जापान क्षेत्र की “जेन” साधना

March 1987

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जापान तथा उसके समीपवर्ती देशों में 'जेन' साधना का अभी भी अच्छा खासा प्रचलन है। यों अब उस क्षेत्र में भी वैज्ञानिकता के साथ नास्तिकता बढ़ी है और भौतिक सुविधा समृद्धि पर ध्यान केंद्रित हो गया है, तो भी आत्मवाद पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। उसका स्वरूप मात्र विचार दर्शन जैसा नहीं रह गया है, वरन् अभी भी सांस्कृतिक परंपराओं में सम्मिलित करके किसी न किसी रूप में जीवन व्यवहार में कार्यान्वित किया जाता हैं।

ताओधर्म, कन्फ्यूशियस परंपरा और बौद्ध धर्म का समन्वय उस देश में हुआ है। तीनों के प्रतिपादन एक दूसरे से बहुत कुछ मिलते जुलते हैं। इसके लिए उनका समन्वय सरलतापूर्वक हो गया है। सब ओर से एक शैली का प्रतिपादन बन पड़ने से उस संदर्भ में श्रद्धा बढ़ती है और शंका कुशंकाओं का सिलसिला समाप्त होता है। जिस विचारधारा को तर्कों और विग्रहों के बीच नहीं गुजरना पड़ता, उनकी नींव गहरी और मजबूत होती चली जाती है। जापान से लेकर चीन, कोरिया जैसे मंगोल क्षेत्रों की भावनात्मक एकता का भी यही कारण है।

उपासना क्षेत्र में वहाँ अन्यान्य पूजा-प्रार्थनाएँ भी चलती हैं, पर असाधारण वरिष्ठता और प्रतिभा ‘जेन’ साधना की है। जापान के तोकुफु मंदिर में इसके उपदेष्टाओं एवं अभ्यासियों का अच्छा खासा जमघट रहता हैं। कभी-कभी तो अभ्यासियों की संख्या हजारों तक पहुँच जाती है। मौसम प्रतिकूल होने तथा व्यस्तता के दिन आने पर भी तोकुफु का प्रांगण साधकों से भरा ही रहता है।

जिनने प्रवीणता प्राप्त कर ली है। वे वापस लौटकर अपने-अपने क्षेत्र में इस उपासना पद्धति के लिए प्रचार करते हैं। इसके लिए उन्हें पुरातन बौद्ध मंदिरों की खाली पड़ी जगह उपयोग के लिए आसानी से मिल जाती है। जेन साधना में जीवन की पवित्रता प्रथम शर्त है। साधकों को अपना आहार सात्विक रखना पड़ता है। बीच बीच में उन्हें कुछ दिन उपवास करते हुए भी बिताने पड़ते हैं। ब्रह्मचर्य संबंधी मर्यादाओं का पालन भी सभी साधकों के लिए आवश्यक है। जो गृहस्थ जितने समय के लिए आश्रम में प्रवेश करते हैं उन्हें उतने समय ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना पड़ता है। वे पुरातन काल की संस्कृति से जुड़े हुए वस्त्र पहनते हैं। यों आधुनिक वस्त्र पहने रहने की भी छूट किन्हीं-किन्हीं प्रार्थियों को मिल जाती है, सभी को नम्र रहना पड़ता है, एक दूसरे के साथ मधुर भाषण और प्रेम प्रदर्शन में सभी आश्रमवासी उत्साह दिखाते हैं।

जेन-साधना का प्रत्यक्ष स्वरूप है—मौन रहकर आत्मचिंतन में निरत रहना। साधना की अधिकांश अवधि ध्यान में बीतती है। इस बीच वातावरण को इतना शांत रखा जाता है कि साधकों के ध्यान में किसी प्रकार का विघ्न न पड़े। ध्यान में ज्योति के ध्यान की प्रधानता रहती है। साधक द्वारा धारणा की जाती है कि यह सर्वव्यापी प्रकाश ऊर्जा सचेतन रूप से समस्त ब्रह्मांड में संव्याप्त है और वही साधक के ध्यान आकर्षण से विशेष मात्रा में आकर्षित होकर काय कलेवर के प्रत्येक कण में संव्याप्त हो रही है। इस मान्यता को अधिकाधिक परिपक्व करने के लिए साधक नेत्र बंद करके प्रत्येक अंग का क्रमशः ध्यान करता जाता है और अनुभव करता जाता है कि उसकी काया का कोई अंग ऐसा नहीं बचा जिसमें ज्योति ऊर्जा की स्थापना परिलक्षित न होती हो इस क्रम को कई घंटे लगातार जारी रखा जाता है। बीच में पानी पीने, पेशाब जाने, जैसी निवृत्तियों के लिए साधक सीमित समय के लिए उठ भी सकता है, पर वह विराम, विश्राम, अधिक देरी करने वाला नहीं होना चाहिए।

कुछ साधकों की पसंदगी बुद्ध की छवि के साथ तादात्म्य करने की होती है। वैसा कर सकते हैं। इसमें भी द्वैत को अद्वैत में विकसित करने का प्रयत्न रहता है। आरंभ में प्रकाश ज्योति की तरह प्रतिमा भी निकट से कल्पित करनी पड़ती है, पर प्रयत्न यह चलता है कि इसकी पृथकता घनिष्ठता में बदलती जाए  और वह निकट से निकटतम होने लगे। दो शरीर मिलें और भक्त में भगवान और भगवान में भक्त पूरी तरह समा जाएँ। ज्योति धारण के बीच भी यही धारणा रहती है। आरंभ में प्रकाश पिंड कुछ दूरी पर रहता है। उसके उपरांत साधना में जैसे-जैसे अध्यात्म परिपक्व होता जाता है वैसे-वैसे प्रकाश निकटतम आता जाता है और उसे प्रचंड ज्वाल माल की तरह विकसित करते हुए साधक अपनी काया को उसमें होम देता है। आग में पड़ा ईंधन भी अग्निवत हो जाता है। ठीक उसी प्रकार संत अपनी सत्ता को प्रकाश पुंज में विसर्जित करके पूरी तरह एकात्म स्थापित कर लेता है।  इस अभ्यास में अवयवों को ज्योतिर्मय तो देखा ही जाता है, साथ ही उस ज्योति को पवित्रता और प्रखरता का प्रतीक मानकर यह धारणा भी विकसित की जाती है, कि वे दोनों सत्प्रवृत्तियाँ अपने स्वभाव का अंग बनती जा रही हैं। इस ध्यान से उठते ही साधक को अपने भीतर और बाहर पवित्रता और प्रखरता की आभा फैली अनुभव होती है। मनोवांछित स्थिति का अनुभव करते हुए साधक उत्साह और आनंद से भर जाता है।

यही बात बुद्ध आकृति के साथ तादात्म्य करने का अभ्यास करने पर भी अनुभूति होती है। दूरी को निकटता में लाना और फिर उसमें तादात्म्य हो जाना यह तो प्रयास रहता है। फलतः इसकी प्रगति भी उसी प्रकार होती है। इष्ट देव अपनी सत्ता में समा जाते हैं और स्वयं की आत्मसत्ता का विलय इष्ट देव में हो जाता है। माता के गर्भ में जिस प्रकार भ्रूण रहता है, उस स्थिति की अनुभूति आरंभिक दिनों में होती है। पीछे पूर्ण सफलता की स्थिति में अनुभव यह होने लगता है कि इस प्रकार रक्त नलिकाओं में उक्त देवता रहता है, वैसे ही इष्ट देव को नाड़ी समूह मानकर उसके भीतर स्वयं के रंग रूप में भ्रमण करने की धारणा की जाती है। इस अनुभूति से बुद्ध की आध्यात्मिक गरिमा साधक को अपने में प्रवेश करती एवं कार्यरत होती दीख पड़ती है।

ज्योति के साथ एकात्मता में भी यही भाव मन में उठाया जाता है कि प्रकाश परब्रह्म का प्रतिनिधि है। भगवान् समस्त सद्गुणों के भंडार हैं— उसकी उपस्थिति में दृष्टिकोण में उत्कृष्टता एवं आदर्श का भरपूर समन्वय है। ज्योति धारण करने पर वे विशिष्टताएँ भी साधक को उपलब्ध होती हैं और वह अपने में देवोपम विभूतियाँ उगते और लहराते देखता है। साकार और निराकार मत से बुद्धताओं या प्रकाश का ध्यान अपनी रुचि के अनुरूप चुना जा सकता है। श्रद्धा के अनुरूप मन को एकाग्र एवं तन्मय होने में सुविधा रहती है और आनंद भी आने लगता है। विश्वास की सुनिश्चितता, श्रद्धा की परिपक्वता और प्रसन्नता की प्रफुल्लता की अनुभूति होने लगती है तो समझा जाता है कि साधक सिद्ध स्तर के समीप पहुँच पाया।

'जेन' साधनाओं में इर्द-गिर्द के वातावरण को कोलाहल रहित रखा जाता है। तोकुफु मंदिर में आरती तो होती है, पर घंटे नहीं बजते। किसी प्रयोजन के लिए आने-जाने वाले इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि उनका आवागमन इतना धीमा हो कि किसी साधक की ध्यान धारणा में विघ्न न पड़े। किसी को किसी से बात करनी होती है, तो संकेत से उसे अलग बुलाकर इस प्रयोजन के लिए बने हुए विशेष कक्ष में ले जाता है और जो कुछ पूछना, बताना होता है वह उसे इतने धीमे स्वर में व्यक्त करता है कि किसी का ध्यान न बटे, घुसफुस को सुनकर मन न उचटे। बाहर की इस सतर्कता और बाह्य क्षेत्र के प्रति उपेक्षा भाव रहने से साधारण हलचलें उसके अध्यात्म प्रयोजन में कोई विशेष विघ्न उत्पन्न नहीं कर पातीं और वे अपने मन पर काबू रखकर बिना विचलित हुए आराधना पथपर आरुढ़ रहते हैं।

सभी जेन-साधक कमर को सीधा रखकर बैठते हैं ताकि मेरुदंड चौड़ी, उच्च गुच्छक, चक्र भ्रासर जागृत हो और साधक की सत्ता में अभिनव शक्ति संचार का प्रयोजन पूरा करे।


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