अग्नि मीड़े पुरोहित

March 1987

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यज्ञ के लिए संस्कृत साहित्य म कृतु, मख, अग्निहोत्र और कितने ही नाम प्रयुक्त हुए हैं; पर यहाँ सर्वसाधारण को इतना ही जानना पर्याप्त हैं कि आत्म कल्याण के लिए आत्मोत्कर्ष के लिए यज्ञ शब्द का उपयोग होता है और शारीरिक - मानसिक चिकित्सा, पर्जन्य वर्षा एवं पर्यावरण परिशोधन, वनस्पति संवर्धन एवं अन्यान्य प्राणियों के कल्याणार्थ जो विद्या प्रयुक्त होती है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं।

संक्षेप में इस बात को यों भी समझा जा सकता है कि भौतिक प्रयोजनों के लिए जिस प्रक्रिया को काम में लाया जाता है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं और आत्म परिशोधन के लिए प्रयुक्त होने वाला भाव पक्ष “यज्ञ” कहलाता है।

यज्ञ के अंतर्गत यज्ञ तो आता है; पर ‘यज्ञ’ अग्निहोत्र तक सीमित नहीं है। गीता में इस संदर्भ में विस्तृत विवेचना की गई हैं और उसे परमार्थ भावनाओं के साथ जोड़ा गया है। आप्टे की ‘संस्कृत टू इंग्लिश डिक्शनरी में यज्ञ “टू सैक्रीफाइस”, बलिदान, त्याग के अर्थ में परिभाषित किया गया है। इसे व्यक्तित्व - निर्माण के अर्थ में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। उत्कृष्ट भावनाओं के लिए भी। नेत्रदान यज्ञ, भूदान यज्ञ, ज्ञानदान यज्ञ आदि शब्दों में इस शब्द को परमार्थ प्रयोजनों के लिए ही प्रयुक्त किया गया है, जिसका लक्ष्य लोक सेवा के माध्यम से आत्म - कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करना भी समझा जा सकता है।

यज्ञ संस्कृत की ‘यज’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है संगतिकरण, पवित्रता और दान। अर्थ का और भी अधिक स्पष्टीकरण करने की लिए उन्हें उपासना, साधना और आराधना भी कह सकते है। उपासना ही संगतिकरण है। संगतिकरण का एक अर्थ है संघबद्धता। एक है निकटतम बैठना। पूजा का अर्थ है- अपने आप को भीतर और बाहर से पवित्र करना। यही साधना का प्रयोजन है। दान और आराधना एक ही बात है। संकटग्रस्तों की सहायता एवं सत्प्रयोजनों में सहयोग दान है। ऐसे तो दान के नाम पर वंश और वेश की आड़ में कितने ही लोग ठगते खते रहते हैं और संकट ग्रस्त न होते हुए भी ऐसी मुद्रा बना लेते हैं जिससे गहराई में न जाने वालों को बहानेबाजी और वास्तविकता का अन्तर ही प्रतीत नहीं होता। इसलिए दान के नाम पर अपव्यय ही चलता रहता है, साथ ही निठल्लों को छद्म बनाने का अवसर मिलता है। दान में गिरों को उठाने और उबारने की भावना है।

पूजा-पवित्रता का अर्थ सामान्य जीवन में शिष्टाचार और कर्तव्य धर्म का पालन है। अपने भीतर पवित्रता, प्रखरता उत्पन्न करने के प्रयासों को ही साधना या संयम कहा गया है। इसमें अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों को ऊँचा उभारना पड़ता है। इसी प्रक्रिया को आत्मनिरीक्षण, आत्मशोधन, आत्म निर्माण एवं आत्म-विकास के रूप में पूरा करना पड़ता है। अपनी अनगढ़ता को साध लेना ही साधना है। यही आत्मा और परमात्मा की पूजा तथा अभ्यर्थना है।

संगतिकरण में ईश्वर की संगति करनी पड़ती है। उसके निकट बैठना पड़ता है। उसके जैसा बनना पड़ता है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना पड़ता है। नाले का नदी के साथ और ईंधन का आग के साथ जैसा मिलन होता है और दोनों एक रूप बन जाते हैं, उसी स्थिति को अन्तराल में पैदा करना पड़ता है। चंदन के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगंधित हो जाते है। स्वाति की बूँद पड़ने से सीप में मोती बन जाता है। उसी प्रकार परमात्मा के अनुरूप आत्मा के बनाना पड़ता है। यह समर्पण भाव है। इसी को ‘स्वर्ग’ या ‘मुक्ति’ कहते है। उपासना का संगतिकरण का यही उद्देश्य हैं।

अपनी इच्छा-आकाँक्षाओं को ईश्वर के अनुरूप बना लेना ही बलिदान है, जैसे कि पत्नी अपनी इच्छाओं को पति के लिए समर्पित कर देती हैं। ऐसे व्यक्ति को समाज के लिए अपने आप को उत्सर्ग करना होता हैं। विराट ब्रह्म विशाल विश्व को ही कहते हैं। उसी के निमित्त स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करना होता है। सर्वव्यापी, समदर्शी न्यायकारी भगवान को प्रसन्न करने के लिए यह आत्मा समर्पण बलिदान ही करना पड़ता है। अपनी क्षुद्र कामनाओं को पूरा करने के लिए ईश्वर को बाधित करने का प्रयत्न करना तो एक प्रकार की धृष्टता ही है।

यज्ञ कृत्य में भी यही करना पड़ता है। इसमें वास्तविक सुगंधित गुणकारी वस्तुओं को अग्नि में होम कर उन्हें सूक्ष्म बनाया जाता है और उन्हें वायुभूत बनाकर समस्त संसार के उपयोग हेतु वितरण कर दिया जाता है। सूर्यार्घ्य दान की छोटी प्रक्रिया के पीछे भी यही भाव है। अपने लोटे का जल अर्थात् जीवन में भरा हुआ सत् द्रव्य सूर्य भगवान के निमित्त अर्पित करते हैं और कामना करते हैं कि इस जल को वाष्प बनाकर वे संसार में शीतलता बढ़ाने के लिए वितरित कर दें। अग्निहोत्र और सूर्यार्घ्य दान का तत्वज्ञान एक ही हैं।

इन सब का तात्पर्य जीवन को यज्ञमय बनाना है, अपने को पवित्र करना और समूचे वातावरण को पवित्र बनाना यज्ञीय कर्मकाण्ड का सारभूत तत्व ज्ञान है। यह प्रक्रिया अपनाने पर व्यक्ति और समाज को सुखी समुन्नत बनाने का अवसर मिलता है।

इसलिए भारतीय देवसंस्कृति में यज्ञ को सर्वोपरि महत्व दिया गया है और ज्वलन्त अग्नि के रूप में भगवान की प्रतिमा को मान्यता दी गई है।

ऋग्वेद प्रथम वेद है। उसका प्रथम मंत्र “अग्नि मीड़े पुरोहित यज्ञस्य देव ऋत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्” है। इस मंत्र में अग्नि को पुरोहित कहा गया है और साथ ही यह भी कहा गया है कि वह यजन करने वाले को देवोपम बना देता है सद्गुणों के रत्न भण्डार से परिपूर्ण कर देता है।

पुरोहित का अर्थ उपदेश देना है और यजमान का कर्त्तव्य उन्हें श्रद्धापूर्वक अंतरंग में अवधारण करना। यों पुरोहित व्यक्ति भी होते हैं, पर उनमें दोष दुर्गुण होने की आशंका सदा बनी रहती है। इसलिए दिव्य तत्व अग्नि को ही पुरोहित कहा गया है। वह वाणी से तो उपदेश नहीं देता; किन्तु अपनी क्रिया पद्धति का अनुकरण करने की प्रेरणा देता है। उन्हें कार्यान्वित करने पर ही गुरु का उद्देश्य और शिष्य का कर्त्तव्य पूरा होता है। यज्ञाग्नि जो उपदेश देती है। उन्हें सूत्र रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है।

(1) अग्नि जब तक जलती हैं, तब तक वह गरम और प्रकाशवान रहती हैं। हमें भी आजीवन गरम अर्थात् क्रियाशील रहना चाहिए और प्रकाश वितरित करने में ज्ञान चेतना को व्यापक बनाने में प्रयत्नशील रहना चाहिए। ऐसे कृत्य करना चाहिए जिनका अनुगमन करने वाले भी प्रकाशपूर्ण जीवन जी सकें और क्रियाशीलता को गतिवान बनाये रह सकें।

(2) अग्नि का दूसरा गुण है कि उसका सिर सदा ऊँचा रहता है। कितना ही दबाव पड़ने पर भी वह सिर नीचा नहीं होने देता। अपना मस्तक-चिन्तन भी सदा ऊँचा रहे परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने पर भी निकृष्ट चिन्तन न करें। अनीति के सामने सिर न झुकायें। न्याय के समर्थन में तन कर खड़े रहें, उत्कृष्ट रहें और उसी रीति-नीति को अपनाने की जनसाधारण को प्रेरणा दें।

(3) अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, वह अशुद्ध होते हुए भी उसी के समतुल्य बन जाती है। लकड़ी धातु या गंदगी तक अग्नि के सान्निध्य में पहुँचे, तो वह उसी के समतुल्य बन कर रहती है। अपने संपर्क में भले ही खोटे लोग आयें; पर वे शुद्ध होकर जायँ। विरानों को अपना बनाने की कला हमें आनी चाहिए। दूसरों के दुर्गुण ग्रहण न करें। शिवजी के गले में सर्प पड़े रहते हैं; पर वे उनके विषैले प्रभाव को ग्रहण नहीं करते, उल्टे शिव सान्निध्य में रहने के कारण विषधर होने पर भी वे देवता बन जाते हैं। नागपंचमी पर नाग देवता की पूजा होती है। इस प्रकार शिव हमारी रीति-नीति भी विरानों को अपनाने आत्मसात् कर लेने की होनी चाहिए।

(4) अग्नि में जो भी डाला जाय, उन सब को वह अपने लिए बचा कर नहीं रखती, दूसरों के निमित्त ही खर्च कर देती है। संग्रह की उसकी वृत्ति होती ही नहीं। हमें भी अपने दिव्य पुरोहित का अनुकरण करना चाहिए। कृपण एवम् संग्रही नहीं बनना चाहिए। क्षमताओं एवं साधनों को गतिशील रखना चाहिए।

(5) अग्नि का अन्त भस्म रूप में होता है। हममें से प्रत्येक को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे अस्तित्व का अन्त भी दो मुट्ठी भस्म के रूप में ही होने वाली है। इसलिए न तो अहंकार करें, न विग्रह उत्पन्न करें, न पाप कमाएँ। मृत्यु को सदा ध्यान में रखें। अपने अस्तित्व का अन्त स्मरण रखें और ऐसे काम करें जिसके लिए पीछे पश्चाताप न करना पड़े।

यह पाँच शिक्षाएँ पाँच रत्नों से भी बढ़कर हैं। रत्न तो पत्थर के होते हैं और उनके चोरी जाने, गुम होने का भी डर रहता है। पर यह पाँच गुण ऐसे हैं जो अपनाने वाले ऋत्विज् को देवोपम बना देते हैं साथ ही सद्गुणों के साथ जुड़ी रहने वाली प्रशंसा तथा सहयोग भावना को संजोते हुए निहाल भी कर देते हैं।

निराकार भगवान की साकार प्रतिमा यज्ञ को इसलिए माना गया है, कि अन्य देवताओं की तरह उसके पीछे कोई ऐसा इतिहास नहीं है। जिसमें गुणों के साथ एक दोष भी सम्मिलित है। अन्य देवताओं के सम्बन्ध में उनकी कथा गाथाएँ ऐसी हैं, जिनमें यह असमंजस उत्पन्न होता है कि उन्हें उपास्य माना जाता है तो सहज ही गुणों के साथ उनके दुर्गुण भी मान्यताओं में प्रवेश करें। यह संकट अग्नि पूजा में यज्ञ में नहीं हैं।

यज्ञाग्नि के संबंध में देव मान्यता स्थापित करनी पड़ती है। उसे ईश्वर का मूर्तिमान स्वरूप मानना पड़ता है। कहा भी है-

यज्ञों वै विष्णुः - (शतपथ) पुरुषों वै यज्ञः - (शतपथ) प्रजापतिर्वै यज्ञः - (तैत्तरीय) यज्ञः एवं सविता - (गोपाथ) इन्द्रो वै यज्ञः - (मै. शा.) प्रथमो हि यज्ञाः - (कपि. शा.)

यज्ञ को श्रुतियों में “श्रेष्ठतम कर्म” भी कहा जाता है। उसे अनर्थों के लिए परशु के समान छेदनकर्ता भी कहा जा गया है। साथ ही उसे सब प्रकार के कल्याणों का उत्पादन कर्ता भी कहा गया है।

यज्ञः कल्याण हेतवः (विष्णु पुराण)

यज्ञ का माहात्म्य वर्णन करते हुए शास्त्रकारों ने और भी बहुत कुछ कहा है :-

यज्ञेन देवा विमला विभान्ति। यज्ञेन देवा अमृत्त्वमाप्नुयः॥ यज्ञेन पापैर्वहुभिर्विमुक्तः।

प्राप्नोति लोकान परमस्य विष्णो। “हारीत संहिता॥ “अर्थात् - यज्ञ में से ही देवगण पवित्र होते हैं। यज्ञ से ही वे अमृतत्व प्राप्त करते हैं। यज्ञ से पापों से छुटकारा मिलता है। यज्ञ से परमात्मा का दिव्य लोक मिलता है।

यजुः 2।23 में कहा गया है कि “भला कौन सुख चाहने वाला यज्ञ को छोड़ता है”? जो उसे छोड़ता है उसे परमात्मा भी छोड़ देते हैं।

यज्ञ की व्याख्या करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है-

“येन सद्नुष्ठानेन सम्पूर्ण विश्व कल्याण भजेत् तत् पदाभिधेयम्।”

अर्थात् - जिस कृत्य को करने से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण होता है - वह यज्ञ है।

उपरोक्त प्रतिपादनों से यज्ञ की गरिमा और व्यापकता समझी जानी चाहिए। उसे सांप्रदायिक क्रिया भर नहीं मान लेना चाहिए।

ऋग्वेद में भगवान ने सच ही कहा है कि यज्ञाग्नि ही मनुष्य का पुरोहित - सद्गुरु और सच्चा मार्ग दर्शक है। यजन करने वाला द्विज देवता बन जाता है और हवन कर्ता उसे रत्न भण्डार के रूप में पाता है। यह दैवी सम्पदा के दिव्य रत्न हैं, जो जन्म जन्मान्तरों तक साथ बने रहते कुबेर से भी बढ़कर अपने को सुसम्पन्न अनुभव करने लगता है।

वस्तुतः साँसारिक वैभव भी सद्गुणी के साथ रहते और उसे सुखी बनने और सुखी बनाने का अवसर प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक विभूतियाँ भी उन्हीं को हस्तगत होती हैं जो सद्गुणी हैं। धूर्तता से उपार्जित धन न तो चिरस्थाई होता है और न उसे पाकर कोई फूलता-फलता है। यही बात सिद्धियों, विभूतियों के सम्बन्ध में हैं वाममार्गी चमत्कार दिखा भी सके तो कर्त्ता और उपभोक्ता दोनों ही उससे हानि उठाते हैं।

यज्ञीय जीवन अपनाने की प्रक्रिया ही ऐसी है कि उसके साथ भौतिक सम्पदाएँ एवम् आत्मिक विभूतियों का सुयोग सहज ही जुड़ा हुआ है।


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