आदर्शों की कथनी ही नहीं, करनी भी

April 1987

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सिद्धांतों की जानकारी को स्मृति तक पहुँचाकर उसे आगे बढ़ने से रोक देना ऐसा ही है, जैसे थाली में रसोई परोसी हो, उसे हाथ से उलटा-पलटा जा रहा हो; पर मुँह में ग्रास डालने और चबाकर पेट में उतारने से बचा जा रहा हो।

बुद्धि का गुण सीखना है, निर्णय करना भी। वह विचारों-परामर्शों की छान-बीन करने में प्रवीण होती है। व्यावसायिक मामले में उसकी सूझ-बूझ भली प्रकार काम करती है। आलोचना, समीक्षा का प्रसंग आता है तो भी वह अपना कमाल दिखाती है। छिद्रांवेषण में उसका कमाल देखने ही योग्य होता है। जहाँ तात्कालिक लाभ दिखता है वहाँ भी उसकी पकड़ खूब काम करती है। दुस्साहस भी उसका ऐसा देखा जाता है कि मर्यादाओं और वर्जनाओं को कैसे तोड़ा जाए ? पापों पर परदा कैसे डाला जाए, इसका चातुर्य भी कम नहीं होता। शासन, समाज और संपर्क-क्षेत्र को चकमा देकर किस प्रकार अपना स्वार्थ सिद्ध किया जाए ? इस विद्या को एकदूसरे को, अन्यान्यों को प्रवीण-पारंगत बनाने में बुद्धि अपना कौशल आए दिन दिखाती रहती है। उसकी इन विलक्षण क्षमताओं को जितना सराहा जाए उतना ही कम है। इसीलिए बुद्धिमानों को सम्मान पाते और संपदा-सफलता अर्जित करते देखा और सराहा जाता है।

इतना होते हुए भी प्रसंग ऐसे हैं, जिसे अपनाने में बुद्धि आना-कानी करती है। देर तक प्रतीक्षा करना उसे सहन नहीं। बालबुद्धि की तरह तात्कालिक आकर्षण एवं लाभ उसे चाहिए। इतना विवेक भी नहीं होता कि दूरगामी परिणामों को सोच सके। प्रचलित ढर्रे को बदलने के लिए वह उत्कंठा नहीं जगती। इसका परिणाम यह होता है कि हमारी बुद्धि-वैभव कुछ खेल-खोलों का ही स्वांग कर पाता है। अभ्यास और साहस के अभाव में समुद्र की गहराई में उतरकर बहुमूल्य मणि-मुक्तक ढूँढ लाने की क्षमता अर्जित करने की न उसकी इच्छा होती है और न चेष्टा; फलस्वरूप तथाकथित बुद्धिमान भी बहुश्रुत, बहुपठित होकर रह जाते हैं। जीवन निर्माण की दिशा में ऐसा कुछ नहीं कर पाते, जिसे अनुकरणीय एवं अभिनंदनीय कहा जा सके।

बिल्ली के गले में घंटी बाँधने के लिए चूहों की पंचायत का एक भी सदस्य तैयार नहीं हुआ था। इसी प्रकार अनेकानेक बुद्धि-कौशल भी ऐसे सम्मिलित प्रयास नहीं कर पाते कि जिन आदर्शों की महिमा और गरिमा शास्त्रकारों, आप्तजनों और महान उदाहरणों से सुनी है। उसे स्मरण रखने और चर्चा का विषय बनाने तक ही सीमित न रखा जाए; वरन एक कदम आगे बढ़ाकर उसे जीवनक्रम में, स्वभाव-अभ्यास में सम्मिलित करने का उपाय भी सोचा और अंतराल तक पहुँचाया जाए।

ज्ञान कितना भी महत्त्वपूर्ण क्यों न हो; पर यदि वह बात-चीत अथवा जानकारी तक ही सीमित रह जाए तो समझना चाहिए कि ऐसा ही दुर्भाग्य आ अड़ा, मानो थाली में भोजन परोसा गया हो, पर उसे पेट में पहुँचाने के लिए प्रयत्न नहीं हुआ। मौखिकरूप से वक्तृत्व का अभ्यास कर लेने वाले बड़ी-बड़ी ऊँची बातें कहते और धुँआधार प्रवचन करते देखे गए हैं; पर जब उस कथनी को अपनी निज की करनी में उतारने का प्रसंग आता हैं तो अपना रुख ही बदल लेते हैं और ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो किसी प्रसंग की चर्चा करना ही पर्याप्त हो।

वक्तृत्व एक कला है; पर आदर्शों को जीवन में उतारना तो लोहे के चने चबाने जैसा है। अपने को गलाना और ढालना धातु उपकरण बनाने से कठिन है। उस कठिनाई को जो कोई पार कर सके, उसी को सच्चा शूरवीर कहना चाहिए। उन्हें तो पुस्तकों के भार से लदा हुआ गधा ही कहना चाहिए, जिनके मस्तिष्क पर ज्ञान का बोझ तो बहुत लदा है। पर वे स्वयं उससे कुछ लाभ नहीं उठा पाते।


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