दुराव और स्वार्थ का व्यवधान (Kahani)

March 1987

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एक सिद्ध पुरुष के पास पारस पत्थर था वरिष्ठ शिष्य उसे हथियाने की फिराक में था। सो जिस-तिस प्रकार उसने गुरु को प्रसन्न करके उसे प्राप्त करने का रास्ता बना लिया।

पत्थर छिपाकर रखा गया था जब देने का समय आया तो गुरु ने एक सील बन्द लोहे की पेटी उठा लाने का निर्देश किया। शिष्य उसे उठाकर लाया। पारस उसी में था। सो चाभी न मिलने पर ताला तोड़ने का प्रयास होने लगा।

शिष्य ने सन्देह व्यक्त करते हुए कहा- यदि इसमें असली पारस रहा होता तो यह लोहे की पेटी कब की सोने की हो गई होती?  गुरु कुछ बोले नहीं। ताला तोड़ने पर पारस निकाला गया, वह कपड़े में लिपटा हुआ था। लोके के साथ उसका कोई संपर्क नहीं था। 

दोनों के बीच का व्यवधान ही अभीष्ट परिणाम होने नहीं दे रहा था। अध्यात्म प्रसंग की चर्चा में एक दिन गुरु ने उस बात को उल्लेख किया और कहा-भक्त और भगवान के बीच, गुरु और शिष्य के बीच दुराव और स्वार्थ का व्यवधान ही आदान-प्रदान में प्रमुख बाधा बना रहता है।


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