देवता और असुर (Kahani)

March 1987

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देवताओं और असुरों के बीच घमासान युद्ध छिड़ा। दोनों पक्षों ने अपनी संपूर्ण शक्ति दाँव पर लगा दी। आरंभ के दिनों में देवताओं का पक्ष लड़खड़ाने लगा। सेनापति बदलने की आवश्यकता अनुभव हुई; निर्णय प्रजापति को करना था। ब्रह्मा जी कारण खोजने और उपाय खोजने के लिए समाधिस्थ हो गए।

 उनने देखा देवता आलसी और प्रमादी हो गए हैं। सो अन्य गुणों का बाहुल्य होते हुए भी इन दो कमियों के कारण वे जीत न सकेंगे। संयमी और पराक्रमी सेनापति की नियुक्ति होनी चाहिए।

उन दिनों भू लोक में राजा मुचकुंद की समता संयम और पराक्रम में कर सकने वाला और कोई नहीं था। सो उन्हें ही प्रजापति के आदेश से देव वाहनी का सेनापति बना दिया गया। उनने आते ही माहौल बदल दिया। हारते हुए देवता जीतने लगे।

युद्ध लंबे दिन चला। साथ ही पासा भी पलटने लगा। असुर फिर तगड़े पड़ते गए और देवता जीती बाजी हारने लगे। चिंताजनक स्थिति से प्रजापति को अवगत कराया गया। उनने देखा कि विजय मिलते देखकर मुचकुंद अहंकारी होने लगा है। विजय के लिए अपेक्षित गुणों में संयम और पराक्रम की ही तरह निरहंकारिता भी एक महत्त्वपूर्ण गुण है। वह घटने लगी हो तो समझना चाहिए, पराभव के दुर्दिन आ गए।

मुचकुन्द को भूल सुधार वाले साधन करने के लिए कहा गया। नम्रता का अभ्यास करने में देर लगते देखकर नए सेनापति की नियुक्ति आवश्यक हो गई।

इसके लिए कार्तिकेय उपयुक्त पाए गए। उनमें तीनों विशेषताएँ थीं। अतएव नए सेनापति वे ही बने और नई रणनीति अपनाकर दैत्य समुदाय पर विजय प्राप्त कर सकने में सफल हुए।


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