धरती देवताओं की क्रीड़ा भूमि

March 1987

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देव मान्यता और देव पूजा की भावना से भारतीय जन मानस पूरी तरह से भरा हुआ है। उनकी कृपा की सभी आकाँक्षा करते और कोप से डरते हैं। यही कारण है कि समय-समय पर उनकी पूजा उपासना छोटे या बड़े रूप में, साकार या निराकार रूप में होती रहती है। माना जाता है कि वे स्वर्ग नामक ऊर्ध्ववर्ती लोक में रहते हैं और आमंत्रित करने पर मनुष्यों की सहायता के लिए दौड़ आते हैं।

इस संदर्भ में अनेक देशों, दर्शनों में विभिन्न मन्तव्य हैं। उनमें से एक यह है कि मनुष्य की अन्तरात्मा में देव और दैत्य दोनों पक्षों का निवास है। दोनों ही मनुष्य को अपनी-अपनी और खींचते रहते हैं। वह जिसे प्रिय समझता है, उसी की गोद में जा बैठता है। इस तरह वह अपने भविष्य को बुरा या भला स्वयं ही बनाता है। आधे मन से एक का, आधे मन से दूसरे का समर्थन करने से अन्तर्द्वन्द्व खड़ा होता है। फलतः शारीरिक और मानसिक स्वस्थता गड़बड़ाती है। दैत्य नरक में घसीट ले जाता है और देव उसे स्वर्ग गमन में सहायता करता है।

समाज शास्त्रियों का मत है कि मनुष्य में ही तीन वर्ग के लोग हैं। देव, पशु और पिशाच तीनों की आकृति तो एक जैसी होती है पर प्रकृति में अन्तर रहता है। देव सत्प्रयोजनों में निरत रहते हैं। पशुओं को स्वार्थ साधने में ही रस आता है और पिशाच ध्वंस करते एवं त्रास देते रहते हैं।

पुराणों की कथाओं के अनुसार देवता और मनुष्य इसी लोक में घुल मिलकर रहते थे, एक दूसरे का सहयोग भी करते थे और विग्रह भी खड़े करते थे। अर्जुन एवं दशरथ देवताओं के पक्ष में लड़ने के लिए गये थे और रावण, मेघनाद ने कुबेर का वैभव छीन लिया था काल को खाट की पाटी से बाँध लिया था। नारद जब चाहते थे तब विष्णु जी से वार्ता समाधान करने के लिए देव लोक जा पहुँचते थे।

एक प्रकरण ऐसा भी आता है कि गुरु बृहस्पति ने देवताओं की विलास प्रियता से रुष्ट होकर उन्हें शाप दिया था कि तुम लोक अमर तो रहोगे, पर देवलोक में संतानोत्पादन न कर सकोगे। फलतः किसी देवता की उसके बाद कोई संतान नहीं हुई। मेनका को विश्वमित्र से संपर्क सधने आना पड़ता और उनसे उसे शकुन्तला पुत्री प्राप्त हुई जो कण्व ऋषि के आश्रम में पली। उर्वशी अर्जुन से विवाह करना चाहती थी, पर अर्जुन की संयमशीलता के कारण बात बनी नहीं।

कुन्ती को इस विषय में सफलता मिल गई। उसने पाँचों पाँडव देवाराधन के आधार पर तीन अपने और दो माद्री के गर्भ से प्राप्त किये। वे देवताओं की संतान माने गये हैं। उपाख्यान ऐसा भी आता है कि दिति और अदिति नामक महिलाओं से देव और दैत्य उत्पन्न हुए। ईसा का जन्म तो कुमारी मरियम के पेट से हुआ था, पर उनके पिता स्वर्गस्थ परमात्मा थे।

देवताओं को जब सन्तानोत्पादन की आवश्यकता हुई तब उन्हें मनुष्य लोकवासियों के साथ ही संपर्क साधना पड़ा है। शिवाजी पृथ्वी पर आये, कैलाश पर्वत पर रहे। राजा हिमांचल की कन्या पर्वती के साथ उनका विवाह हुआ और उन्हीं से दो पुत्र प्राप्त हुए।

अवतारों को जन्म धारण करने के लिए पृथ्वी पर ही आना पड़ा है। उनमें से अधिकाँश मनुष्य माता पिता के संयोग से ही जन्मे हैं। राम के अनन्य सहायक हनुमान को पवन पुत्र माना जाता है।

डार्विन ने मनुष्य के विकासवाद की कड़ी मनुष्य के पूर्वज बन्दर के साथ जोड़ी है। पर वे भी यहाँ मौन है कि इतना अद्भुत मस्तिष्क उसे किस परम्परा के आधार पर मिला। मानवी मस्तिष्क उसे किस परम्परा के आधार पर मिला। मानवी मस्तिष्क गुह्य विधाओं का भण्डार है। उसमें जीवन निर्वाह की कल्पना और चतुरता का विकास भौतिक अनुभवों से उपलब्ध हुआ है, पर आदर्शों के प्रति त्याग-बलिदान करने की प्रवृत्ति प्राणि परम्परा में नहीं आती। वह दैवी विभूति है इसी प्रकार अतीन्द्रिय क्षमताओं के संबंध में अभी जितनी जानकारी प्राप्त हो सकी है, वह भी कम चमत्कारी नहीं है फिर भविष्य में जिन विशेषताओं के हस्तगत होने की आशा की जाती है, वे उसी स्तर की हैं जैसी कि ऋषियों को देवताओं के अनुग्रह से उपलब्ध होती थीं। मानवी मस्तिष्क ने संसार में हलचल मचा दी है। ज्ञान और विज्ञान के अनेकानेक प्रसंगों में चमत्कार उपलब्ध किये हैं पर विशेषज्ञों के अनुसार यह सब मस्तिष्क के साथ प्रतिशत भाग का चमत्कार है। 93 प्रतिशत तो गुह्य भाग ऐसा है जिसे जगा लिए जाने पर मनुष्य देवताओं के समतुल्य इसी शरीर में रहते हुए बन सकता है।

लुप्त प्रायः संस्कृतियों के ध्वंसावशेष ऐसे मिले हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि मनुष्य अब की अपेक्षा भूतकाल में कहीं अधिक सुविकसित और सुसंस्कृत रहा है। दक्षिण अमेरिका में ऐसी अनेक अंतर्ग्रही वेधशालाएँ पाई गई हैं जो उच्च लोकों के साथ धरती के संबंध जुड़े रहने की बात को भी पुष्टि करती हैं। ईस्टर द्वीप की विशालकाय प्रतिमाओं के संबंध में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे मनुष्य के साधनों से कब किस प्रकार बन सकी होंगी? बात तो पिरामिडों तक के संबंध में ऐसी ही कही जाती है।

जर्मनी के वैज्ञानिक “ऐरिकवान डैनिकेन” ने अपनी शोध पुस्तकों में विश्व भ्रमण के वर्णनों और देवताओं के बीच 11 अगस्त 134 ईसा से पूर्व तक घनिष्ठ संबंध रहे हैं और वे इस धरती सुसम्पन्न बनाने के लिए ऐसे काम करते रहे हैं, जो केवल मनुष्यों के तत्कालीन ज्ञान और साधनों के अनुसार किसी प्रकार संभव नहीं थे। इस बात को अब प्रायः 5000 वर्ष होने को आये हैं जिसमें देवता और मनुष्यों के संबंध शिथिल हो गये। इसका कारण धरती निवासी मनुष्यों के आचार, व्यवहार एवं विश्वास में निकृष्टता की मात्रा बढ़ जाना हैं।

पृथ्वी पर जिस प्रकार अंतर्ग्रही शक्तियाँ उत्तरी ध्रुव पर उतरती हैं, उसी प्रकार मानवी मस्तिष्क के ब्रह्मरंध्र केन्द्र की संरचना है। उसमें ब्रह्माण्डीय चेतना के अभीष्ट अंशों को आकर्षित और प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उसी भाव को सक्षम बनाने के लिए ध्यानयोग की साधना की जाती है।

श्री कृष्ण ने अपनी ही आकृति प्रकृति का पुत्र प्रद्युम्न पैदा किया था। अर्जुन ने महापराक्रमी अभिमन्यु को जन्म दिया था। अनेक ऋषियों ने भी अपने ही योग्यता के समतुल्य बालक जने थे, इसमें मात्र मानवी रज-वीर्य ही नहीं वरन् आह्वान किया हुआ दैवी अंश भी सम्मिलित था। अब लोग कामुकता प्रधान हो गये हैं और उच्चस्तरीय दैवी विशेषताओं वाली नई पीढ़ी विनिर्मित करने का विशेष प्रयास नहीं करते। अन्यथा इस भारत भूमि पर जन्मे 33 कोटि देवताओं जैसी हर नई पीढ़ी का निर्माण हो सकता है। इसके लिए आवश्यक यह है कि मानवी काय कलेवर में देवत्व की मात्रा का निरन्तर अभिवर्धन किया जाय।


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