताना और वापस लौटना पड़े।

रात्रि के अन्धकार में ही निशाचरों की बन पड़ती है। उनींदे लोगों की गफलत का लाभ उठाकर उचक्के घात लगाते और घर द्वार खखोल ले जाते हैं। कुसंग में पड़कर उन्हीं के बच्चे बिगड़ते हैं, जो आरम्भ से ही उनकी देखभाल नहीं रखते। रोग उन्हीं के बढ़ते और असाध्य बनते हैं, जो समय रहते उपचार की उपेक्षा करते समय हैं। आदतें उन्हीं की बिगड़ती है जो शरीर वस्त्र की तरह अपने मन की सफाई करते रहना भी आवश्यक नहीं समझते।

रात्रि के अन्धकार में ही निशाचरों की बन पड़ती है। उनींदे लोगों की गफलत का लाभ उठाकर उचक्के घात लगाते और घर द्वार खखोल ले जाते हैं। कुसंग में पड़कर उन्हीं के बच्चे बिगड़ते हैं, जो आरम्भ से ही उनकी देखभाल नहीं रखते। रोग उन्हीं के बढ़ते और असाध्य बनते हैं, जो समय रहते उपचार की उपेक्षा करते समय हैं। आदतें उन्हीं की बिगड़ती है जो शरीर वस्त्र की तरह अपने मन की सफाई करते रहना भी आवश्यक नहीं समझते।


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