मनुष्य की विद्युतशक्ति का उभार एवं सुनियोजन

April 1987

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मनुष्य के शरीर में विद्युतशक्ति का भांडागार छिपा होने की बात सर्वविदित है। उसी की क्षमता से हृदय के फेफड़े, आमाशय, जिगर, गुर्दे आदि अपना-अपना काम करते हैं। प्रतीत यह होता है कि रक्त, माँस तथा स्रवित होने वाले रसायन ही जीवन-शकट को खींचते हैं। पर वस्तुस्थिति यह है कि जिस प्रकार बिजली ही मोटर कारखाने की विभिन्न मशीनों को चलाती और खींचती है, उसी प्रकार शरीर में संव्याप्त बिजली भी अगणित जीव, कोशों, स्नायु-तंतुओं तथा अन्यान्य छोटे-बड़े घटकों का संचालन करती है।

विभिन्न अंग अवयवों को हम काम करते तो देखते हैं; उनमें रक्त-प्रवाह और वायुपोषण भी होते हैं, पर यह प्रत्यक्ष समझ नहीं पाते कि इस सबके मूल में कौन शक्ति काम करती है। उसका उद्गम स्रोत कहाँ है? यह सूत्रसंचालन कैसे और कहाँ से होता है?

अध्यात्मशास्त्र में इस जीवनीशक्ति को प्राण कहा गया है। प्राण क्या है? उसे ऑक्सीजन नहीं समझा जाना चाहिए। इस संदर्भ में इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि ऑक्सीजन में भी प्राण मिला होता है; पर वह मात्र ऑक्सीजन ही नहीं हैं।

ब्रह्मांडव्यापी चेतनतत्त्व से यह समस्त संसार अनुप्राणित होता हैं। वह जड़ पदार्थों में क्रियाशक्ति के रूप में काम करती है। परमाणु घटकों का विस्फोट करके यह सहज ही जाना जा सकता है कि पदार्थ के अंतराल में कितनी प्रचंड क्षमता भरी हुई है। इसी प्रकार वही शक्ति जीवधारियों में उनकी इच्छाशक्ति के रूप में काम करती देखी जाती है। मनोविज्ञानियों के अनुसार उसका भंडार अचेतन मन में है। इसका स्थान मस्तिष्क का मध्य भाग माना गया है। जिसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रारचक्र कहते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियों के हारमोन स्रावों की स्थिति को यही केंद्र प्रभावित करता है। ज्ञानतंतुओं की ज्ञानेंद्रिय की दौड़ मस्तिष्क तक ही रहती है। वहीं वे अपने अनुभव पहुँचाते और स्थिति के अनुरूप संदेश लेकर वापस लौटते हैं। यह घुड़दौड़ निरंतर चलती रहती है। इसी के साथ प्राणविद्युत का समग्र तंत्र जुड़ा होता है। मृत्यु के समय अन्य सभी अवयव या रसायन प्रायः यथावत् बने रहते हैं; केवल यह विद्युत-प्रवाह मस्तिष्क में अवस्थित उद्गम केंद्र से निःसृत होना बंद हो जाता है।

प्राणविद्युत मनुष्य की मानसिक विशिष्टताओं को भी प्रभावित करती है। प्रतिभा उसी का उभार है। स्फूर्ति, दृढ़ता, साहसिकता का सीधा संबंध भी उसी से है। ओजस्-तेजस्-वर्चस् के रूप में उसी को प्रकाशित होते देखा जाता है, योगी इसी को शक्तिपात के रूप में प्रयुक्त करके अल्पप्राण वालों को महाप्राण बनाते हैं। तांत्रिकों के अभिचारों में भी उसी का प्रयोग हेय प्रयोजनों के लिए होता हैं।

सत्संग-कुसंग से पड़ने वाले प्रभावों में भी यही ऊर्जा काम करती है और अल्पप्राण वालों को अपनी दिशा में आकर्षित करती है। हिप्नोटिज्म-मैस्मरेज्म जैसे छुट-पुट प्रयोग भी इसी आधार पर होते हैं। परकाया-प्रवेश का उच्चस्तरीय तो नहीं, पर साधारण उपक्रम इसी आधार पर चलता देखा गया है।

यह बिजली कभी-कभी अनायास, कभी-कभी प्रयत्नपूर्वक बाहर की ओर फुट पड़ने की स्थिति में उभरती देखी गई है। ईल नामक मछली जब चाहती है, तभी अपने शिकार पर आक्रमण करने के लिए अपने शरीर से इतनी तीव्र विद्युत धारा का प्रवाह फेंकती है कि उसे मरणासन्न स्थिति में पहुँचा देती है और फिर उसे सरलतापूर्वक उदरस्थ कर लेती है। अन्य कई जल-जंतुओं में भी ऐसी ही विशिष्टता पाई गई है।

ऐसा मनुष्य के संबंध में भी कई बार देखा जाता है। उनके शरीर से चुंबक या चिनगारी के रूप में यह प्रवाह निकलने लगता है। पर वे उसे इच्छापूर्वक न तो फेंकते ही हैं और न रोक ही सकते हैं। यह उनकी इच्छाशक्ति के आधार पर नहीं होता। जिस प्रकार नहर फूट जाती है तो उसका पानी तेजी के साथ समीपवर्त्ती क्षेत्र को जलमग्न कर देता है। यह सरल है। एक चूहा भी बिल बनाकर या एक कुदाल भी तोड़−फोड़ कर सकता है, पर छिद्र से बहते हुए पानी को रोकना सरल नहीं पड़ता। उसके लिए विशेष शक्तिशाली प्रदान करने पड़ते हैं, तभी स्थिति काबू में आती है।

बाघ पेड़ के नीचे बैठा रहता है और ऊपर चढ़े बंदर आदि को नजर भरकर देखता है। आँख-से-आँख मिलते ही बंदर होश-हवास गँवा बैठता है और नीचे पके फल की तरह टपककर उसका शिकार बन जाता है। इसी प्रकार अजगर अपनी दृष्टि द्वारा किए गए विद्युत-प्रहार से पेड़ पर बैठे पक्षियों को गिरा लेता है। शेर को देखकर बकरी जैसे दुर्बल मनोबल के पशु हक्का-बक्का रह जाते है और अपने स्थान पर खड़े हुए ही शिकार बन जाते हैं।

मनुष्य के शरीर  से निकलने वाली बिजली छूने पर ही आघात मारती है। दूर बैठों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। बर्लिन (जर्मनी) की एक जैकलीन नामक लड़की थी। 17 वर्ष की आयु तक वह सामान्य रही। इसके बार उसके शरीर में से विद्युत-प्रवाह निकलने लगा। वह जिसे भी छूती वह गिर पड़ता। धातु के बरतन चिनगारियाँ छोड़ने लगे। उसे कपड़े भी रबड़ या प्लास्टिक के पहनने पड़ते थे, ताकि शरीर की विद्युत का इन्सुलेशन हो सके।

लंदन की एक युवती मेरी कैथेरीन की घटना इसी से मिलती-जुलती है। उसे यह आवेश दिन में ही आता था, तब उसका चेहरा बुखार जैसा तमतमा जाता था। कोई रबड़ के दस्ताने पहनकर ही उसे छू सकता था। रात को यह आवेश अनायास ही समाप्त हो जाता था। उसे भी यह शिकायत 16 वर्ष की आयु से आरंभ हुई। मात्र तीन वर्ष इसके बाद वह और न जी सकी। ब्राजील में भी एक चौदह वर्ष की लड़की को यह व्यथा लगी। वह अपना शरीर ठंडे बाथटब में डालती तो थोड़ी ही देर में पानी उबलने लगता। ऐसा लगता था, मानो उसका हाथ हीटिंग रॉड हो।

अमेरिका की कुमारी रिको डी फेल जब 15 वर्ष की थी, तब इसके शरीर में भी इसी प्रकार की विद्युत धारा बहने लगी। उसका गोरा शरीर काला होता चला गया। वह अधिक दिन जी न सकी।

ऐसी घटनाएँ भी हुई हैं कि किसी व्यक्ति के शरीर पर कुर्सी पर बैठे-बैठे ही आग की लपटें निकलना आरंभ हुई? उसके शरीर के कपड़े और अंग तो जल गए, पर कुर्सी को कोई नुकसान न हुआ। आयरलैंड की इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि लपटें नीले रंग की थीं और बुझाने के सभी प्रयत्नों को निष्फल बनाती हुई वह उसके प्राण लेकर ही शांत हुई। इस प्रक्रिया को “स्पान्टेनियस कम्बशन” कहा जाता है।

यह आकस्मिक उपद्रव है। इस प्रकार की अन्यान्य घटनाएँ केवल यही बताती हैं कि उनके शरीर की बिजली किसी प्रकार ऊपर उछल आई थी और स्पर्श करने पर व्यक्तियों तथा पदार्थों को इस प्रकार प्रभावित करती थी कि वह खतरा बन जाती थी। या तो वह प्रभाव अपने आप घटते हुए समाप्त हो जाता था या फिर उसके प्राणों पर बन आती थी।

यह दुर्घटनाओं की चर्चा हुई। किंतु साधनात्मक प्रयत्नों से ऐसा भी हो सकता हैं कि नियंत्रित मात्रा में सुनियोजित करके नियंत्रित प्रकार की विद्युत धारा उभरे और बिना स्पर्श के भी इच्छित व्यक्ति को भले या बुरे स्तर पर प्रभावित करे। यह शक्ति अपने शरीर का तो संचालन करती ही है, पर ऐसा भी हो सकता है कि बढ़ी हुई या बढ़ाई गई ऊर्जा अन्यान्यों पर भी भला या बुरा प्रभाव छोड़ सके। इसी को शाप-वरदान के नाम से जाना जाता है।


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