योगाभ्यास के आरम्भिक दो चरण यम-नियम

March 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

योगाभ्यास को आमतौर से क्रियायोग समझा जाता है। विभिन्न क्षेत्रों के श्रमजीवी अपने-अपने कौशल दिखाते और उसका उचित पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। ऐसी ही कुछ मान्यता योग के संबंध में भी चल पड़ी है। लोग तत्संबंधित क्रिया कृत्यों को सीखने सीखाने का प्रयत्न करते हैं और उसका अभ्यास बन पड़ने पर योग सिद्धि के आधार मिलने वाली विभूतियों की आशा करते हैं। इस संदर्भ में घर छोड़कर विरक्त हो जाने, वन एकांत में रहने की भी आवश्यकता समझी जाती है। यह योग का बहिरंग स्वल्प है, उसे क्रिया कलेवर भी कह सकते हैं। इतने को ही सब कुछ मान लिया जाता है। यह चेष्टा नहीं की जाती कि इन निर्धारणों के पीछे रहस्य सार और तत्त्वज्ञान क्या है? वही है साधना का प्राण। उसकी उपेक्षा कर देने के उपरांत जो कुछ क्रिया-कृत्य रह जाता है, उसे     प्राणरहित शरीर ही कहा जाना चाहिए। दृष्टिगोचर तो सारा शरीर यथावत् लगता है, पर प्राण न होने के कारण उससे कोई ऐसा पुरुषार्थ नहीं बन पड़ता जिसका कुछ उत्साहवर्धक प्रतिफल हस्तगत हो सके।

योग साधना में क्रिया-कृत्यों का समावेश तो है, पर वह मात्र उतने तक ही सीमित नहीं है। उसमें चेतना और भावना की बहुलता है। इसलिए उसे घर परिवार के बीच रहकर भी साधा जाता है और विरक्त होने पर उस प्रक्रिया का सध ही जाना निश्चित नहीं है। कितने ही संन्यासी एकांत स्थानों और वन प्रदेशों में रहते हैं, पर उनमें आलस्य के अतिरिक्त और कोई विशेषता नहीं दीखती। वेश के आधार पर सम्मान और दान दक्षिणा मिलने लगता है। इससे उनका प्रमाद, अहंकार और बढ़ जाता है, ऐसी दशा में उनका व्यक्तित्व उठता नहीं,  वरन् निरंतर गिरता ही जाता है। चौबे जी छब्बे बनने चले थे, पर दुबे भी नहीं रहे, वाली उक्ति चरितार्थ होने लगती है। यदि इस तथ्य को समझा जा सके कि अध्यात्म साधनाओं में मानसिकता प्रधान है तो साधकों को यथार्थता का पता चले और उस आधार पर राजमार्ग अपनाकर लक्ष्य तक पहुंचने में सफलता प्राप्त करें। पर ऐसा सुयोग किन्हीं विरलों को ही हस्तगत हो पाता है।

योगों की अनेक दिशा धाराएँ हैं, उनमें से राजयोग को प्रमुखता मिली हुई है, कारण कि उसमें जोखिम कम और सफलता की संभावना, यथार्थवादी तत्त्वॉ का अधिकाधिक समावेश होने के कारण, अधिक हैं।

राजयोग को अष्टांगयोग भी कहते हैं। यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा, ध्यान, समाधि। इन आठ अंगों का अभ्यास कर लेने से यह प्रयोजन भली प्रकार पूरा हो जाता है। उसे सुविधानुसार समय निकालकर घर या वन में, गृहस्थ या विरक्त रहते हुए, किसी भी स्थिति में पूरा किया जा सकता है।

यम वर्ग में पाँच अनुबंध आते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यह पाँचों ही प्रधानतया मानसिक हैं। जो भीतर है उसी को बाहर प्रकट करना सत्य है। ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करना सत्य है। छल, प्रपंच, पाखंड से बचे रहना सत्य है। ये मनोदशाएँ हैं। इनका प्रकटीकरण भले ही जिह्वा, हाथ आदि इंद्रियों से होता है।

अहिंसा का तात्पर्य है, प्रेम, करुणा, दया, उदारता, आत्मीयता और उनका प्रकटीकरण तो अन्य सभी भावनाओं की तरह शरीर से भी हो सकता है, पर वस्तुतः यह आंतरिक भाव संवेदनाएँ ही हैं। उसमें डॉक्टर के आपरेशन या न्यायाधीश के प्राणदंड जैसी कठोरता  की भी गुंजाइश है। हिंसा, अहिंसा, का निर्णय क्रिया मात्र से नहीं, वरन् उसके साथ जुड़ी हुई भावनाओं के आधार पर होगा।

अस्तेय—चोरी न करना। चोरी, जेबकटी, उठाईगिरी, सेंध लगाना जैसे अपराधों के रूप में ही नहीं होते, वरन् शोषण अपहरण, मुनाफाखोरी, मिलावट, रिश्वत आदि के रूप में भी होते हैं। यह हेरा-फेरी बिना छीन झपट के भी हो सकती है। जिसमें ग्राहक की मर्जी या सहमति भी रह सकती है। बिना उठाईगिरी      करनेवाले भी चोर हो सकते हैं। इसका निर्णय मनोदशा का विश्लेषण करते हुए ही किया जा सकता है।

ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है— नर-नारी के मध्य पवित्रता का सद्भाव आत्मीयता का भाव होना। रामकृष्ण परमहंस शारदामणि की तरह गृहस्थ भी उसका पालन कर सकते हैं और विश्वामित्र मेनका संयोग की तरह विरक्त भी इस दुर्गुण के शिकार हो सकते हैं। कामुक चिंतन विशुद्ध व्यभिचार है और गाँधी जी की तरह धर्म पत्नी के प्रति उच्च भावनाएँ रखे रहना भी ब्रह्मचर्य है। यह भावनात्मक संयम है। इंद्रिय संयम के साथ-साथ इसमें भाव संयम भी जुड़ा रहना चाहिए।

अपरिग्रह का अर्थ— पैसा न छूना या सामान जमा करना नहीं है, वरन् यह है कि लोभ के वशीभूत न होना। जो हाथ में है उसे जनता जनार्दन की अमानत मानना और ईमानदार ट्रस्टी की भाँति हस्तगत संपदा को जन कल्याण के निमित्त ही काम में लाना। उसके माध्यम से सत्प्रवृत्ति संवर्धन का प्रयोजन पूरा करना।

यम निर्धारण के पाँचों पक्षों में शारीरिक क्रिया-कलाप भी जुड़ते हैं, पर मात्र इतने से ही उनकी पूर्ति नहीं हो जाती। उच्चस्तरीय भावनाओं का समन्वय इन पाँचों में अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसलिए इन्हें मानस प्रधान मनोयोग की प्रक्रिया कहा जाए तो उचित ही होगा।

दूसरा चरण पाँच नियमों का है— शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। यह पाँचों यदि क्रियामात्र के रूप में संपन्न किये जाएँ तो वे लोकाचार ही रह जाएँगे। शरीर और कपड़ों की सफाई सभी करते हैं, पर आध्यात्मिक शौच में वैचारिक एवं भावनात्मक स्वच्छता का भी समावेश होता है। संतोषी तो आलसी, प्रमादी, दरिद्र स्तर के लोग भी होते हैं। भाग्यवादियों का चिंतन इसी प्रकार का होता है, पर यहाँ संकेत इस बात का है कि अनिवार्य निर्वाह को सामान्य नागरिक स्तर पर अपनाया जाए। लोभ, मोह अहंकार से अपने को बचाया जाए। त्रिविध एषणाओं से विचारणा, आकांक्षा को मुक्त कराया जाए। तप का अर्थ— धूप या अग्नि के सामने गरम होना नहीं, वरन् अपने कषाय-कल्मषों का दमन करना है। इसे इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम, विचार संयम भी कह सकते हैं। ऐसा मनोनिग्रही काम-काजी या परिवारी होते हुए भी अन्तःक्षेत्र का तपस्वी हो सकता है। इसी प्रकार स्वाध्याय का अर्थ पुस्तकें पढ़ते रहना नहीं, वरन् ‘स्व’ के संबंध में अध्यवसाय निरत होना है। ईश्वर प्राणिधान में जप-ध्यान-पूजा-अर्चा के क्रिया कृत्य ही नहीं आते। उसका वास्तविक स्वरूप है, सर्वव्यापी, कर्मफल में निष्पक्ष न्यायाधीश जैसी स्थिति के परमेश्वर के अनुशासन को ठीक तरह पालन करना। कोई भी दुष्कर्म छिपकर भी न किया जाय। कर्मफल में विलंब होते देखकर निष्ठा को डगमगाने न देना। सन्मार्ग पर एकाकी चलते हुए भी अपने साथ परमसत्ता की उपस्थिति अनुभव करना। यही है ईश्वर प्राणिधान, जिनमें कर्मकांड तो नाम मात्र का है। गहराई भावनाओं को ही अपनानी पड़ती है। यही है यम−नियम रूपी योगाभ्यास के प्रारंभिक दो चरण।



<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles