काम का वास्तविक स्वरूप— क्रीड़ा-कल्लोल

April 1987

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धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष में “काम” शब्द को ठीक प्रकार समझ न पाने के कारण सर्वसाधारण ही नहीं, अध्यात्म-क्षेत्र के पथिकों को भी असमंजस में देखा जा सकता है। योगी, ब्रह्मचारी, तपस्वी कभी-कभी मन में सोचते हैं कि कहीं काम-वासना को दबाकर उसकी उपेक्षाकर वे भूल तो नहीं कर रहे। भौतिकवादी प्रतिपादनों ने तो काम-वासना को मानवी चेतना की मूल प्रवृत्ति ही ठहरा दिया है। फ्रायड, कामू एवं अन्य अनेक वैज्ञानिक-मनीषियों ने तो कामुकता की पूर्ति को आवश्यक मानते हुए उस पर बहुत जोर दिया है। उसे प्रकृति-प्रेरणा बताते हुए बच्चे के स्तनपान तक में कामक्रीड़ा का दर्शन किया है। भ्रांतियों का मूल कारण 'काम' का अर्थ यौन-लिप्सा की पूर्ति कर लेने तक मान लेना है।

काम वस्तुतः प्रत्येक प्राणी के अंतराल में सन्निहित एक उल्लास-आनंद है, जो आगे बढ़ने, ऊँचा उठने, विनोद का रस लेने एवं साहसिक प्रयास करने के लिए निरंतर उभरता रहता है। इसी को आकर्षणशक्ति कहते हैं। जड़ पदार्थों में यह ऋण और धन विद्युत के रूप में कार्य करती है, परस्पर उन्हें जोड़ती-खदेड़ती रहती हैं। भौतिकी के अनुसार सृष्टि की गतिविधियों का उद्गम यही है। अणु का नाभिक अपने भीतर इसी क्षमता का निर्झर दबाए बैठा है और समयानुसार उसे उभारकर विकिरण उत्पन्न करता है। शक्ति-तरंगें उसी से उद्भूत होती और संसार की अनेकानेक हलचलों का सृजन करती है।

प्राणियों में उसका उभार उत्साह, उल्लास एवं उमंगों के रूप में होता है। पारस्परिक प्रेम, सहयोग से उत्पन्न उपलब्धियों से परिचित होने के कारण आत्मा इस स्तर के प्रयासों में प्रवृत्त होती है। इसी को शास्त्रकारों ने “काम” कहा है; उसकी उपयोगिता का समर्थन किया है।

इसी प्रवृत्ति का एक छोटा रूप यौनाचार भी है। परिणाम की दृष्टि से यह नर और नारी दोनों के लिए बोझिल और कष्टकारक है। फिर भी प्राणियों के वंश-प्रवाह को स्थिर रखने की दृष्टि से उसे नियति ने एक विशेष प्रकार के रस एवं आकर्षण से भर दिया है कि जीवधारी उसमें विरत न होकर रुचि लेने लगें और प्रजनन का क्रम चलता रहे। यह कामतत्त्व का एक अति सामान्य प्रवृति है, जो यदा-कदा ही क्रियान्वित हो सकता है। जीवधारी ऋतु-गमन करते हैं और संतानोत्पादन के बाद लंबी अवधि के उपरांत उसकी पुनरावृत्ति का साहस करते हैं। समस्त प्राणी-जगत का यही उपक्रम है। एकमात्र मनुष्य ने ही इस संदर्भ में मर्यादा-उल्लंघन एवं स्वेच्छाचार का दुस्साहस किया है।

वनस्पति जगत में पुष्पों का सौंदर्य और सौरभ उनके अंतराल में उभरे हुए कामोल्लास का परिचय देते हैं। मयूर का नृत्य, भ्रमर का गुंजन, पक्षियों की फुदकन आदि में उसने उभरते हुए अंतःउल्लास का परिचय मिलता है। इसे चेतना की प्रगति के लिए उभरती हुई उमंग समझी जा सकती है। उत्साह के अभाव में नीरसता और निस्तब्धता का अंधकार ही छाने लगेगा। प्रगतिक्रम रुक जाने की इस स्थिति में पूरी आशंका है। अतएव प्रकृति ने जड़-चेतन में अपने-अपने स्तर का उत्साह उत्पन्न किया है और उनका कलेवर ऐसा सृजा है, जिसमें क्रीड़ा-कल्लोल की हलचलों को कार्यान्वित होने का अवसर मिलता है। प्राणियों की प्रगति और पदार्थों की हलचल इसी उभार पर निर्भर है। संक्षेप में यही काम-क्रीड़ा है, जो अगणित उमंगों के रूप में प्रकट होती है और विनोदभरे क्रिया-कृत्य करने की प्रेरणा देती है।

यह विनोद-उल्लास अनेक अवसरों पर अनेक स्तर के व्यक्तियों में अनेक प्रकार से उभरता है। यही कामोल्लास है। बच्चे अकारण उछलते-मचलते रहते हैं। किशोरों का खेल-कूद में अपनी स्फूर्ति का परिचय देते देखा जाता है। प्रौढ़ों को दूरदर्शी योजनाएँ कार्यांवित करने और गुत्थियाँ सुलझाने में भाव-विभोर देखा जाता है। गायन-वादन में झूमते हुए, नृत्य-अभिनय में थिरकते हुए कलाकार वस्तुतः अंतरंग के उल्लास का दर्शन दर्शकों को कराते और उन्हें भी अपनी ही तरह सरसता के निर्झर में आनंद लेने का अवसर देते हैं।

जीवन के सामान्य क्रियाकलापों में मन लगाने और आनंद पाने का अवसर जिस अंतःस्फूर्ति के आधार पर मिलता है, उसे शास्त्रकार के शब्दों में 'काम' कह सकते हैं। कामना की पूर्ति में उत्साह और उमंगों के साथ संलग्न होने वाली प्रवृत्ति ही काम है। इसका रसास्वादन जो न कर सका, वह अर्धमृतकवत् जीवित रहेगा। उसे महत्त्वपूर्ण सफलताओं के दर्शन जीवन में कभी न हो सकेंगे। हारा-थका, निराश, उदास बनकर समय काटेगा और धरती का भार बनकर मौत के दिन पूरे करेगा। संसार में जितने भी महत्त्वपूर्ण काम हुए हैं, जितने भी व्यक्ति उभरे हैं, उन सबके मूल में अदम्य अभिलाषा और उसकी पूर्ति के लिए आतुर साहसिक पुरुषार्थ ही प्रधान भूमिका निभाता रहा है।

हँसती-हँसाती, खिलती-खिलाती, उछलती-फुदकती, इतराती-इठलाती जिंदगी के मूल में जो भावभरा उल्लास काम करता है, वस्तुतः वही काम है। उसी की परिणति महत्वाकांक्षाओं के रूप में होती है और प्रयासरत होते समय पुरुषार्थता एवं साहस के रूप में ही उसे देखा जाता है।

भाव-संवेदनाओं में उत्कृष्टतम कोमलता प्रेमतत्त्व की है। उसे ईश्वर के साथ नियोजित करने पर उसका स्वरूप भक्ति जैसा बन जाता है। पारस्परिक प्रयोग में इसी को स्नेह-सौजन्य, सहयोग-मिलन के रूप में अनुभव किया जाता है। सहृदयता, करुणा, सेवा, सहायता, उदारता के रूप में उसी की परिणति होती है। रचनात्मक सत्प्रयोजनों के लिए किए जाने वाले त्याग-बलिदान में जो भाव-संवेदना काम करती है, उसे भी कामतत्त्व की उच्चस्तरीय फलश्रुति कह सकते हैं। संगीत, साहित्य, कला के रूप में प्रभावोत्पादक आकर्षण की जो मात्रा है, उसे उत्कृष्टतासंपन्न 'काम' ही कह सकते हैं।

काम को हेय तब से समझा जाने लगा, जबसे उसे यौनाचार के रूप में प्रतिपादित किया जाने लगा। यों रतिकर्म, अश्लील चिंतन और उस प्रयोजन के लिए होने वाले अन्य कृत्य भी कामुकता की व्याख्या परिधि में आते हैं। किंतु वास्तविकता यह है कि यह समस्त परिकर सुविस्तृत काम-क्षेत्र का बहुत ही छोटा और हेय स्वरूप है। वस्तुतः काम शब्द की परिभाषा क्रीड़ा, विनोद एवं उल्लास ही हो सकती है। उसे अंतरंग का उभार या उमंग भी कहा जा सकता है। यह प्रयोजन जिन भी उपाय-उपचारों से संभव होता हो, उन्हें काम की परिधि में सम्मिलित किया जा सकता है। धर्म और मोक्ष को आत्मिक एवं अर्थ और काम को भौतिक-प्रगति का माध्यम माना गया है। चतुर्दिक् महान उपलब्धियों में उसकी गरिमा के अनुरूप ही 'काम' को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वही सबको अपने जीवन में उतारते हुए वैसी ही अपनी जीवन-पद्धति बनानी चाहिए।


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