मनुष्य असाधारण है, अनुपम और अद्भुत भी

March 1987

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अध्यात्म विज्ञानियों की भाषा अब भौतिक विज्ञानी भी बोलने लगे हैं। वे अब यह मानते हैं कि नगण्य-सी दीखने वाली मानवी काया विपुलशक्ति का भांडागार हैं। उसमें विद्यमान अविज्ञात का जखीरा असीम संभावनाओं से भरापूरा है। अतीन्द्रिय क्षमताएँ-पराशक्ति की विविधता व अपरिमित सामर्थ्य हमें हतप्रभ कर देती है व यह सोचने पर विवश करती है कि यदि इस शक्ति का सदुपयोग हुआ होता तो मनुष्य क्या से क्या बन गया होता? आत्म सत्ता की पिटारी में अगणित रत्न भण्डारा दबे हुए प्रसुप्त स्थिति में पड़े हैं। यदि उन्हें कुरेदा जा सके, जागृत-विकसित और क्रिया रूप में लाया जा सके तो मनुष्य शक्ति पुँज बन सकता है, शुद्र से महान, नर से नारायण बन सकता है।

कार्डिनल गिसेप मेजोफेण्टी जो वेटीकन लाइब्रेरी के प्रमुख व्यवस्थापक रहे (1833), अपनी 50 भाषाओं, जो विश्वभर में बोली जाती हैं, में ऊँचे दर्जे की महारत प्राप्त कर वैज्ञानिकों के लिए एक प्रश्न चिन्ह बन गए। कैसे कोई व्यक्ति बिना उस प्रदेश में गए, उन लोगों से मिले भाषा-लिपि-शब्द विज्ञान की सारी जटिलताओं की जानकारी अनायास ही अर्जित कर लेता है, यह एक अनुत्तरित प्रश्न है। स्वामी विवेकानन्द पुस्तक पर हाथ रखकर कुछ पन्ने पलट कर ही उसे शब्दशः दुहरा देते थे। संत ज्ञानेश्वर 16 वर्ष की आयु में ही गीता का भाष्य लिख चुके थे। वैज्ञानिकों का कथन है कि सामान्यतः मानवी मस्तिष्क पूरे जीवन भर में ही गीता का भाष्य लिख चुके थे। वैज्ञानिकों का कथन है कि सामान्यतः मानवी मस्तिष्क पूरे जीवन भर में प्राप्त जानकारी का सौवाँ हिस्सा ही स्मरण शक्ति की माइक्रोफिल्म के रूप में जमा कर पाता है। अर्थात् हमें प्राप्त 100 जानकारियों में से 99 हम सहज ही भुला देते हैं। फिर ऐसे घटनाक्रम क्यों कर देखने में आते हैं, जिसमें व्यक्ति अनायास ही, अथवा साधना-योगाभ्यास द्वारा अथवा अध्ययन क्षमता के माध्यम से अपने मस्तिष्क में अगणित सूचनाएँ भर एक साथ उन्हें प्रकट भी करने की सामर्थ्य भी अर्जित कर लेता हैं। वैज्ञानिक ऐसे केसेज को अपवाद करार देते हैं, जबकि परामनोवैज्ञानिक इसे अतीन्द्रिय सामर्थ्य का चमत्कार कहते हैं।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर विलियम बैटिट ने अपने ग्रन्थों में लिखा है कि अनेक व्यक्तियों में पराशक्ति का उपयोग कर पृथ्वी के गर्भ में छिपी प्राकृतिक सम्पदा-संसाधनों का पता बताने की विलक्षण क्षमता अनायास ही जाग जाती है। टाटानगर की स्थापना की कहानी इस संदर्भ में दुहराने की कोई आवश्यकता नहीं है। सीधी सादी भाषा में पृथ्वी के धरातल से ही पाताल लोक की गहराई में छिपे भूगर्भीय भाण्डागार का सही स्थान बताने वालों को “सगुनिया” कहा जाता रहा है। प्राचीनकाल में सगुनिये इस कार्य के लिए अपने यंत्र के रूप में पहाड़ी बादाम या नीम की धनुषाकार पतली हरी टहनी का प्रयोग करते थे। पाश्चात्य विज्ञानी इसे डिवाइनिंग रॉड कहते हैं। कैसे किसी स्थान विशेष पर पहुँचते ही सगुनिये की हाथ में रखी टहनी का अगला सिरा नीचे की ओर झुक कर छिपी सम्पदा का संकेत दे देता है, यह शोध का विषय है। आजकल इन टहनियों के स्थान पर कहीं-कहीं ताँबे का तार प्रयुक्त होता है। मनुष्य की त्रिकाल दर्शिता का परिचय देने वाली यह क्षमता स्वयं में विलक्षण है और कैसे यह किसी सामान्य से व्यक्ति में जग जाती हैं, यह और भी रहस्यमय है।

अब तो वैज्ञानिकों ने भी इसी से संकेत लेकर पृथ्वी के नीचे एवं समुद्र की अतल गहराई में छिपे जल भण्डार एवं विपुल खनिज सम्पदा को पराशक्ति के माध्यम से खोज निकालने की डाउजिंग विधि का विकास कर लिया है। अब इसे अन्धविश्वास न मानकर मन की शक्ति का सुनियोजन माना जाने लगा है। अपराधियों को खोज निकालने से लेकर जमीन की गहराई में छिपे ऐसे स्थानों पर विद्यमान सीवर पाइपों केबल्स आदि के हालात पता का उपयोग हो रहा है।

मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने अपने विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के चारों ओर ऊर्जा का एक अदृश्य घेरा विद्यमान है। भिन्न-भिन्न प्रकार की भिन्न वस्तुओं की ऊर्जा का घेरा भी भिन्न-भिन्न होता है। इसे उस वस्तु का आभामण्डल (आँरा) भी कह सकते हैं। ग्रह-नक्षत्र, सूर्य चन्द्र-तारे, मानव, प्राणी, वृक्ष-वनस्पति, चट्टानें, जल, धातु, अधातु आदि प्रत्येक के घटक लगातार कंपन करते रहते हैं व अपने चारों और एक विशेष प्रकार की ऊर्जा किरणें विकिरित करते हैं। इस तरह सृष्टि की हर वस्तु से निरन्तर विशिष्ट ऊर्जा प्रवाह समष्टिगत ब्रह्माण्ड में फैल रहा है। व्यष्टि व समष्टि में संव्याप्त संबंध ही डाउजिंग प्रक्रिया की वैज्ञानिकता को सत्यापित करता है एवं असीम संभावनाओं का पथ प्रशस्त करता हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि भूगर्भ स्थित प्राकृतिक सम्पदा के दोहन हेतु जानकारी लेते समय मानवी तेजोवलय का ऊर्जा घेरे से टकराता है तो सगुनिये या प्रयोक्ता वैज्ञानिक के मन मस्तिष्क में एक विद्युत, तरंग दौड़ जाती है। माँस पेशियों में खिंचाव आता है व हाथ का यंत्र स्वतः नीचे झुक जाता है व खुदाई करने पर विपुल प्राकृतिक सम्पदा हाथ लगती है। यह सारा चमत्कार उस विकसित ऊर्जा घेरे का है, जिसे तेजोवलय-आभामंडल या आँरा कहते हैं जो किसी-किसी में विकसित होता हैं।

यह वस्तुतः मनुष्य की प्राण विद्युत या प्रसुप्त ऊर्जा का विकसित रूप ही है, जिस किसी ने ईथरीक डबल नाम दिया है, किसी ने प्राणमय कोश एवं किसी ने आइडियोस्फियर। जैसे पृथ्वी के चारों ओर आयनमण्डल विद्यमान है, उसी प्रकार कायसत्ता के चारों ओर भी एक ऊर्जा पुँज बिखरा पड़ा हैं। यह मात्र मस्तिष्क ही नहीं शरीर के अंग-प्रत्यंग में फैले नाड़ी संस्थान में प्रवाहित विद्युत प्रवाह का बाहर परिलक्षित होने वाला घेरा है, जिसे साधना उपचारों के द्वारा इस सीमा तक विकसित किया जा सकता है कि व्यक्ति न केवल स्वयं अगणित विभूतियों का स्वामी बन सकता है, अपितु अन्य अनेकों को इस आध्यात्मिक ऊर्जा से निरोग भी कर सकता है व प्राण शक्ति सम्पन्न भी। साइकिकहीलिंग एवं शक्तिपात इसी विकसित ऊर्जा मण्डल के माध्यम से सम्पन्न होने वाली प्रक्रियाएँ हैं।

प्रश्न यह उठता है कि यह प्रभा मण्डल है क्या चीज? किस प्रकार यह बनता व विकसित होता है व कैसे इसे भांपा या चर्म चक्षुओं से देखा जा सकता है? इस संबंध में हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रभा मण्डल भी दो प्रकार का होता है- फिजीकल आँरा जो बायोप्लाज्मा या बायोफ्लक्स से विनिर्मित से विनिर्मित होता हैं, दूसरा साइकिक आँरा जो सूक्ष्म ईथरीक तरंगों का एक प्रवाही घेरा है। मानवी काया का यह प्रभामण्डल संबंधी अनुसंधान सन् 1987 की इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रगति के काफी सोपान पार कर अपनी प्रौढ़ावस्था में है, तब भी कहा नहीं जा सकता कि समूचे अविज्ञात को खोज लिया गया। यह तो असीम अपरिमित भाण्डागार है जिसे समूचा छान पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य हैं।

1972 में मास्को विश्वविद्यालय के बायोफिजीक्स विभाग के डॉ. बेरिस टारुसोव ने बहुत ही मन्दी पर संवेदन शील प्रकाश किरणें मानवी जीव कोशों एवं पौधों की पत्तियों से निकलती नोट की। इसी बीच कजाकिस्तान (आल्मा अता) की स्टेट यूनिवर्सिटी के डॉ. विक्टर इन्युशिन ने बताया कि मानवी नेत्रों व जीव जन्तुओं से विशेष प्रकार की अल्ट्रा वायलेट किरणें निकलती हैं एवं इन्हें एक विशेष सेंसीटिव फिल्म पर स्पेशल फिल्टर्स का प्रयोग कर रिकार्ड किया जा सकता है। लाइफ फील्ड एल-फील्ड के माध्यम से “इलेक्ट्रोमैग्नेटिक मैट्रिक्स” के रूप में हैराँल्डबर एवं लियोनार्ड रैवीट्ज ने इस सिद्धान्त को आगे बढ़ाया। हाईवोल्टेज फोटोग्राफी (किलियन, इलेक्ट्रोग्राफी, कोरोना डिस्चार्ज फोटोग्राफी) भी आभामण्डल का मापन करने की ऐसी तकनीक थी जो क्रमशः विकसित हुई। यहाँ तक कि विभिन्न प्रकार के मनोविकार, भय, अंग विशेषों की भावी व्याधि तक विभिन्न रंगों में अंकित करने में सफलता वैज्ञानिकों को मिली। चिंतन प्रवाह में परिवर्तन से आभामण्डल भी परिवर्तित होता पाया गया। यू.सी.एल. की थेल्मा माँस. ने योगों, अतीन्द्रिय क्षमता संपन्न व्यक्तियों की उँगलियों से विशिष्ट “कोरोना” निकलते देखा व अंकित किया है। अपनी पुस्तक “सायकिक डिस्कवरीज बिहाइण्ड आयरन करटेन’ (1970) में लिनथ्रोडर एवं शीला आँस्ट्रेण्डर ने सोवियत परामनोचिकित्सक व तथाकथित सायकिक हीलर कर्नल एलेक्सी क्रिवोरोटोव के बारे में लिखा है कि “जब वे अपना हाथ रोगी व्यक्ति के पेट पर घुमा रहे थे एवं उन्होंने अपना ध्यान एकाग्र किया, तब उनके हाथ से तीव्र चमक वाली प्रकाश किरणें, जैसे कि “लेसर बीम” निकलती हैं, उत्सर्जित हुईं व अंग विशेष पर फोकस हो गयीं”। इस प्रक्रिया को लेखक द्वय ने चित्राँकित भी किया है। इसी प्रकार चैकोस्लोवाकिया में डिजाइन किये गए अपने इत्वीपमेण्ट द्वारा नेवार्क कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग न्यूजर्सी के डॉ. इ. डगलस. डीन ने ईथेल. ई. डी. लोच नामक एक सायकिक हीलर के हाथों से भी किरणों का मापन किया। डॉ. डीन ने कहा - कि अपनी इच्छानुसार लोच ने अपने हाथों से निकलने वाली किरणों का रंग बार-बार बदल कर दिखाया।

विलियम टीलर एवं डेविड बाँयर्स (स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी) ने हाथ से उत्सर्जित आभामण्डल को अल्ट्रावायलेट रेंज का माना व उसका फोटोग्राफ लेने में उन्हें सफलता मिली हैं। वस्तुतः अब बायोलॉजिकल प्लाज्माबॉडी एवं हाइवोल्टेज किर्लियन फील्ड में सामजस्य बिठाने में वैज्ञानिकों को काफी सीमा तक सफलता मिली है। फैण्टम लीव एवं लिम्ब इफेक्ट भी इसी से जाना जा सका हैं।

इतना सब होते हुए भी परामनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अभी ऐसा समुचित मॉडल नहीं बन सका जो आँरा, आर्गेन एनर्जी, चक्रों का विद्युत प्रवाह, इथरीकबॉडी, एस्ट्रलबॉडी को चित्राँकित कर सके। बायोप्लाज्मा के कणों के कम्पन जो जैवविद्युत चुम्बकीय होते हैं बहुधा उच्चवोल्टेज की मशीन द्वारा मापे जा सकते हैं, पर वे मूल आभामण्डल का एक छोटा-सा अंश भर होते हैं। उन्हें आँरा का पर्याय नहीं माना जा सकता। आर्गोन एनर्जी की अवधारणा सबसे पहले फ्रायडकालीन मनःचिकित्सक विल्हेम राइख ने की थी। उनका कहना था कि चेतना के स्पन्दन को जिस ऊर्जा के रूप में जाना चाहिए, वह आँर्गोन एनर्जी है। “बायाँन्स” इनकी मूल ईकाई है। जो एक मिलीमीटर के दस लाख वाँ भाग के बराबर होते हैं। राइख द्वारा बनाये गए आर्गोन एक्युमुलेटर को 13 जनवरी 1941 को प्रिंसटन में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. अलबर्ट आइंस्टीन को दिखाया गया, जिसका उन्होंने सत्यापन किया। यद्यपि बद में डॉ. राइख की यह अवधारणा विवाद का विषय बनी फिर भी वैज्ञानिक, पराविज्ञानी एक स्वर से आर्गोन एनर्जी के सिद्धान्त को मानवी प्रभामण्डल के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार करते हैं व भावी व्याधि के निदान व उपचार में महत्व प्रतिपादित करते हैं।

हमारी यह दुनिया बहुआयामी व विविधताओं से भरीपूरी है। मानवी काया उस विराट् का एक घटक है व उसमें ब्रह्माण्डीय सत्ता की ईश्वर की समस्त शक्तियाँ सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। आवश्यकता मात्र उन्हें उभारने-विकसित करने भर की है, चाहे वैज्ञानिक प्रमाण न मिलें, पर उपरोक्त प्रतिपादनों को झुठलाया नहीं जा सकता।

टिप्पणी- उपरोक्त लेख में उद्धृत संदर्भ एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (1985) एवं डॉ. जेफ्री मिशलोव की “द रुटस ऑफ काँशसनेस” से लिये गए हैं।


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