धरती का देवता....

March 1987

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एक बार स्वर्ग के देवता धरती पर विचरण करने आये। उन्हें आशा थी कि धरती के निवासी उनका विपुल स्वगत करेंगे।

उन दीनों खेतों में अनाज के पौधे लहलहा रहे थे। कलियाँ और बालें निकल रही थीं। लोग उन्हें देखकर फूले नहीं समा रहे थे। चारों ओर मस्ती छाई हुई थी, जहाँ देखो वहाँ बसन्तोत्सव मनाया जा रहा था। देवताओं के तरफ किसी ने आँख उठा कर भी नहीं देखा। उन्हें जिस स्वागत की आशा थी वह उन्हें कहीं भी नहीं मिला। वरदान देने की क्षमता पर उन्हें जो वर्ग था वह गल चला।

वे सोचते थे कि अभावग्रस्त मनुष्य उनकी अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए बहुत गिड़गिड़ायेंगे और न जाने क्या-क्या माँगेंगे। याचकों की मनोकामनापूर्ण करने वाला सदा यशस्वी होता है और मान पाता है। देवता इसी आनन्द लेने को पृथ्वी पर आये थे। जिसके पास वरदान देने की क्षमता हो उसके लिए वैसी चाहना उचित भी थी। जब देवता निराश लौटने लगे तो उनने धरती से पूछा - “तुम्हारे पुत्र किस उपलब्धि में हर्ष-विभोर हो रहे हैं? ये हमसे क्यों कोई याचना करने नहीं आते?”

धरती ने इतनी दूर से पधारे हुए अपने मान्य अतिथियों का झुक-झुककर स्वागत किया और नम्रतापूर्वक बोली- “इस लोक में यहाँ का भी एक देवता है, वह भी आपकी ही तरह सामर्थ्यवान है। मेरे पुत्र उसी की पूजा करते हैं और फलस्वरूप जो चाहते हैं सो प्राप्त कर लेते हैं। आजकल उसी की अनुकम्पा यहाँ बरस रही है, सो सबका मन उसी के स्वागत में लगा हुआ हैं। आप कुसमय आये। यदि दूसरे दिनों में आते तो सम्भव है आपकी भी अर्चना होती।”

“देवताओं के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उनने पूछा-भला इस मनुष्य-लोक में भी कोई देवता बसता है? और वह हम लोगों की तरह ही सामर्थ्यवान है? ऐसा हमें अब तक विदित न था, यदि ऐसा है तो उसका नाम बताओ, स्थान दिखाओ।”

धरती मुस्कराई। उसने एक मनुष्य को पास बुलाया और उसकी हथेली दिखाते हुए कहा, वह देवता यहाँ रहता है, खेत-खेत में उसी विभूति बिखरी पड़ी हैं। मेरे सब पुत्रों का भरण-पोषण उसी के द्वारा होता है। श्री और समृद्धि, सफलता और प्रगति सभी कुछ तो उससे मिलता रहता हैं।

हथेली में रहने वाला, न दीखने वाला और इतनी विभूतियों का अधिपति भला कौन देवता होगा? स्वर्ग से पधारने वाले अतिथियों के लिए यह एक पहेली थी। वे उसे न सुलझा सके तो पूछने लगे- “देवी! जरा और स्पष्ट करो। उसका नाम रूप तो बताओ?”

धरती की छाती गर्व से तन गई, उसने कहा-” वह देवता है, “श्रम”। मेरे पुत्रों ने उसी की आराधना करने की ठान-ठानी है और वे आज नहीं तो कल इस लोक में स्वर्ग की रचना करेंगे? खेत-खेत पर हरियाली के रूप में यह श्रम ही लहलहा रहा है। जहाँ भी इस देवता की अर्चना होती है, वहीं विभूतियाँ हाथ बाँध कर आ खड़ी होती हैं।

जहाँ श्रम की पूजा होती है वहाँ कोई ऐसी कमी नहीं रह सकती जिसके लिए देवताओं को कष्ट करना पड़े। इस तथ्य और सत्य के साथ-साथ स्वर्ग निवासियों ने वस्तु स्थिति को समझा और वे अपनी निरुपयोगिता एवं मनुष्य की उपेक्षा का रहस्य समझते हुए अपने लोक को वापस चले गये।

देवता होते हैं या नहीं, स्वर्ग कहीं है भी कि नहीं, इस विवाद में न उलझकर एक तथ्य इस आख्यान से स्पष्ट होता है कि सुरपुर के जिस भगवान को हम युग-युग से खोज रहे हैं, उस पर व्यर्थ बहस समयक्षेप करते ही नहीं, आपस में लड़ते भी हैं, उसके एक गुण को भी धरतीवासी अपने अंदर उतार लें तो मानव में देवत्व के अवतरण की उक्ति सार्थक हो सकती है। कर्मयोगी को अपनाने की प्रेरणा देने वाला वह धरती का देवता श्रम है, जिसके माध्यम से सर्वांगपूर्ण प्रगति का पथ प्रशस्त किया जा सकता है।


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