मनुष्य की पहचान का अदृश्य विज्ञान

April 1987

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शरीर से निकलने वाले वाष्प-प्रकाश को मापे जाने के प्रयास बहुत तरीके से किए जाते रहे है। ऐसा कहते है कि इस आभामंडल या तेजोवलय को सूक्ष्मदर्शी अपने ज्ञानचक्षुओं से भी देख सकते हैं। इसे थियोसाॅफीस्ट ईथरीक बॉडी या ईथरीक डबल कहते हैं, जबकि मनोवैज्ञानिकों-चिकित्सकों ने इसे आयडियोस्फियर नाम दिया है।

स्थूलरूप से वाष्प-ऊर्जा को मापे जाने के प्रयास थर्मोग्राफी से हुए हैं। वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि अंदर की सक्रिय ऊर्जा त्वचा में रक्त-प्रवाह के माध्यम से बाहर अभिसरित होती है व इस प्रकार पूरे शरीर का मैपिंग (मापन) किया जा सकना संभव है। एक विचित्र बात इस अनुसंधान से सामने आई है कि जो अंग व्याधिग्रस्त रहते हैं या आगे चलकर जिनके प्रभावित होने की संभावना रहती है, काफी पहले से ऊष्मा परिवर्तन बताने लगते हैं, इन्हें कोल्ड एवं हॉट क्षेत्र कहते हैं। जहाँ कैंसर होता या होने की संभावना रहती है, वे स्थान आस-पास के हल्के आसमानी या ग्रे रंग की तुलना में लाल या काले रंग की ऊष्मा फेंकते हैं। एक औसत वजन व क्षेत्रफल (1.75 वर्ग मीटर) वाले शरीर से 875 वॉट शक्ति की ऊर्जा उत्सर्जित होती है। इस प्रकार थर्मोग्राफी के माध्यम से सारे शरीर से निकलने वाला रेडिएशन मापा जाता है, जो कि आँखों से न देखी जा सकने वाली इंफ्रारेड से भी परे की तरंगों के स्तर का होता है।

थर्मोग्राफी से आगे चलें तो किर्लियन फोटोग्राफी एवं आर्गोन एनर्जी मापे जाने वाले यंत्र की बारी आती है, जो तथाकथित वाष्प-प्रकाश का मापन करते हैं। किर्लियन फोटाग्राफी बहुत दिनों तक विवाद का विषय बनी रही, पर ड्यूक विश्वविद्यालय के इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग विभाग के लैरीबर्टन, विलियम जाॅइन्स एवं ब्रेड स्टीवेन्स ने 1974 में पैरासाइकोलॉजिकल एसोशिएशन कन्वेन्शन न्यूयार्क में यह प्रमाणित किया कि जो स्पेक्ट्रम औरा के रूप में रिकार्ड होता है, उसे विशेष फोटोमल्टीप्लायर ट्यूब्स एवं प्टीकल फिल्टर्स द्वारा देखा जा सकता है एवं यह लाल वर्णक्रम के 660 नैनोमीटर रेंज में अंकित होता है। इसी तथ्य का डॉ. थेल्मा माॅस (यू.सी.एल.ए. न्यूरोसाइकिएट्री संस्थान) ने भी अपने प्रयोगों से सत्यापन किया है। यह कि शरीर से नीले यन डाॅट्स निकलते हैं, जो उत्सर्जित किरणों के माध्यम से शरीर के आस-पास एक ऊर्जामंडल बनाते हैं, 'जनरल ऑफ गोनाॅमी' में विल्हेम राइख द्वारा नवंबर 1971 में प्रकाशित हो चुका है। किर्लियन संयंत्र की अपेक्षा डॉ. राइख के आर्गोन एक्युमुलेटर्स को निदान व चिकित्सा दोनों ही क्षेत्रों में काफी मान्यता मिली है।

अब वैज्ञानिक तेजोवलय के स्पेक्ट्रम दिखाई देने वाले रंगों के आधार पर यह जान सकते हैं कि अमुक व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं स्तर क्या है? उसके गुण व स्वभाव में किस प्रकार की कमी-बेशी है? इतना ही नहीं, उसकी प्रकृति और शारीरिक-मानसिक स्थिति का भी बहुत हद तक पता लगाया जा सकता है। निदान होने पर तदनुरूप औषधि चिकित्सा या अध्यात्म उपचार भी बन पड़ता है। इस निदान पद्धति में चिकित्सक अपने रोगी की स्थिति का विश्लेषण अपनी सूक्ष्म इंद्रियों के सहारे ही कर लेता है, जबकि सामान्य तथा पैथालॉजी के विभिन्न परीक्षणों एवं इलेक्ट्रोफिजियोलॉजी की जाँच के आधार पर अनेक प्रकार के जटिल यंत्रों की सहायता से वस्तुस्थिति का पता लगाया जाता है।

दृश्य जगत से भी आगे बढ़कर अब स्पर्शेंद्रियों से वर्ण पहचानकर एवं गंध विज्ञान के सहारे व्यक्ति की स्थिति का पता लगाने का सूक्ष्म उपाय हस्तगत हुआ है। मास्को की सोवियत अकादमी ऑफ साइंसेज के बायोफिजीक्स विभाग के अनुसंधानकर्ता डॉक्टर नोवोमस्कि ने रोजा कुल शोवा नामक रूसी महिला की क्षमता का गहन अध्ययन किया व पाया कि वह आँख बंद करके भिन्न-भिन्न वेवलेंग्थ्स की प्रकाश किरणों से अपनी स्पर्शेंद्रियों को उत्तेजितकर प्रकाश डाले गए व्यक्ति की काया व मन के बारे में विस्तार से बता देती है। उन्होंने यह संभावना मन में रखते हुए की, कि यह क्षमता औरों में भी विकसित की जा सकती है, बच्चों पर अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग किए। जन्मांध बच्चों में यह क्षमता सर्वाधिक विकसित पाई गई । इन बच्चों ने यह भी बताया कि लाल रंग का स्पर्श खुरदरा, पीले रंग का चिकना और हल्के नीले रंग का स्पर्श फिसलने वाला होता है।

न केवल रसिया में, अपितु बल्गारिया की सोफिया-परामनोविज्ञान प्रयोगशाला में भी स्कीन विजन (त्वचादृष्टि) में विभिन्न स्तर की प्रवीणता विकसित करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है। 80 वर्षीय फ्रेंच चिकित्सक-साहित्यकार डॉ. जुल्सु रोमेइन ने 'इंटरनेशनल जनरल ऑफ पैरासाइकोलॉजी' में 'पैरो आप्टिक पॉवर' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया है, जिसमें 'स्पर्शेंद्रिय से अतींद्रिय ज्ञान' पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गीताकार ने भी “स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्च” तथा “मात्रा-स्पर्शास्तु कौन्तेय, 'बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा' के माध्यम से त्वचा के माध्यम से असंभाव्य जानकारी होने की संभावना व्यक्त की है।

स्पर्शेंद्रियों के समान ही शरीर की गंध भी किसी के शरीर, मन एवं स्वभाव के बारे में बहुत कुछ बता सकती है। कुत्ते, बिल्ली सरीखे प्राणी इस घ्राणशक्ति के सहारे ही सुदूर अवस्थित अपने शिकार का व कभी-कभी मीलों दूर तक पहुँचकर अपने मालिकों का पता लगा लेते हैं। फेराॅमाॅन नामक हारमोन द्वारा संचालित यह प्रक्रिया जीवों में मस्तिष्क के अग्रभाग के लफेक्ट्री कार्टेक्स एवं हिप्पोकेंपस क्षेत्र में घटित होती बताई गई है। यह क्षेत्र प्राणियों में सुविकसित होता है, यही कारण है कि पुलिस द्वारा प्रशिक्षित कुत्ते अपराधी की विशेष प्रकार की गंध का परिचय प्राप्त करके उसका पीछा करने व कई बार पकड़ने में सफल हो जाते हैं। नर व मादा पशुओं में आकर्षण-सहवास का माध्यम गंध ही होती है। शरीर से उत्सर्जित गंध नर को उत्तेजित करती व समय आने पर प्रणय निवेदन हेतु वे पहुँच जाते हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसी ही एक विशेष प्रकार की गंध प्रत्येक व्यक्ति के शरीर से निकला करती है, जो प्रकाशमंडल की तरह ही एक गंध का मंडल उसके चारों ओर बनाती है। हर व्यक्ति की गंध भिन्न-भिन्न होती है। जिस प्रकार उँगलियों की छाप के निशान हरेक के अलग-अलग होते है, उसी प्रकार गंध की विशिष्टता भी हरेक की अलग-अलग होती है। वांडर बिस्ट विश्वविद्यालय के जॉन एफ. कैनेडी शोधकेंद्र में कार्यरत डॉ. रिचार्ड पाॅटर एवं जॉन मरे नामक वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा यही सिद्ध किया है कि मनुष्य की काया से निकलने वाली गंध उनके सगे-संबंधी पहचान सकते हैं। उन्होंने 16 लड़के व 8 लड़कियों को तीन रात तक एक ही कमीज पहनने को दी, जिनकी डिजाइन एवं रंग एक जैसे ही थे। दिन के समय ये कमीजें प्लास्टिक के विशेष लिफाफों में बंद कर दी गई, ताकि वे वातावरण से प्रभावित न हो सकें। चौथी सुबह एक प्लास्टिक की ढक्कनदार बाल्टी में इन कमीजों को रखकर एक छिद्र द्वारा इन्हें सूँघने के लिए कहा गया। इन 24 सब्जेक्ट्स में 8 जोड़े सहोदर भाईयों व 8 जोड़े सहोदर बहिनों के थे। 24 में से बीस बच्चों ने मात्र सूँघकर अपने भाई या बहन की कमीज पहचान ली।

स्पर्श, गंध, ऊष्मा व प्रकाश—  इन सभी अदृश्य घटकों द्वारा अपनी पंचतन्मात्राओं को विकसितकर सामने वाले के बारे में वह जानकारी हस्तगत की जा सकती है ,जो सामान्यतया स्थूल काय-कलेवर से प्राप्त नहीं होती। यदि इस विज्ञान को गहराई से समझने का प्रयत्न किया जाए तो दूसरों के संबंध में वह अप्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त की जा सकती है, जो चर्मचक्षुओं से  इन स्थूल इंद्रियों से परे है। उपनिषद्कार ने 'त्वचिविद्युति हृदये च एका देवता'  सूत्र में त्वचा, कायविद्युत व हृदय के स्पंदनों को एक ही शक्ति द्वारा संचालित बताया है। यदि योग विज्ञान का आश्रय लेकर कायपिंड के विभिन्न घटकों की सामर्थ्य को विकसित किया जा सके, तो मनुष्य अनन्य विभूतियों का स्वामी बन सकता है।


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