पंचप्राणों की पाँच आहुतियाँ

April 1987

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छांदोग्य उपनिषद् में पंचप्राणों की पाँच आहुतियों का वर्णन मिलता है। यह प्राण-ऊर्जा की ही पंचस्तरीय साधना का संकेत है। इसे देवयज्ञ कहा गया है। चेतना-ऊर्जाएँ ही देवसत्ताएँ हैं। अतः इन चेतना-ऊर्जाओं की पंचस्तरीय सक्रियता ही पाँच आहुतियाँ हैं; जिनके संपन्न होने से देवयज्ञ संपन्न होता है।

जीवन चेतना जब द्रव्यगत रूपाकारों में ढलती है, तभी वह सामान्य प्राणियों के अनुभव में आती है। अपने शुद्ध रूप में निर्विकारी चेतना को सामान्यतः देखा- समझा नहीं जा सकता। चेतना-ऊर्जा या प्राण-ऊर्जा सर्वव्यापक है, सर्वसमर्थ है, किंतु उसकी हलचल जब प्रकृति-द्रव्य के संयोग के सामने आती है, तभी सृष्टि का क्रम प्रारंभ होता है। भूत-द्रव्य और चेतना-ऊर्जा का संयोग ही सृष्टि-चक्र के प्रवर्त्तन का आधार है। शास्त्रीय भाषाओं में इसे ही अनंत एवं प्राण का संयोग कहा गया है। वृहदारण्यक उपनिषद् में यह संकेत स्पष्ट है— “अन्नै वै व्यन्ने हीमानि, सर्वाणि भूतानि विष्टानि रमिति, प्राणो वै रं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते .............।

अर्थात् 'वि' ही अन्न है, जिसमें सब प्राणी विष्ट रहते हैं, वही (भूत-द्रव्य) अन्न है तथा जिस (चेतना-ऊर्जा) के कारण सब प्राणी रमण करते हैं, गतिशील होते हैं, वह ‘रम’ ही प्राण है।

इस प्रकार सृष्टिगत जीवन का उदय अन्न और प्राण के भूत-द्रव्य एवं चेतना के प्रकृति और पुरुष के संयोग-संपर्क से होता है।

यद्यपि मूल रूप से एकमेव ब्रह्मसत्ता ही विद्यमान है, तो भी उसके संकल्प से दो प्रधान सत्ताएँ अभिव्यक्त होती हैं, जिनमें से एक भौतिक द्रव्य का आधार बनती है, दूसरी चेतना-ऊर्जा का । इन्हें ही भिन्न-भिन्न नाम देकर प्रकृति-पुरुष, अन्न-प्राण, रयि-प्राण आदि के रूप में विवेचित किया गया है। वस्तुतः यह संसार ब्रह्मसत्ता के संकल्प में प्रकट हुआ है। “स एकाकी न रमते” कहकर उस ब्रह्मसत्ता के सृष्टि-संकल्प का आधार खोजने की चेष्टा की गई है, जो मानवीय बुद्धि को संतुष्ट करने का प्रयास ही है; क्योंकि सर्वोच्च सत्ता के संकल्प का वास्तविक कारण अज्ञेय है। सत्ता का मूल स्वरूप ही आनंदमय एवं चिन्मय है। इसलिए उस आनंदमय चेतना के एकाकी न रमने का प्रश्न ही नहीं है। हाँ, यह अवश्य निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि जगत की उत्पत्ति संकल्प से हुई। प्रश्नोपनिषद् में इसी संकल्प की द्रव्य और चैतन्य-ऊर्जा के रूप में अभिव्यक्ति का वर्णन है —

“स मिथुनमुत्पादयते। रयिं च प्राणं चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति॥” प्रश्नोप .1।4

अर्थात् । उसने रयि और प्राण का जोड़ा बनाया, ताकि उन्हीं से बहुशः प्रजाएँ उत्पन्न हो सकें। यहाँ रयि को द्रव्य या द्रव्य-ऊर्जा तथा प्राण को चेतना-ऊर्जा समझा जाना चाहिए।

ऊर्जस्विता के स्तर भेद से प्राणों के पाँच भेद हैं। ऊर्जा के सर्वोच्च रूप को प्राण, उसके बाद दूसरे रूप को उदान, तृतीय स्तरीय ऊर्जा को व्यान, चतुर्थ को समान और पंचम को अपान कहते हैं। चेतना की बलिष्ठता को ही अध्यात्म-शास्त्र में प्राण कहा गया है।

पाँच आहुतियों का औपनिषदिक वर्णन प्राण-ऊर्जा के पाँच स्तरों का तथा अमूर्त सूक्ष्मसत्ता के क्रमशः स्थूलतर रूप में अभिव्यक्त होने का वर्णन है। प्रथम आहुति का वर्णन यों है—

“असौ वाव लोको गौतमाग्निस्तस्यादित्य एव समिद्रश्मयो धूमोऽहरर्चिश्चन्द्रमा अंगारा नक्षत्राणि विस्फुलिङ्गाः। (छाँ 5।4।1)

अर्थात् राजा जैवालि ने ऋषि गौतम से कहा— " है गौतम! यह प्रसिद्ध घुलोक ही अग्नि है।" आदित्य ही उसका समिध है, किरणें धूम हैं, दिन ज्वाला है, चंद्रमा अंगार है और नक्षत्र विस्फुलिंग; यानी चिनगारियाँ हैं।

यह प्राण-ऊर्जा की प्रथम स्तरीय अभिव्यक्ति का वर्णन है। प्राण-ऊर्जा के प्राथमिक कंपनों से घुलोक में जो हलचलें होती हैं, उनका ही यह वर्णन है। सर्वव्यापी चिदाकाश ही घुलोक है। उसे ही सत्यलोक भी कहा जाता है। वहाँ संकल्प का ही साम्राज्य है, ऐसा छांदोग्य उपनिषद् में बताया गया है। भौतिकीय दृष्टि से जिन्हें गणितीय सत्य या वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है, वे चिदाकाश के लिए या घुलोक के लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं। वह इनसे परे का लोक है। उसे मनोमय या संकल्पमय लोक कहा जाता है। मनोमयलोक वह है, जहाँ सामान्य गतिविज्ञान के नियम नहीं लागू होते। यहाँ सामान्य गतिविज्ञान के नियम नहीं लागू होते। यहाँ पंचप्राण-ऊर्जाएं आदित्य, रश्मि, दिवस, चन्द्रमा तथा नक्षत्र के रूप में प्रथम आहुति के उपरांत अभिव्यक्त होती है। यह आहुति संकल्पमयी श्रद्धा के द्वारा दी जाती है।

“तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति तस्या आहुतेः सोमो राजा सम्भवति।” (छां. 5।4।2)

अर्थात् उस द्युलोकरूपी अग्नि में देवगण श्रद्धा का हवन करते हैं, जिससे सोम की उत्पत्ति होती है।

यहाँ द्युलोक महत्तत्त्व का प्रतीक है। जो अभी तक आधुनिक भौतिक द्वारा अविज्ञात है। उसी की इन पाँच प्राथमिक अभिव्यक्तियों की यहाँ चर्चा है। चेतना का यह स्तर बुद्धि द्वारा नहीं, श्रद्धा द्वारा ही जाना जा सकता है। ऐसा श्रुति का स्पष्ट निर्देश है। अतः यहाँ वर्णित आदित्य, रश्मि, दिवस, चंद्रमा और नक्षत्र के सूक्ष्म अर्थों के आधुनिक भौतिक शास्त्रीय पर्याय नहीं बताए जा सकते। श्रद्धा द्वारा ही इन पाँच ऊर्जा स्तरों का ज्ञान संभव है। इस प्रथम आहुति से सोम उत्पन्न होता है।

जो ज्योतिर्मय प्राण द्युलोक से प्राणियों पर बरसता है, उसका ही नाम सोम है। वह सविता देवता से बरसने वाला चेतना-आलोक है। गायत्री साधना द्वारा इसी सोम को तीव्रता से आकर्षित किया जाता है।

पंचप्राणों की दूसरी आहुति का वर्णन यह है— “पर्जन्यो वाव गौतमाग्निस्तस्य वायुरेव समिदभ्रं धूमो, विद्युदर्चिरशनिरङ्गारा, हृादनयो विस्फुल्लिङ्गाः।" (छाँ. 5।5।1)

अर्थात्। है गौतम! पर्जन्य ही अग्नि है, उसका वायु ही समिध है, बादल धूम है, विद्युत ज्वाला है, वज्र अंगार है तथा गर्जन विस्फुल्लिंग है।

यहाँ पर्जन्य उस प्राण-ऊर्जा का प्रतीक है, जो अनंत अंतरिक्ष से सर्वत्र निरंतर बरस रहा है। यह सोम का पर्याय ही है। उस पर्जन्याग्नि में देवगण अर्थात् चेतना ऊर्जाएँ सोम का हवन करते हैं, यानी जो सूक्ष्म ज्योतिर्मय प्राण इस संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है; उसे देवगण भिन्न-भिन्न रूपों में बदलते हैं। ये रूप हैं— वायु, अभ्र, विद्युत, वज्र और गर्जन। वायु उस शक्ति का नाम है जो इस प्राण-ऊर्जा को यथाक्रम वितरित करती है, जो वृहदारण्यक उपनिषद् में अमूर्त यत् और त्यत् अर्थात् अमूर्त गतिशील एवं अप्रत्यक्ष कही गई है। छान्दोग्य उपनिषद् में रैक्व ने संवर्गविद्या का वर्णन करते हुए कहा है कि, "जब अग्नि, सूर्य, चन्द्र या आपः अपने अस्तित्व से विमुक्त होते हैं, तो वे वायु में ही लीन होते हैं।"

“वायुर्वाव संवर्गो यदा वा अग्निरुद्वायति वायुमेवाप्येति, यदा। सुर्योऽस्तमेति वायुमेवाप्येति। यदा चन्द्रोऽस्तमेति वायुमेवाप्येति।।” (छा. 4। 3।1)

यह वायु वायुभूत से भिन्न है, वायुभूत इलेक्ट्रोन-कण का शास्त्रीय नाम है, किंतु यहाँ प्राण-ऊर्जाओं की दूसरी आहुति से उत्पन्न वायु एक भिन्न ही शक्ति का द्योतक है। इलेक्ट्रोन इसकी ही अपेक्षाकृत स्थूल अभिव्यक्ति है। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने बताया है कि वायु ही वह सूत्र है, जिससे लोक-परलोक तथा सब भूत संग्रथित हैं।

ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि लेप्टान-कणों का मूल उद्गम यह वायु-शक्ति ही है। शेष चार तत्त्वों में से अभ्र मेसान-कणों की मूलभूत शक्ति का, विद्युत, फोटान-कणों के उद्गम स्रोत का, वज्र एल्फा कणों की उद्गम-स्रोतशक्ति का तथा गर्जन घेरियान-कणों की प्रसविनी शक्ति का पर्याय है।

आहुति का तीसरा स्तर संवत्सर, आकाश, रात्रि, दिशाओं और अवांतर दिशाओं से संबंधित है—

"......... संवत्सर एव समिदाकाशो, धूमो रात्रिरर्चिर्दिशोऽङ्गारा अवान्तरदिशो विस्फुल्लिङ्गाः॥" छाँ 5।6।1)

अर्थात्। संवत्सर ही समिध है, आकाश धूम है, रात्रि ज्वाला है, दिशाएँ अंगार हैं, अवांतर दिशाएँ विस्फुलिंग हैं।

अभी तक के दो ऊर्जा-स्तर अतिसूक्ष्म थे। जो दिक्कालातीत हैं। यह तीसरा स्तर देशकाल का ‘टाइम’ और ‘स्पेस’ का स्तर है। प्राण-ऊर्जाएँ जब तीसरे स्तर पर सक्रिय होती हैं, तो वे दिक्काल में अभिव्यक्त देखी जा सकती हैं। इसके पहले का क्षेत्र दिक्कालातीत चेतना से संबंधित है। प्राण-ऊर्जाएँ जब तक चौथे एवं पाँचवें आयाम में सक्रिय रहती हैं, वे दिक्काल-सीमा से परे रहते हैं। तीसरा आयाम ही दिक्काल का आयाम है। त्रि-आयामीय जगत जो इंद्रियबोधात्मक जगत है, वह प्राण-ऊर्जाओं के इसी स्तर की अभिव्यक्ति है। तीसरी आहुति से ही अन्न का यानी पंचभूतात्मक दृश्य जगत का जन्म होता है। अगली दो आहुतियाँ इसी त्रि-आयमिय जगत से संबंधित है। चौथी आहुति का वर्णन यह है कि वाक् ही समिध है, प्राण धूम है, जिह्वा ज्वाला है, चक्षु अंगारे और श्रोत्र विस्फुल्लिंग हैं। इन्हें पंचतन्मात्रा के प्रतीक समझना चाहिए। शब्द, गंध, रस, रूप और स्पर्श की तन्मात्राएँ ही यहाँ अभिप्रेत हैं। इसी प्रकार पाँचवीं आहुति में पंचमुखी क्रिया-चेष्टाओं का वर्णन है।

पंचप्राणों की पाँच आहुतियों का यह औपनिषदिक वर्णन भी विवेचन की भारतीय शैली के अनुसार त्रिस्तरीय है। आधिदैहिक दृष्टि से पांचवीं आहुति उस रतिक्रिया का प्रतीक है, जिसके परिणामस्वरूप जीव का जन्म होता है। इसी प्रकार चौथी आहुति आधिदैहिक दृष्टि से पाँच ज्ञानेंद्रियों की अनुभूतियों का प्रतीक है तथा तीसरी आहुति मानसिक अनुभूतियों का प्रतीक। त्रि-आयामीय जगत में ही देह, मन और चेतना की भिन्नता है। उससे ऊपर उठने पर तो इनकी अभेदता ही प्रकट है। इसलिए प्रथम एवं द्वितीय आहुतियाँ सूक्ष्म चेतन-ऊर्जाओं के ही विवरण से संबंधित हैं। आधिदैविक दृष्टि से पाँचवीं आहुति को शरीरस्थ पंचदेवताओं की पंचोपचार पूजा-चेष्टाएँ समझा जा सकता है। चौथी आहुति पाँचों इंद्रियों के अधीश पाँच देवताओं की साधना है और तीसरी आहुति चारों दिशाओं तथा तीनों काल में व्याप्त देवताओं की उपासना है।

‘यत्पिण्डे तत्ब्रह्माण्डे' यही भारतीय दर्शन विज्ञान का निष्कर्ष है। अतः पाँच प्राणों की पाँच आहुतियों जिस प्रकार ब्रह्मांड की अभिव्यक्ति का विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं, उसी प्रकार वे मानवी काया में अंतर्निहित पाँच चेतना स्तरों पर भी प्रकाश डालती है। प्रथम स्तर आनंदमयकोश का है, जो सर्वाधिक सूक्ष्म है। दूसरा स्तर विज्ञानमयकोश का है। तीसरा मनोमय चौथा प्राणमय और पाँचवाँ स्तर अन्नमयकोश का है। सामान्य व्यक्ति अपने इसी पाँचवें बाह्यस्तर को ही अपना सर्वस्व समझते रहते हैं और उसे भी ठीक से जानने-समझने की ओर प्रवृत्त नहीं होते, किंतु जागृत प्रबुद्ध आत्माएँ प्राण तत्त्व के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए आकुल हो उठती हैं और प्राण विज्ञान तथा प्राण दर्शन का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर आत्मसत्ता में अभिव्यक्त प्राण-ऊर्जा के पाँचों स्तरों का साक्षात्कार किए बिना नहीं रहतीं। मानवीय सत्ता में पाँच प्राणों की पाँच आहुतियाँ अहिर्निश पड़ती रहती हैं। उसके बिना जीवन-यज्ञ का चल पाना ही संभव नहीं है, किंतु उस जीवन-यज्ञ देवयज्ञ के वास्तविक स्वरूप को जान थोड़े ही लोग पाते हैं। शेष तो उस ओर बेखबर-उदासीन ही रहे आते हैं और अपने भीतर बिखरी पड़ी इस अनंत वैभव की आदिस्रोत प्राणशक्ति की उपेक्षा करते हुए बाहर उसी प्राणतत्त्व के यत्किंचित् प्रकाश के प्रति आकर्षित होकर दौड़ते फिरते हैं। प्राणियों में जहाँ, जो कुछ भी जीवन है, चमक है, दीप्ति है, आकर्षण है, वह वस्तुतः प्राणांश के ही कारण है। प्राण विद्युत की अधिकता ही व्यक्ति को तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी बनाती है। उस प्राण-ऊर्जा का अभिवर्द्धन ही गायत्री साधना का प्रयोजन है। अपने ही काय-कलेवर की यज्ञशाला में पाँच प्राणों का जो पंचकुंडी यज्ञ निरंतर चलता रहता है, उस देवयज्ञ के प्रति जागृत होना, उसके रहस्य को समझना और उसकी प्रेरणाओं को ग्रहण करना प्रत्येक मनुष्य का पुनीत कर्त्तव्य है।


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