राजतंत्र और धर्मतंत्र का परस्पर अविच्छिन्न संबंध माना गया है। दोनों में कौन श्रेष्ठ या वरिष्ठ है, कौन छोटा या कनिष्ठ। इस विवाद में न उलझकर एक संस्कृति -सत्य हर व्यक्ति स्वीकार करता है कि जिस युग में धर्मतंत्र परिपक्व एवं सशक्त होता है तथा अपना अंकुश राजतंत्र पर बनाए रखता है, उसे सतत् मार्गदर्शन देता रहता है, उसमे सर्वत्र सुव्यवस्था बनी रहती है। राजतंत्र का जहाँ दायित्व है कि वह सतत् सामने आने वाली समस्याओं प्रतिकूलताओं हेतु धर्मतंत्र का मार्गदर्शन ले, वहीं धर्मतंत्र को संभालने वाले अग्रदूतों का यह कर्तव्य है कि वे अपना आत्मसम्मान बनाए रखकर व्यक्तित्व का स्तर इतना ऊँचा बनाए रखें कि सहज ही जनसम्मान उन्हें मिलता रहे। सतयुगी व्यवस्था में यही होता रहा है एवं पुरोहित, ऋषिगण, मनीषी सदैव शासन तंत्र के पुरोधा, मार्गदर्शक रहे हैं।
आज स्थिति उलटी है। राजा-रजवाड़े तो नहीं रहे, पर 'साहब संस्कृति' अवश्य विद्यमान है। शासन तंत्र को संभालने वालों को जहाँ सुगठित, सुव्यवस्थित एवं लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में संलग्न होना चाहिए था, वहाँ वे अपना स्वार्थ भर पूरा करते दिखाई पड़ते हैं। चाटुकारिता ही चारों ओर संव्याप्त है। भ्रष्ट आचरण दैनन्दिन जीवन का एक अंग बन गया है। जहाँ उन्हें धर्मतंत्र से दिशा लेना अभीष्ट था,वहाँ इसके विपरीत वे 'तंत्र' की शरण में इधर-उधर भटकने, चमत्कारों की खोज में डोलने, गद्दी बचाने हेतु विभिन्न बाबाओं की शरण में जाने लगे हैं। लोक नेतृत्व करनेवालों को, स्वयं को अंधविश्वास में लिप्त देख जनता उनसे क्या दिशा लेगी? दूसरी ओर एक कटु सत्य यह भी हैं कि चारों ओर दृष्टि घुमाने पर भी कहीं कोई ऐसा तंत्र अध्यात्म क्षेत्र में भी नहीं दिखाई पड़ता, जो शासन को सही दिशा दे। उलटे शासनतंत्र के सूत्रधारों-विभिन्न नेतागणों का सम्मान करते हमारे अपने ही पूज्य कहे जाने वाले महात्मागण दिखाई पड़ते हैं। यह सब देखकर लगता है, गंगा उलटी कैसे बहने लगी? यह तो कभी आर्षकालीन महामानवों ने विचारा भी न होगा कि उनके उत्तराधिकारी अपने अनुयायीगणों को शिक्षा व मार्गदर्शन देने के बजाय स्वयं उनके आसपास मंडराने लगेंगे।
वस्तुतः यह इस देश की सनातन परंपरा व स्वयं में एक विशेषता रही है कि मनीषी, विद्वान, महात्मागणों ने कभी राजाश्रय की आवश्यकता नहीं समझी। इसी भारतवर्ष में एक मनीषी हुए थे। जब उनका अंतिम समय समीप आया तो राजन् उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछने आए। उन्होंने अंतिम शब्द मात्र यही कहे कि “आप मेरे बच्चे को इतनी शिक्षा भर दिला दीजिएगा। कि वह किसी धनपति अथवा शासनतंत्र की कृपा का भिखारी न रहे।” राजा ने यही किया। उस बच्चे को ज्ञानार्जन के लिए काशी भेज दिया। जिन पुरोहित के संरक्षण में वह बच्चा पल रहा था, उन्होंने उसके युवा होने तथा समुचित ज्ञान अर्जित करने पर कहा कि अब तुम कुछ भेंट लेकर राजा के पास जाओ व उन्हें नमनकर अपने अर्जित ज्ञान का प्रमाण दो। मात्र बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किए हुए उस ऋषिपुत्र ने जैसा बताया गया था, वही किया। राजा का बुलावा आने पर खुशामदी रुख अपनाते हुए राजा को भेंट दी एवं चरणों में सिर नवाया। राजा उसकी चापलूसी चेष्टा देखकर निराश हुए। उन्होंने उस युवक से पुनः शिक्षा प्राप्त करने हेतु काशी जाने को कहा। पुनः कुछ वर्षों तक उस युवक ने वेदांत, दर्शन तत्त्वज्ञान में महारथ हो राजदरबार में अपनी उपस्थिति दी एवं इस बार पहली बार से भी अधिक भाँति-भाँति के उपहार भेंट किए। भाव भंगिमा में विनम्रता इतनी कि कोई खुशामद पसंद करनेवाला राजा प्रसन्न हो ऊँचा पद दे देता। राजा को मनीषी के वचन याद थे। उन्होंने निराश होकर सोचा कि इसका ब्राह्मणत्व अभी भी नहीं जागा है। आत्मसम्मान इसमें विकसित हुआ नहीं, फिर पुरोहित पद देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
इस बार भी राजा ने उपेक्षा दिखाते हुए कहा कि और ज्ञान अर्जित करो, अभी कमी है। युवक की समझ में कुछ नहीं आया। उसे लगा या तो यह राजा विद्वत्ता का सम्मान करना नहीं जानता या फिर यह मेरी परीक्षा ले रहा है। ऐसा सोचते हुए वह पुनः बंगाल देश चल पड़ा ताकि योग, शास्त्र, व्याकरण आदि का और भी उच्चस्तरीय अध्ययन कर वह राजा को प्रसन्न कर सके। एक वर्ष के परिश्रम के बाद वह लौटा तो अगणित उपहार साथ थे जो प्रसन्न होकर वहाँ के धनपतियों ने दिए थे। सब राजा के समक्ष रखकर उसने साष्टांग प्रणाम किया। जब तक राजा ने उठने को नहीं कहा, वह विद्वान उठा नहीं। किंतु उठने पर उसने नरेश की वही रूखी तटस्थ मुद्रा देखी। न स्वागत, न सत्कार। न कोई पद या उपाधि। निराश हो वह नदी किनारे चिंतन करता हुआ भ्रमण करने निकला। जीवन उसे व्यर्थ लगने लगा था। देर रात तक बैठा सोचता रहा, क्या करें? एक साधु वहाँ से गुजरे। उनकी दिव्य दृष्टि ने हीरे की परख कर ली व छिपे हुए दोष की भी। पहले उससे उसकी गाथा सुनी, फिर उससे बोले—"जिस शास्त्र ज्ञान को तुमने अर्जित किया, उस पर मनन क्यों नहीं किया? क्या तुम्हें पातंजलि का योग सूत्र एवं गीता का “समत्वं योग उच्यते” वाला तत्त्वदर्शन यह नहीं सिखाता कि आत्मिक संपदा से संपन्न विभूतिवान को किसी प्रकार की राजकृपारूपी भिक्षा नहीं चाहिए। तुम्हारा आत्मसम्मान, अन्दर का ब्राह्मणत्व तो इस ज्ञान से और भी प्रखर होना था। किंतु तुम तो उसे भी गिरा बैठे।”
युवक द्वारा भावी मार्गदर्शन माँगे जाने पर साधु ने कहा—“अब इस तत्त्वदर्शन को जीवन में उतारो। योग-चित्तवृत्ति निरोध का नाम है। इसके उच्चतर सोपानों को प्राप्त करो। पूरी लगन से तप करो, इतना प्रचंड तप कि स्वयं इन्द्र भी सारा वैभव तुम्हारे चरणों पर रख दें, तो तुम्हें आत्म सत्ता के समक्ष वह भी तुच्छ लगे।”
युवक ने जो कुछ सीखा-पढ़ा था, उस पर अमल करते हुए स्वयं को साधना पुरुषार्थ में नियोजित कर दिया। उसे सांसारिक वैभव से कोई मतलब नहीं रह गया। निराहार रहता व सतत् साधनारत रहता। धीरे-धीरे कीर्ति फैली। लोग आते, चरणों में धन-संपदा-फल पुष्प रखते, पर योगीराज ने कभी उन पर दृष्टि नहीं डाली। समाचार राजा के कानों तक पहुँचा। पता चला वही युवक है जो पहले उनके आदेश पर ज्ञानार्जन हेतु गया था। राजा ने एक परीक्षा और लेनी चाही। अपने प्रधान मंत्री को योगीराज की सेवा में भेजा, कहा—”उन्हें यहाँ लेकर आओ।” मंत्री जी ने भी जाकर देखा कि यह तो वही युवक है। उन्होंने भी लगभग आदेशात्मक भाषा में कहा—"राजाज्ञा है कि आप हमारे साथ चलें।” योगीराज ने शांत संतुलित स्वर में कहा—” हम तो एक परब्रह्म का अनुशासन मानते हैं। किसी राजा की आज्ञा का यहाँ कोई महत्त्व नहीं। अपने राजा से कह दो कि यदि वे स्वयं आकर मिलना चाहें तो हम कुछ क्षण उन्हें यहाँ आश्रम में दे देंगे। राजा अपनी शासन-व्यवस्था संबंधी कोई परामर्श चाहें तो हम कुछ क्षण उन्हें यहाँ आश्रम में दे देंगे। राजा अपनी शासन-व्यवस्था संबंधी कोई परामर्श चाहें तो हमें देने में कोई संकोच नहीं। वह हमारा कर्त्तव्य है।” हतप्रभ मंत्री ने जाकर जब राजा को सारी बात बताई तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने समझ लिया कि जो उस युवक से चाहते थे, वह उसने अर्जित कर लिया।
राजा ने जाकर पूरे सम्मान के साथ याचना की कि “अब आप चलिए एवं राज पुरोहित बन शासन का सूत्र संचालन करिए।“ योगीराज ने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि “अब मेरा स्थान जहाँ है, वहीं ठीक है। आप वहीं रहें व राज्य को हमारी अमानत मानकर चलाते रहें। जब भी आप चाहें, मार्गदर्शन लेने आ सकते हैं।” राजा ने उनके चरणों में मस्तक नवाया व कहा—” आप धन्य हैं। आपने धर्मतंत्र की न केवल लाज रखी बल्कि उसे पुनः अपने उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया है। आप यहीं आश्रम में साधना करते रहें। हम पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें। कभी मार्ग से विचलित होता देखें तो मार्गदर्शन देते रहें।”
इस कथा के समापन पर आज की परिस्थितियों में पुनः प्रश्न उठता है कि क्या मनीषी वर्ग को, अध्यात्म तंत्र के अधिष्ठाताओं को, शासन तंत्र का आश्रय लेना शोभा देता है? क्या महामण्डलेश्वरों, संस्कृति के अग्रदूतों का आत्मसम्मान उसी स्थिति को नहीं पहुँच गया है जैसा कि कथा में वर्णित युवक के माध्यम से बतलाया गया। यदि ऐसा है तो पुनः पुरोहित वर्ग को आमूलचूल मंथन, आत्म विश्लेषण करना व उस सम्मानास्पद स्थिति तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए, जिसके वे पूर्व में अधिकारी रहे हैं।