उन्माद का सहोदर है—आवेश। मस्तिष्क की स्थानीय गड़बड़ी से पागलपन उभरता है। अनिद्रा के लगातार रहने, कोई मानसिक आघात लगने, ज्वर के मस्तिष्कीय क्षेत्र में प्रवेश कर जाने आदि कारणों से लोग पगला जाते हैं। वे अपनी जिम्मेदारी को भूल जाते हैं और बदनामी, आर्थिक हानि आदि क्षतियों का अनुमान नहीं लगा पाते। आपे में नहीं रहते और चाहे जो करने लगते हैं। यह पागलपन के लक्षण हैं।
आवेश में थोड़ा अंतर है। इससे ग्रसित व्यक्ति होश में तो रहता है और अपने स्वरूप को भी याद रखे रहता है, किन्तु जब तैश आता है तो यह ज्ञान नहीं रहता कि इस स्थिति में जो कहा या किया जा रहा है उसका परिणाम क्या होगा? असंतुलित स्थिति में कुछ भी औंधा–सीधा सोचा जा सकता है। तिल का ताड़ और राई का पर्वत बनाया जा सकता है। यह असंतुलन कातरता निराशा में भी परिणत हो सकता है और आक्रामक दिशा अपना लेने पर किसी से भयंकर रूप से टकरा जाने से लेकर हत्या या आत्महत्या तक कर बैठने पर उतारू हो सकता है।
मस्तिष्क की अजीब दशा हो जाती है। जो विचार उग पड़ता है, वह ठंडा ही नहीं होता। नींद उड़ जाती है। जागृति या उनींदा अवस्था में वही विचार हावी रहता है। उतारे से उतरता नहीं। हटाने से हटता नहीं। बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह मनमानी दिशा में दौड़ता रहता है। स्थिति बहुत देर में मुश्किल से ही काबू में आती है। जो चिंतन चल रहा है, उसके विपरीत भी कोई तर्क या तथ्य हो सकता है,यह सूझता नहीं। विकल्प ढूँढ़ने और नई राह खोजने की भी गुंजाइश नहीं रहती। ऐसी दशा में बेलगाम घोड़े की तरह विपत्ति में जा फँसने की दिशा में भी सरपट दौड़ा जा सकता है। किसी भी खाई खड्ड में गिरा जा सकता है।
आवेशों में एक अजीब किस्म की सनक है—कामुकता। प्रकृति प्रवाह के जीवन में इसका स्थान अत्यंत स्वल्प है। नर-मादा जब पूर्ण परिपक्व स्थिति में होते हैं, तो फल के मध्य से पकने वाले बीज की तरह अगली पीढ़ी के सृजन की तैयारी करते हैं। उसी उत्साह की परिपक्वता, प्रौढ़ता का नाम है—कामुकता, जो यौनाचार के लिए आतुरता प्रकट करती है और साथी सहयोगी तलाश करती है।
इस उत्तेजना में एक जैव चुंबकत्व लहराता है, जिसका आरंभ मादा की ओर से होता है, वह परिपक्व स्थिति के नर को उत्तेजित आमंत्रित करता है। फलतः यौनाचार का संयोग बन जाता है और गर्भाधान से नई पीढ़ी का निर्माण का श्री गणेश होता है। अपरिपक्वावस्था में, अल्प वयस्कता में यह उभार नहीं उठता और वृद्धता आने पर शिथिलता की स्थिति में सही प्रजनन बहुधा संभव नहीं होता, इसलिए कि कामोन्माद की प्रवृत्ति समाप्त सी हो जाती है।अन्य प्राणियों की तरह यही प्रकृति नियम मनुष्य पर भी लागू होता है। उनकी कामुकता नारी की चरम विकसित जननोल्लास पर निर्भर रहनी चाहिए। नर बिना आमंत्रण के मादा को नहीं छेड़ता। इन नियमों का मनुष्य भी पालन करे, यह प्रकृति प्रेरणा है। मर्यादा में रहकर ही शांति और व्यवस्थापूर्वक जिया जा सकता है।
प्रकृति का अनुशासन जिनने अंगीकार किया है, उन वनवासी कबीलों अथवा सभ्य समुदायों में विभिन्न आयु के नर-नारी साथ-साथ रहते हैं। वे सभी अपने निर्धारित क्रियाकलापों में लगे रहते हैं। कामुक चिंतन की चपेट में वही मुड़ते हैं जिनकी स्थिति गर्भाधान के उपयुक्त हो गई है। इसके बिना स्वाभाविक रूप से कामुक आवेश उत्पन्न ही नहीं होता और न यौनाचार का अवसर खोजा जाता है।
मनुष्य ने जो अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ स्वभाव में शामिल कर ली हैं, उनमें प्रमुख एक है—कामुकता। इसमें एक प्रतिशत यथार्थता और 99 प्रतिशत काल्पनिक उच्छृंखलता का समावेश रहता है। विपरीत लिंग के सजातीय की मांसलता तथा उत्कंठा के काल्पनिक चित्र गढ़े होते हैं और मिलन संयोग का सपना सँजोया जाता है। बस इतने भर से स्नायविक उत्तेजना आरंभ हो जाती है और ऐसा उपाय सोचने से मानसिकता दौड़ने लगती है। जिससे कल्पना को चरितार्थ करने का अवसर मिले।
सामाजिक मर्यादाओं में पाशविक स्वेच्छाचार की छूट नहीं है। मनुष्य को सामाजिकता के—- नैतिकता के बंधनों से जकड़ा गया है और आचार संहिता अपना कर चलने के लिए मर्यादाओं का अनुबंध सृजा गया है। पर जब मानसिकता आवेशग्रस्त होती है, तो वह वर्जनाओं को तोड़ डालने तक के लिए कटिबद्ध होती है। इससे दांपत्य दायित्वों की लक्ष्मण रेखा टूटती है और पहले मानसिक फिर शारीरिक व्यभिचार का सिलसिला चल पड़ता है।
इन दिनों यह अनर्थकारी दुष्प्रवृत्ति आँधी तूफान की तरह बढ़ चली है। गोपनीय विषय होते हुए भी सार्वजनिक रूप से झरोखों से जो उजागर होता है, उसे देखते हुए लगता है कि नर-नारी के बीच जो शालीनता का अंतरपट पड़ा हुआ था, उसे बेतरह झकझोरा और तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। बहिन भाई, पिता पुत्री के रिश्ते प्रायः समाप्त होते जा रहे हैं। शिकार और शिकारी की दृष्टि उभर रही है। विपरीत लिंग के प्रति अश्लील चिंतन आम बात होती जा रही है। इसका प्रतिफल व्यभिचार, बलात्कार इत्यादि के रूप में इस कदर देखने सुनने में आ रहे हैं कि उनके भयावह परिणामों की संभावना से परिवार संस्था की पवित्रता का समापन होता दीख पड़ता है। इसका प्रतिफल वासनात्मक अतिवाद के कारण शरीरों को निःस्वत्व होते देखा जा सकता है और पाया जा सकता है कि अभिभावकों और वंशजों के बीच दुःखदायी उपेक्षा पल रही है। यौन रोग पनप रहे हैं और उसके साथ ही बौद्धिक एवं नैतिक स्तर बेतरह गिर रहे हैं।
कामुकता का आवेश उत्पन्न करने में अश्लीलता की पक्षधर साज सज्जा विशेष रूप से जिम्मेदार है। इस प्रकार की उत्तेजना देने वाली पुस्तकें, तस्वीरें, फिल्में, भावुक और कोमल मस्तिष्कों पर गहरी छाप छोड़ती हैं और किशोरों-किशोरियों से लेकर तरुण और प्रौढ़ों का ध्यान अन्य उपयोगी प्रसंगों से खींचकर अपने साथ जोड़ती है। फलतः दिवास्वप्नों में भूतपिशाच की तरह यौनाचार ही मनों पर छाया रहता है। इसे आवेश ही कह सकते हैं, एक प्रकार का उन्माद भी। उन्मादी अपना व्यक्तित्व और भविष्य गवाँ बैठता है। आतुर भी इसी प्रकार क्षतिग्रस्त होते हैं। अश्लील चिंतन स्वच्छंद यौनाचार के दुष्परिणाम अभी भी बुरी तरह मनुष्य को तोड़ निचोड़ रहे हैं और भी अधिक बढ़ोत्तरी होने पर जो बीतने वाला है उसकी चिंता मात्र से सीना दहलता है।