प्रज्ञा समारोहों के साथ जुड़ी हुई अमृताशन प्रक्रिया

March 1987

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इस वर्ष भारत भूमि को देव भूमि, यज्ञ भूमि बनाने के लिए राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों सहित गायत्री महायज्ञों की धूम है। वातावरण परिवर्तन समग्र प्रदूषण का परिशोधन शारीरिक मानसिक स्वरूप का सम्वर्धन, सत्प्रवृत्तियों का उन्नयन, दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन जैसे अनेकों शास्त्रोक्त प्रयोजन इस पुण्य प्रक्रिया के साथ जुड़े हुए हैं। जहाँ भी समर्थ प्रज्ञा परिवार हैं, उन सभी ने अपने-अपने यहाँ इन आयोजनों को रखा है। सभी आमंत्रणकर्ताओं को तो स्वीकृति नहीं दी जा सकी। प्रस्तुत माँगों को सम्भवतः अगले एक पर्ष में पूरा किया जा सकेगा। यह श्रृंखला आगे भी चलती रहेगी। इन कार्यक्रमों के लिए सभी आवश्यक वस्तुएँ शान्तिकुँज के ट्रक यथा समय पहुँचा देते हैं। फलतः संयोजकों के ऊपर भाग दौड़ और अर्थ व्यवस्था का भार बहुत हल्का हो जाता है। समय की विषमता को देखते हुए संगठन सुरक्षा, सहकारिता एवं सुधार परिवर्तन की आवश्यकता सर्वत्र समझी गई है, और उसकी पूर्ति इन आयोजनों से जिस प्रकार होती देखी जा रही है। उससे जन साधारण की इन समारोहों की आवश्यकता अनुभव हुई है। फलतः उनमें सम्मिलित होने-प्रेरणा ग्रहण करने के लिए इतनी बड़ी संख्या में जन समुदाय एकत्रित होता देखा गया है, जिसकी जिसकी किसी को आशा नहीं थी। गुरुदेव जब प्रवास में जाते थे, तब भी उन्हें देखने सुनने के लिए हजारों की संख्या में लोग आते थे, पर अब जब कि वे शरीर समेत कहीं नहीं जाते मात्र सूक्ष्म शरीर से ही पहुँचते हैं तब लोगों की श्रद्धा, भावना, उमंग एवं उत्सुकता पहले की अपेक्षा कई गुनी बढ़ी है। इसका प्रमाण प्रस्तुत आयोजनों की उपस्थिति एवं सफलता को देखकर सहज ही देखी, समझी जा सकता हैं।

हजारों लाखों की भावुक उपस्थिति में से प्रत्येक की राष्ट्रीय एकता अखण्डता की-सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की शपथ यज्ञाग्नि की साक्षी में संकल्प संस्कार कराते हुए करने पर यह सम्भावना अनेक गुनी बढ़ जाती है। कि जो व्रत जिन-जिन ने लिए हैं वे उसका निर्वाह प्रतिज्ञापूर्वक करेंगे। यही करने के लिए संगीत एवं प्रवचनों द्वारा उपस्थित समुदाय में कहा जाता है। अनेक दृष्टियों से समीझा, परीक्षा करने पर उन समारोहों को असाधारण रूप से उपयोगी पाया गया है। इस आयोजन प्रक्रिया की-मिशन की सामयिक सूझ-बूझ एवं समाज को मिलने वाली महती उपलब्धि समझा जा रहा है।

इन आयोजनों के साथ एक और सुधार परिवर्तन कार्यक्रम चल रहा हैं जैसे मानव भविष्य को असाधारण रूप से उज्ज्वल बनाने वाला कहा जा सकता है।

सभी आयोजनों के साथ अमृताशन के विशालकाय प्रीतिभोज होते हैं। इसमें सभी जाति वर्ण सम्प्रदायों के लोग प्रसन्नता पूर्वक प्रीतिभोज का आनन्द लेते हैं। इन प्रीतिभोजों में उपस्थिति भी आश्चर्यजनक होती है। जिन्हें भूख नहीं है या परोसे गये पदार्थ में रुचि नहीं है वे भी शिष्टाचार अनुशासन, समर्थन एवं दूरगामी परिणाम का ध्यान रखते हुए सहभागी अवश्य बनते हैं।

अमृताशन से तात्पर्य है उबला हुआ अन्न। उदाहरणार्थ चावल; दाल, खिचड़ी, दलिया, आदि। इस प्रकार की भोजन को पुरानी प्रथा के अनुसार ‘कच्चा’ या सखरा कहा जाता है। उसे जति कुटुम्ब की सीमा में ही खाया जाता है। दूसरी बिरादरी के यहाँ खाने में छूत लगती है और मर्यादा भंग होती है। यह मनुष्य-मनुष्य के बीच में एक बड़ी दीवार है। इसे गिराने से मिशन का वह उद्घोष पूरा होता है। जिसमें बार-बार “नर और नारी एक समान” जाति वंश सब एक समान। की मान्यता व्यापक बनाने का प्रयत्न किया जाता है। कच्चा भोजन (दाल, चावल) एक साथ सभी वर्ण वालों को बैठकर खाना, एकता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण चरण है। रोटी और बेटी यही दो जाति पाँति के प्रमुख आधार हैं। इसमें से प्रथम चरण में यदि रोटी वाली अड़चन दूर हो जाती है तो दूसरी विवाहों में जाति उपजाति वाले प्रतिबंधों को भी शिथिल होते देखा जा सकेगा।

यह प्रचलन उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर से साहसपूर्वक चला है वहाँ हर दर्शनार्थी को भगवान का प्रसाद दाल चावल के रूप में ही मिलता है। बिना भेद भाव के उसे सभी जाति वंश के लोग ग्रहण करते हैं। सुखाकर घर भी ले जाते हैं। ताकि उसे प्रसाद रूप में सभी वर्णों के लोगों को दिया जा सके और “सखरे–निखरे” के प्रचलित भेद-भाव पर भक्ति भावना के सहारे करारी चोट की जा सके। आमतौर से अन्य देवालयों में लड्डू पकवान शकर की गोली, बताशे पंचामृत जैसी वे ही वस्तुएँ प्रसाद रूप में प्रयुक्त होती हैं, जिन्हें पक्का माना जाता और जिनमें छूत नहीं समझी जाती।

गायत्री यज्ञों के साथ सहभोज की प्रसाद परम्परा भी चलाई जाती है और उपस्थित सभी लोगों को उस प्रसाद को ग्रहण करने के लिए कहा जाता है। भले ही भूख न होने पर वे उसे थोड़ी मात्रा में ही क्यों न ग्रहण करें। मूल प्रयोजन एकता और समानता की भावना को व्यवहार में उतारना है। प्रसन्नता की बात है कि उपस्थित समुदाय में से अधिकांश लोग उसे स्वीकार करते हैं। अत्यधिक पुरातन पंथी ही अपवाद रूप आना-कानी करते और बच निकलने के बहाने बनाते देखे गये हैं।

अमृताशन के दूरगामी लाभ हैं। नैतिक और साँस्कृतिक पुनरुत्थान प्रयोजन के लिए छोटी परिवार गोष्ठियों से लेकर विशाल काय प्रज्ञा समारोहों तक असंख्य सम्मेलन आयोजन होते रहते हैं। इनमें एक विशेष आनन्द प्रीतिभोज का होता है। उसके बिना बात अधूरी रह जाती है। पूड़ी पकवान-श्रमसाध्य, झंझट भरे और महंगे भी पड़ते हैं, साथ ही उनके रहते जाति पाँति का भेद भाव भी परिपुष्ट होता रहता है। जबकि दाल चावल शक का सम्मिश्रण एक वर्तन में उबाला जा सकता है। इस कार्य में एक दो व्यक्ति लग कर भी हजारों का भोजन पका सकते हैं। खाने के लिए पर्याप्त जगह हो तो पंक्ति बद्ध भी बिठाया जा सकता है। अन्यथा पत्ते के दोनों में वह प्रसाद चलते फिरते भी दिया और खड़े-खड़े खाया जा सकता हैं। उद्देश्य यज्ञ का प्रसाद लेकर अपनी भक्ति भावना का परिचय देना और जातिगत भेद-भाव पर करारा प्रहार करना है। लोक मानस के परिष्कार प्रयोजन के लिए गोष्ठियों आयोजनों सम्मेलनों की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। दूर-दूर से चलकर लोग उनमें उत्साहपूर्वक एकत्रित भी होते रहेंगे। समय पर उन्हें भोजन भी चाहिए। इसके लिए अमृताशन व्यवस्था से बढ़कर सस्ता और बनाने में अति सरल माध्यम दूसरा नहीं हो सकता।

चावल भारत के प्रायः आधे क्षेत्र में प्रधान भोजन बना हुआ है। पर जहाँ वह महंगा है या रुचि कर नहीं है वहाँ गेहूँ ज्वार, बाजरा, मक्का आदि अन्य अनाजों का दलिया बना कर चावल की जगह काम में लाया जा सकता है। दाल साग दोनों ही मिलाए जा सके तो ठीक अन्यथा इनमें से किसी एक का भी सम्मिश्रण हो सकता है। पौष्टिक स्वादिष्ट बनाने का मन हो तो तिल, नारियल, मूँगफली जैसे तिलहन का भी समावेश किया जा सकता है। इस प्रकार चावल, दाल का भी आग्रह नहीं रह जाता। स्थानीय अन्नों, शाकों में से जो सरलतापूर्वक मिल सके उसे भी अपने ढंग से पकाकर प्रतिभोज का सरंजाम जुटाया जा सकता है। यज्ञ-भोज के लिए घर-घर अन्न घट रखे जा सकते हैं। एक मुट्ठी अन्न नित्य डालने पर प्रीतिभोज की आर्थिक समस्या का भी समाधान हो सकता है। कई अनाजों कई तेलों कई शाकों का सम्मिश्रण भी अन्नकूट जैसा अनोखा आनन्द दे सकता है। कहाँ क्या व्यवस्था बनाई जाय यह स्थानीय सुविधा और सूझबूझ पर निर्भर है। पर प्रयत्न यह अवश्य किया जाना चाहिए कि प्रज्ञा आयोजनों में प्रसाद रूप ‘अमृताशन’ ही का प्रीतिभोज छोटे या बड़े रूप में सम्पन्न अवश्य होता रहे।

प्रश्न केवल आयोजनों के समय आगन्तुकों के सत्कार का पृथकतावादी कुरीति के उन्मूलन का समर्थक ही नहीं है वरन् मानवी आहार प्रचलन में समग्र परिवर्तन करने का भी। यह एक नितान्त उपयोगी प्रथा है। यह सात्विक आहार पकाने की सरलतम विधि है। कोई नितान्त एकाकी व्यक्ति भी एक स्टोव, एक भगौनी या प्रेशर कर लेकर अपने बल बूते भोजन पकाते खाते रहने की समस्या का स्थायी समाधान कर सकता है। प्रवास में जाना हो तो भी इतना सामान लेकर कहीं भी जाया जा सकता है और उपयुक्त स्थान पर बैठकर आधा घंटे के भीतर खा पकाकर आगे बढ़ा जा सकता हैं।

अगले दिनों ईंधन की समस्या विकट होगी। चित्र विचित्र पकवानों को बनाते रहने की लिए किसी के पास फालतू समय न होना। खाद्य पदार्थ भी कम पड़ेंगे तब इन सभी समस्याओं का समाधान अमृताशन के सहारे निकलेगा। इन दिनों हर क्षेत्र में अपनी-अपनी रुचि का अपने-अपने ढंग का भोजन पकता है। उसमें अनावश्यक रूप से ईंधन और समय का अपव्यय होता है। जब सर्वत्र दैनिक प्रयोग में अमृताशन काम आने लगेगा तो समझना चाहिए कि कठिनाई का आधा समाधान हो गया। सार्वभौम भोजन प्रक्रिया का आधार पर मिल गया।

संसार में कम खाने से जितने लोग मरते हैं उससे दूने अधिक खाने से मरते हैं। अधिक मात्रा में आमतौर से तरह-तरह के स्वादिष्ट पदार्थ बनते रहने के कारण अधिक खाया जाता है। वह मात्रा में अधिक होने के कारण पचने के स्थान पर सड़ता है और असंख्य प्रकार की बीमारियों का निमित्त कारण बनता है। दीर्घ जीवन में बुरी तरह कटौती करता है। यदि अमृताशन अपने स्वभाव का अंग और रसोई घर का सुनिश्चित विधान बन जाय तो इसके एक नहीं अनेक फायदे होंगे। स्त्रियाँ जो सारे दिन चौके में बैठी-बैठी छुन मुन बनाती रहती हैं उन्हें अवकाश मिलेगा और अन्य उपयोगी कार्यों में लग सकेंगी। ठोस भोजन की अपेक्षा उबले हुए खाद्य की आधी मात्र ही पेट भर देती है। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से भी वह कहीं अधिक सस्ता पड़ता है और सुपाच्य होने के कारण शरीर में स्फूर्ति और मन में संतुलन की समस्वरता बनाये रहता हैं। “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली उक्ति शत प्रतिशत सही है। तामसी, राजसी, भोजनों की प्रीतिभोज परिपाटी और गृह परम्परा यदि हट जाती है और उसका स्थान अमृताशन की परम सात्विक क्रिया प्रक्रिया कार्य रूप में आने लगती है तो उसका प्रभाव न केवल ईंधन पर, समय के अपव्यय पर, अधिक खर्चीली रीति–नीति सुधर जाने पर पड़ेगा, वरन् अन्न की सात्विकता-चिन्तन, चरित्र व्यवहार के क्षेत्र में भी सन्तोषजनक सुधार परिवर्तन प्रस्तुत करेगी। इससे प्रचलित अवाँछनीयताओं, अनैतिकताओं में भी अनायास ही सुधार होगा। जो कार्य कष्टसाध्य आध्यात्मिक साधनाओं से भी नहीं बन पड़ता वह इस सतोगुण अन्न ब्रह्म को अपनाने भर से सहज सम्भव हो सकेगा।

एक ही कल्प वृक्ष के अवलम्बन से अनेक कामनाओं की पूर्ति होने की बात कही जाती है। वह कहाँ तक सही है यह तो नहीं कहा जा सकता, पर यह सुनिश्चित है कि अमृताशन के उपयोग का प्रचलन अकेला ही ऐसा है जो व्यक्ति की निजी और सामूहिक समस्याओं का कारगर समाधान प्रस्तुत करता है। इन दिनों चल रहे गायत्री महायज्ञों समेत राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों के साथ जोड़ी गई अमृताशन प्रीतिभोज की परिपाटी उन अनेक सम्भावनाओं का शुभारम्भ करती है जो अनेक दृष्टियों से परम श्रेयस्कर और दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली है।


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