यथार्थता का संकोच (कहानी)

April 1987

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दो बहिनें थीं। एक का नाम यथार्थता, दूसरी का छलना। एक दिन दोनों सरोवर स्नान को गईं , कपड़े किनारे पर रखकर तैर तैरकर नहाईं।

आदत के अनुसार छलना ने यथार्थता के कपड़े पहन लिए। उसकी कुरूपता ढक गई और बहिन के परिधान पहनकर सुंदर लगने लगी।

यथार्थता बाहर निकली तो देखा कि छलना उसके कपड़े पहनकर जा चुकी है। वह करती भी क्या? जो कपड़े सामने थे, उन्हीं से तन ढका और कुरूप लगती, रोती-खीजती घर आई।

कपड़े दोनों के शरीर पर अभी, तक बदले हुए ही हैं। छलना सुंदर दिखती और अपने को यथार्थता कहकर लोगों को ठगती है। यथार्थता संकोच में डूबी, न कुछ कह पाती है न कुछ करते-धरते बनता है।


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