भगवान की कृपा मनुष्य पर बरसी या नहीं, इसकी पहचान क्या है? इस संबंध में ईश्वर विश्वासियों की इच्छा निरन्तर बनी रहती है। कई सोचते हैं की ईश्वर जिस पर प्रसन्न होते है, उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि के रूप में उनके सामने आ खड़े होते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि 'वरदान माँग' अर्थात् “इच्छित मनोकामना को पूरी कराने के लिए जो सहायता चाहता हो उसे कह और ले।” मोटी धारणा यही है।
कई हृदयाकाश में प्रकाश ज्योति का दर्शन करते हैं। समाधिस्थ एकाग्र हो जाते हैं। वैराग्य धारण करके ऐसा सोचते हैं कि संसार को, कुटुंब-परिवार को, भवबंधन समझकर उन्हें त्याग दिया तो जीवनमुक्त हो गए। जन्म-मरण के बंधन से छूट गए। कई ‘सोऽहम्’ साधना में श्वास के साथ चलनेवाली आवागमन की ध्वनियों को सुनते हैं। कइयों को कान बंद कर लेने पर घंटा, शंख, मृदंग, मंजीर, गर्जन आदि के शब्द सुनाई पड़ते हैं और लगता है कि ईश्वर के सांकेतिक वचन सुन रहे हैं। उसका अर्थ समझने लगेंगे तो त्रिकालदर्शी बन जाएँगे।
कुछ को षट्चक्रभेदन की कल्पना उभरती रहती है। चिरसेवित कल्पना भावना बन जाती है। इस भावना की मस्ती में वे चक्र आदि प्रगाढ़ ध्यानावस्था का पुट लगाकर यथार्थवत् दीखने लगते हैं। वस्तुतः वे सूक्ष्मभेद शरीर में अवस्थित हैं। स्थूलशरीर में जहाँ-तहाँ नाड़ी गुच्छक ही हैं। उन्हें सूक्ष्मशरीर में चक्रों की उपस्थिति बतानेवाले संकेत भर कहा जा सकता है। प्लेक्सस को ही चक्र मान लेना उचित नहीं।
ध्यान के लिए शरीर के भीतर ही कई महत्वपूर्ण स्थान हैं, जिनमें सघन एकाग्रता की साधना करके कई प्रसुप्त पड़े केंद्रों के सूक्ष्म प्राण को जगाया जा सकता है। मस्तिष्क के मध्य में सहस्रदल कमल है। उसे विष्णु भगवान की शेष शैया की अलंकारिक महत्ता दी गई हैं। उसी को कैलाश मान सरोवर की भी उपमा दी गयी है। उसी को कैलाश मान सरोवर की भी उपमा दी गई है। मस्तिष्क के ग्रे मैटर रूपी समुद्र में जहाँ-तहाँ पड़े नाभिक केंद्र रूपी द्वीप भी होते हैं जिनकी जागृति परामानसिक शक्तियों को जन्म देती है। मस्तिष्क में भरे द्रव्य सी.एस.एफ. को ही विष्णु भक्त क्षीरसागर की उक्ति देते हैं।
ध्यान की परिपक्वावस्था में यह सहस्रार कमल और ब्रह्मरंध्र शिव या विष्णु का निवास स्थान प्रतीत होता है। इस प्रतीति को श्रद्धा के समन्वय से और भी अध्याय प्रगाढ़ बनाया जा सकता है। मस्तिष्क मध्य, हृदय भाग और नाभि मध्य में ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, एवं शिव ग्रन्थि भी हैं, जिनके संबंध में कहा जाता है कि इन गाँठों के बंधनों में जीवन बँधा हैं। यदि उन्हें खोला जा सके तो मुक्ति मिल सकती है।
नादयोग और सोऽहम् साधना के विषय में भी उनके बढ़े-चढ़े माहात्म्यों की चर्चा की जाती हैं। कुंडलिनी जागरण भी ऐसा ही प्रसंग है, जिसकी उपमा ज्वालामुखी फटने से दी जाती है। इतना सब होते हुए भी साधारणतया साधना क्षेत्र के जिज्ञासुओं में यही भ्रम बना रहता हैं कि यह शक्ति केंद्र स्थूलशरीर में विद्यमान है और ध्यान, मर्दन, योगासन आदि करने से यही स्थान, अपना चमत्कारी प्रतिफल दिखाने लगते हैं।
इन कठिनाइयों के रहते यह नहीं कहा जा सकता कि साधना का उपयुक्त काल तो आयुष्य की चौथी अवस्था में हैं। इसीलिए चतुर्थ आश्रम बनाया गया है, यह कहाँ तक ठीक है। यदि स्थूलशरीर ही साधना केंद्र रहा होता तो बालकपन ढलती आयु-वृद्धावस्था से घिरा हुआ जीवन निरर्थक चला जाता। मात्र तरुणाई ही इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त काल माना जाता। किंतु बात ऐसी नहीं है। ध्रुव ने बालकपन में, च्यवन ने वृद्धावस्था में, आद्य शंकराचार्य ने फोड़े से ग्रसित रहते हुए रुग्णावस्था में भी कठोर साधनाएँ की थीं। समाधि अवस्था में तो शरीरगत स्पंदन अधिकतम रुक जाते हैं। ऐसी दशा में शरीर के किन्हीं अंग विशेषों को प्रभावित करने की प्रक्रिया कैसे चल सकती है? वह तो मृत मूर्च्छित जैसी स्थिति होती है।
इन समस्त तथ्यों पर ध्यान देने से प्रतीत होता है कि स्थूलशरीर द्वारा उच्चस्तरीय साधनाएँ बन पड़ना असंगत है। वह तो सूक्ष्मशरीर में समाहित दिव्य केंद्रों द्वारा ही बन पड़ती हैं। इसीलिए उसे शरीर के साथ गुँथा नहीं रहने देना चाहिए। उसका शरीराध्यास घटाना या मिटाना चाहिए। इसी उपाय से शरीराध्यास घटाना या मिटाना चाहिए। इसी उपाय से शरीर इस लायक बन पाता है कि वह समयानुसार सुक्ष्मशरीर को आवश्यक छूट देकर उसे साधनारत रह सकने की सुविधा प्रदान कर सके। लोभ, मोह और अहंकार के बंधनों को हथकड़ी बेड़ी तक की उपमा दी जाती है। इन बंधनों के पूरी तरह कसे रहने पर सूक्ष्मशरीर के लिए इतना संकट भय नहीं रहता कि वह शरीर बोध से विरत होकर अपनी स्वतंत्र सत्ता में विकसित हो सके और उन उच्चस्तरीय साधनाओं का अभ्यास कर सके, जिन से दिव्य क्षमताओं, दिव्य विभूतियों की प्राणी को उपलब्धि होती है।
शरीर के स्वस्थ रहने से मन स्वस्थ रहता है और सौंपे गए दायित्वों को पूरा कर सकता है। इसलिए उचित है कि साधना के प्रथम सोपान में प्रवेश करते हुए काया को बलिष्ठ और निरोग रखा जाए। इस प्रकार के नियमों का पालन, उपायों को अपनाना, साधना का प्रथम चरण कहा गया हैं। संयम, ब्रह्मचर्य, आहार-विहार की संतुलित सात्विकता का अपनाया जाना आवश्यक है, ताकि शरीर की निरोगता और मन की सौम्यता अक्षुण्ण रहे। राजयोग के आठ सोपानों में से प्रथम यम और नियम इसी निमित्त हैं कि शारीरिक सात्विकता अपनाकर चौथाई योगाभ्यास किया जा सके। इसके बिना मन के कल्मष-कषाय न घटते हैं न मिटते हैं। साथ ही चंचलता भी उद्वेगों से भरी होती है। वह ध्यान धारणा की प्रधान बाधा है। आसन-प्राणायाम में शारीरिक कियाओं को जितना करना पडता है उनसे अधिक मनोयोग का नियोजन करना पडता है। मन यदि सांसारिक ताना-बाना बुनने में व्यस्त और मस्त रहे तो किसी समय विशेष पर एकाग्रताजन्य ध्यान धारणा में लगाना कठिन होता है। आकाश में उड़ते पंछी को हाथ पसार कर कैसे पकड़ा जाए? जाल में तो उसे तभी फँसाया जा सकता है जब जमीन पर बैठा हो। शरीर को सौम्य सात्विक और मन को सुसंस्कारी बना लेने के उपरांत ही यह संभव है कि मन शांति का आश्रय लेने लगे और निर्धारित ध्यान धारणा में किसी प्रकार जमे। इसलिए जहाँ तक शरीर साधना का संबंध है वहाँ तक समग्र संयम की साधना का ही पूर्वार्द्ध समझा जा सकता है। उत्तरार्द्ध इसके उपरांत ही सध पाता है। सूक्ष्मशरीर में जिन ऋद्धि सिद्धियों के रत्न भण्डार भरे हुए बताये गए हैं, उन तक साधक की पहुँच तभी हो पाती है। जब वह अपने शरीर को साधने की प्राथमिक आवश्यकता पूरी करले। संयम साध ले। आहार-विहार में सात्विकता का समावेश कर ले। मन को सुसंस्कारी बना ले। उसमें घुसी हुई कीचड़ को-तृष्णा, लिप्सा, वासना, अहंता को निरस्त करके सच्चे अर्थों में सज्जन सुसंस्कृत सभ्य बना ले।
त्रुटि सबसे बड़ी यही होती रहती है कि वर्णमाला सीखे बिना लोग-बाग कॉलेज में पढ़ाया जाने वाला गणित पढ़ना आरंभ कर देते हैं। ऐसी दशा में कोई कहने लायक सफलता कैसे मिले? किए गए अनेकों योगाभ्यास निष्फल चले जाते हैं। भव बंधनों से जकड़ा मन आत्मिक उत्कर्ष के लिए कुछ करना चाहता है। मजबूरियों के निविड़ बंधन ऐसे बँधे रहते हैं कि उनके कारण कुछ करते धरते ठोस एवं स्थिर रूप से बन नहीं पाते, अतएव सफलता की दिशा में कुछ कहने लायक सफर नहीं बन पड़ता। यात्रा रास्ते में ही रुकी पड़ी रहती है।
सूक्ष्मशरीर की ही अधिकांश साधनाएँ हैं। कुंडलिनी जागरण से लेकर ब्रह्मरंध्र, सहस्रदलकमल के प्रस्फुरण तक के सभी महान प्रयोजन सूक्ष्मशरीर में ही अवस्थित हैं। षट्चक्रों से लेकर ग्रन्थिभेदन तक की प्रक्रिया सूक्ष्मशरीर से ही संपन्न होती है। खेचरी मुद्राओं में अमृत का पान किया जाता है। यह सूक्ष्मशरीर का ही अनुदान है। जिनने भी महत्त्वपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त की हैं, उनने चतुर्विधि मुक्ति पाने के लिए यही प्रयास किया है कि शरीर और आत्मा के बीच बँधे हुए निविड़ बंधनों को शिथिल किया, खोला है। इस प्राथमिक मुक्ति के मिलने पर दूसरी परोक्ष मुक्ति सरल हो सकती है। परमात्मा के साथ आत्मा को जोड़ने के लिए आवश्यक है कि भवबंधन से छुटकारा पाया जाए। इसकी उपेक्षा करके ऊँची छलांगें लगाना ऐसा ही है,जैसा पंखों के जकड़े रहने पर भी उन्मुक्त आकाश में विचरण करने के लिए मनोरथ करना।
भगवान की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन एक ही कसौटी पर कसा जा सकता है कि शरीर और आत्मा के बंधन ढीले हुए या नहीं? मनुष्य अन्तर्मुखी हुआ या नहीं। अपने स्वरूप, महत्त्व एवं लक्ष्य को समझ पाया या नहीं? ये अनुभूतियाँ यदि होने लगें तो समझना चाहिए कि भगवान की प्रत्यक्ष कृपा का- दिव्य सत्ता का- दर्शन होने लगा और उसका चमत्कार प्रतिफल बंधनमुक्ति के रूप में-ऊर्ध्वगमन के रूप में दीख पड़ने लगा।