जब अभीप्सा जगे, तो अभीप्सित मिले। जब प्रतीक्षा जागे, तो प्रतीक्षित मिले॥
जब तृषा से धरा ओंइ, पपरा उठे, ताप हरने तभी, मेघ घहरा उठे।
जब पिपासा जगी, तृप्ति इप्सित मिले। जब अभीप्सा जगे, तो अभिप्सित मिले॥
जब तृषातुर विकलता, जगी प्राण में, नहे निर्झर बहे फूट, पाषाण में।
हो द्रवित चित से देव इच्छित मिले। जब अभीप्सा जगे, तो अभीप्सित मिले॥
रस-उपेक्षा लिये, विष-बसाये रहे, स्वाति-घन से सदा मुँह छुपाये हरे।
आप ही, आप से हम, उपेक्षित मिले। जब अभीप्सा जगे, तो अभीप्सित मिले॥
व्यर्थ ही भक्ति, भगवान बदनाम हैं, भाव की शून्यता में, कहाँ राम हैं?
भाव को भेंटते, इष्ट हर्षित मिले। जब अभीप्सा जगे, तो अभीप्सित मिले॥
पात्रता ने किया, पूर्णता का वरण, रिक्तता को मिली, मुक्त सरिता उफन।
घट उड़िल ही पड़े, पात्र विकसित मिले। जब अभीप्सा जगे, जो अभीप्सित मिले॥
*समाप्त*