चट्टान को देखकर शिष्य ने गुरु से पूछा—"इससे भी कठोर कोई हो सकता है क्या?" गुरु ने उत्तर नहीं दिया और उस प्रश्न का उत्तर बारी-बारी शिष्य मंडली से पूछने लगे। एक ने कहा—"चट्टान से लोहा बड़ा है जो उसे काट सकता है।"
दूसरे ने कहा-—"लोहे से आग बड़ी है जो उसे गला सकती है।" तीसरे ने कहा—"आग से जल बड़ा है जो देखते-देखते उसकी हस्ती मिटा सकता है।" चौथे ने कहा—"जल से हवा बड़ी है जो उसे सुखाकर उड़ा देती है।"
हवा से बड़ा कौन? इसके उत्तर में पाँचवाँ शिष्य ‘प्राण’ कहने जा रहा था, और भी मेधावी छात्र उस समर्थ के वरदान की श्रेष्ठता आगे बढ़ाने को तैयार खड़े थे। गुरु ने अनावश्यक चर्चा बंद करते हुए कहा-"बच्चों! मनुष्य का संकल्प बड़ा है। उसके चलने से ही प्राण जीता है और चट्टान हट सकता है।"