समर्थता का सदुपयोग

April 1987

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बेल पेड़ से लिपटकर ऊँची तो उठ सकती है, पर उसे अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आवश्यक रस भूमि के भीतर से ही प्राप्त करना होगा। पेड़ बेल को सहारा भर दे सकता है, पर उसे जीवित नहीं रखा सकता। अमरबेल जैसे अपवाद उदाहरण या नियम नहीं बन सकते।

व्यक्ति का गौरव या वैभव बाहर बिखरा दिखता है। उसका बड़प्पन आँकने के लिए उसके साधन एवं सहायक आधारभूत कारण प्रतीत होते हैं; पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। मानवी प्रगति के मूलभूत तत्त्व उसके अंतराल की गहराई में ही सन्निहित रहते हैं।

परिश्रमी, व्यवहारकुशल और मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति संपत्ति-उपार्जन में समर्थ होते हैं। जिनमें इन गुणों का अभाव है, वे पूर्वजों की छोड़ी हुई संपदा की रखवाली तक नहीं कर सकते। भीतर का खोखलापन उन्हें बाहर से भी दरिद्र ही बनाए रहता है।

गरिमाशील व्यक्ति किसी देवी-देवता के अनुग्रह से महान नहीं बनते। संयमशीलता, उदारता और सज्जनता से मनुष्य सुदृढ़ बनता है; पर आवश्यक यह भी है कि उस दृढ़ता का उपयोग लोक-मंगल के लिए किया जाए। पूँजी का उपयोग सत्प्रयोजनों के निमित्त न किया जाए तो वह भारभूत ही होकर रह जाती है। आत्मशोधन की उपयोगिता तभी है, जब वह चंदन की तरह अपने समीपवर्त्ती वातावरण में सत्प्रवृत्तियों की सुगंध फैला सके।


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