अध्यात्म क्षेत्र का प्रतिभा पलायन

March 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अध्यात्म की अनेक उज्ज्वल संभावनाओं का यश गान किया जाता है, पर उसका एक दोष ऐसा है जिसका दुष्परिणाम समूचे समाज को वहन करना पड़ता है। इस आरोप से इन्कार भी नहीं किया जा सकता।

प्रतिभा पलायन पर आमतौर से चिन्ता की जाती रहती है। देश के अन्न जल में पले और उच्चशिक्षा पर गरीब जनता के टैक्स से संग्रहित धन राशि द्वारा विशेष योग्यता प्राप्त जनता के टैक्स से संग्रहित धन राशि द्वारा विशेष योग्यता प्राप्त कर लेने के उपरान्त जब वे अधिक वेतन के लाभ में विदेशों को चले जाते हैं, तो उसी क्षेत्र की सेवा में अपना समय लगाते हैं। जो बढ़ा-चढ़ा वेतन पाते हैं उससे निजी विलास-वैभव बढ़ाते हैं। देश तो घाटे में रहता है। जिस जनता के द्वारा उन्हें खर्चीला पोषण और शिक्षण प्रदान किया था वह तो प्रतिफल से वंचित रहने के कारण घाटा ही सहती है। इसलिए प्रतिभा पलायन के संदर्भ में सदा कटु चर्चा ही होती रहती हैं।

मानव जीवन की संरचना इस प्रकार हुई है कि उसका अस्तित्व एवं विकास दूसरों के सहयोग अनुदान पर निर्भर रहता है। सहकारिता का ही दूसरा नाम प्रगति है। एकाकी रहने वाला तो आमतौर से वन्य प्राणी स्तर का ही जैसा है भेड़ियों की माँद में पाये गये मनुष्य बालक बिल्कुल पालकों का स्वभाव बना चुके थे। वे मनुष्यों के व्यवहार शिष्टाचार से सर्वथा अपरिचित थे बड़ी आयु का व्यक्ति भी यदि अपने आपको समेट लेता है तो उस संकीर्णता की परिधि में रहते हुए भी आहार, वस्त्र, ईंधन, आच्छादन आदि के लिए दूसरों पर किसी हद तक आश्रित रहता ही तुम्हीं आसन-माचिस, माला जैसे उपकरण तो तथा कथित वैरागी, गृहत्यागी लोगों को भी समाज से ही प्राप्त करने पड़ते हैं। भले ही उन्हें माँग कर लिया गया हो या बिना माँगे मिला हो। इसकी सीधी परिणति ही होनी चाहिए कि उपलब्ध किये गये कर्जे को निष्ठा पूर्वक चुकाया जाय। मानव जीवन का उद्देश्य विलास, वैभव एकत्रित करने, निजी लोभ लिप्सा की पूर्ति में निरत रहना नहीं है, वरन् यह है कि निर्वाह में जितना न्यूनतम समय लगाने से काम चल सके उसका शेष भाग जन कल्याण में पुण्य परमार्थ में लगाया जाय। इसी प्रयास में अपने दोष दुर्गुणों कषाय-कल्मषों एवं कुसंस्कारों का शमन, निराकरण भी होता रहता है और व्यक्ति निजी क्षेत्र में पुण्यात्मा-समाज क्षेत्र में परमार्थी बन जाता है। मानवी गरिमा का आधारभूत अवलम्बन यही है। उसी आधार पर उसे शान्ति सद्गति, प्रगति एवं प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। सर्वतोमुखी उत्कर्ष का आधार सुनिश्चित रूप से यही है।

सनातन आध्यात्म इसी की प्रेरणा एवं शिक्षा देता है। इसी दिशा धारा को अपनाने के लिए दबाव डालता है। प्रभाव छोड़ता है पुरातन काल के साधु ब्राह्मण इसी निमित्त अपना समय, श्रम, मन, पुरुषार्थ इसी हेतु समर्पित करने का लक्ष्य बनाकर चलते थे। इसी विशेषता के कारण उन्हें भूसुर, धरती के देवता माना जाता हैं। चार आश्रमों में वानप्रस्थ और संयम का उत्तरार्द्ध सुनिश्चित रूप से हर कोई परमार्थ के निमित्त ही अर्पित करता था। तभी यहाँ सतयुग विराजता था और इस देव भूमि को “स्वर्गादपि गरीयसी” होने का श्रेय मिलता था।”

आधुनिकता बुरी तरह स्वार्थपरता के रूप में हर क्षेत्र पर हावी होती जा रही हैं। व्यवसाय पर, पारस्परिक मिलन-मैत्री पर उसका पूरा-पूरा आधिपत्य है। मित्र बन कर शत्रु जैसी घात लगाना आज का चातुर्य प्रचलन है। यही रीति-नीति अध्यात्म जैसे पवित्र क्षेत्र में ही प्रवेश करती रही है अब उसने उस समूचे प्रसंग को अपने चंगुल में कसकर जकड़ लिया है। पंडावाद प्रसिद्ध है। ज्योतिषी कर्मकाण्डी से छिपा नहीं है। सामाजिक प्रपंचों और पाखण्डों के घटनाक्रम आयेदिन सामने आते रहते हैं।

इसी आधारशिला पर टिका है कि व्यक्ति अधिकतम पवित्र और परमार्थ परायण है। पुण्य शब्द में उन दोनों की ही समावेश है। माध्यम वहीं की सर्वतोभावेन पुण्यात्मा होना चाहिए। निजी महत्वाकाँक्षा का, लोभ-मोह का उसे विसर्जन करना चाहिए। अहंकारी यश लोलुप न होकर उसे शीलवान, संयमी और विनम्र होना चाहिए। यह वह पृष्ठभूमि है जिस पर साधना उगाई, बढ़ाई और फलित करने की प्रक्रिया अग्रगामी बनाई जाती है। साधनाएँ कितनी हैं? पर उसमें से कोई भी ऐसी नहीं है जा गर्हित, विकृत और प्रपंची मनोभूमि पर उग सकती हो। लालच और आदर्श की कोई संगति नहीं। लोगों पर रौब जमाने या चौंधियाने के लिए असली अध्यात्म का कोई अंश प्रयुक्त नहीं हो सकता। दूसरों को हानि पहुँचाने वाले वाममार्गी तंत्र प्रयोग, मानसिक प्रहार की आक्रामक संज्ञा में आते हैं। सम्मोहन और वशीकरण, कामनापूर्ति के लिए हो सकता है। मारण, उच्चाटन का प्रयोग कोई आततायी, अनाचारी ही कर सकता है।

आत्मा दर्शन में अहंता के पोषण का कहीं कोई स्थान नहीं है। प्रदर्शनात्मक ऋद्धि-सिद्धियाँ इसी दायरे में आती हैं। पानी पर बतख तैरती है। हवा में मक्खी उड़ती है। कछुआ अपने का फैलाता और सिकोड़ता रहता हैं। सर्दियों में सरीसृप और भालू महीनों की समाधि लगाये पड़े रहते हैं। कस्तूरी हिरन के शरीर में से सुगंध छूटती है, सारस हंस लम्बी दूरी कुछ ही समय पार कर लेते हैं। चीते लम्बी छलाँग लगाते हैं। इतने पर भी वे सम्माननीय सिद्ध योगी नहीं गिने जाते। लोगों को हतप्रभ कर देने और आश्चर्य में डुबो देने की कला, बाजीगरों और जादूगरों को आती हैं। उनके प्रदर्शनों में चकित करने वाले चमत्कार देखते ही बनते हैं। इतने पर भी उनकी श्रेणी नट, विदूषकों में ही रहती है। उन्हें न कोई महामानव है और न सिद्ध योगी। शरीर को मोड़ मरोड़ कर तो अजगर भी कुण्डली मार लेता है। फिर कई प्रकार के आसन लगाने वाले किस बिरते पर अपने करतबों की महिमा आकाश पाताल जितनी क्यों जताते हैं? साँप गहरी साँस खींचता और लम्बी फुंसकार मारता है। पर उसका यह कृत्य प्राणायाम परायणों की श्रेणी में नहीं गिना जाता हैं।

साधनाओं का उपासनात्मक कर्मकाण्डों का अपना महत्व है। उनके द्वारा प्रसुप्त शक्तियों के जागरण में सहायता मिलती है। किन्तु इतने पर भी यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि साधक का व्यक्तित्व संयमी, सदाचारी और करुणा से भरा पूरा हो। यदि यह पवित्रता अर्जित करने के लिए तपस्वियों जैसा साहस न जुटाया जा सका तो समझना चाहिए के बात बनी नहीं। चट्टान पर उपवन लगाने के प्रयत्न में कोई सफलता मिलने वाली नहीं है। व्यक्तित्व में निकृष्टता भरी पड़ी हो, छल प्रपंच के सहारे आडम्बरी यों सिद्ध बना जा रहा हो तो इस प्रकार सीमित आय ही कमाई जा सकती हैं फिर पोल खुलने का डर भी हर घड़ी बना रहता है और निरन्तर आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है। इससे अच्छा है कि तस्करी के अनेकानेक धन्धों में से किसी को अपना कर लोगों की जेब काटते हुए अपना घर भरा जाय। इस से अध्यात्म के पवित्र नाम पर कलंक तो नहीं आता। जैसा कि इन दिनों पाखण्डी वर्ग उसे बुरी तरह बदनाम करता चला जाता है। स्मरण रहे आध्यात्म का उद्देश्य भावनाओं से पूरी करना था, बढ़ाना नहीं है।

अध्यात्म मार्ग का पथिक न्यूनतम निर्वाह का सादगी भरा जीवन जीता है और उच्चविचारों को - चरितार्थ करने के लिए समय, श्रम, चिन्तन, और साधन निकालता है। इससे वह अवकाश बच जाता है, जिसे परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जा सके। व्यक्ति और समाज को दुष्प्रवृत्तियों ने बर्बाद किया है। उसे यदि फिर से सुधारना संभालना है तो उसका एक ही उपाय हैं सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में जुटा जाय। अन्धकार में लाठी लेकर नहीं लड़ा जा सकता। व्यापक तमिस्रा को भागने के लिए प्रकाश उगना या उगाया जाना चाहिए। खाली बर्तन में हवा भर जाती है, किन्तु यदि उसमें कोई पदार्थ भर दिया जाय तो भरी हुई हवा अनायास ही वह स्थान चकली करके अन्यत्र चली जाती है। विश्व सेवा का उदार परमार्थ परायणता का सर्वश्रेष्ठ मार्ग एक ही है कि कुसंस्कारों का उन्मूलन करके उसके स्थान पर सुसंस्कारों की पौध लगाई जाय और खाद पानी की व्यवस्था जुटाई जाय। सच्चे अध्यात्मवादी यही करते रहते हैं और यही करते रहेंगे।

आध्यात्म का आडम्बर ओढ़ कर निजी स्वार्थ सिद्धि की तस्करी की जाय यह हर दृष्टि से घृणित है। अपनी सुविधा और प्रतिष्ठान का अभिवर्धन ही ऋद्धि सिद्धियों से हो सकता है। दस प्रयोजन के लिए किया गया जप-तप एक प्रकार से विशुद्ध व्यापार है। व्यापारी लाभ उपार्जन के लिए कष्ट उठाता, पूँजी लगाता और जोखिम सहता है। इसी प्रकार सिद्धि चमत्कारों के लिए मनोकामनापूर्ण करने या कराने के निमित्त किया गया साधन विधान उथले दर्जे का वैसा ही प्रयास समझा जा सकता है जैसे कि व्यवसायी या मुनीम स्तर के लोग करते और कमाई को अपने बच्चों तथा सम्बन्धियों में बाँटते रहते हैं। इसी प्रकरण में यह प्रयास भी जुड़ता है जिसमें स्वर्ग मुक्ति की कामना भरी रहती है। इस लोक में सुविधाएं अर्जित करने के लिए सभी स्वार्थीजन भरपूर प्रयास करते हैं। इसमें एक राई रत्ती का ही अन्तर है कि, स्वर्ग का विलास और मुक्ति का वैभव प्राप्त करने के लिए कार्य किया जाय या जोखिम उठायी जाय।

अध्यात्म का मूलभूत एवं तथ्यात्मक सत्य है कि स्वार्थ को परमार्थ में विसर्जित किया जाय। लोक मंगल के लिए इतनी तन्मयता के साथ तत्परता बरती जाय कि स्व की चीनी पर के दूध में पूरी तरह घुल जाय।

मनुष्य समा के श्रम बिन्दुओं से विनिर्मित पुतला है। उसका दायित्व है कि ऋण चुकाये। कम ले अधिक दे। स्वार्थ को परमार्थ में बदल दे। लोक सेवी बने और विश्व वाटिका को अधिक सुरम्य बनाने के लिए कर्तव्य परायण माली की तरह तन्मय होकर रहे।

समाज से लेते रहकर अपना वर्चस्व बढ़ाना और जब बदला चुकाने का समय आये तब स्वार्थ की पूर्ति में हम जाया जाय यी प्रतिभा पलायन है। यह विदेश को भागने तक ही सीमित नहीं है। इसमें भी प्रत्यक्ष देखा जाता है कि समाज सहयोग को पाकर निर्वाह किया जाय और सेवा करने की चुनौती सामने आने पर मुँह मोड़ लिया जाय। सिद्धि का मुक्ति को स्वार्थपरता को अपना इष्ट बनाया जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118